स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (जून, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता,
न्यूयार्क,
जून, १८९५
प्रिय श्रीमती बुल,
अभी हाल में ही मैं घर पहुँचा हूँ। इस स्वल्पकालीन यात्रा से मैंने गाँव तथा पहाड़ों – ख़ासकर श्री लेगेट के न्यूयार्क प्रदेशस्थित ग्राम्य-निवास का आनन्द लिया है।
बेचारे लैण्ड्सबर्ग इस मकान से चले गये हैं। वे अपना पता तक मुझे नहीं दे गये हैं। वे जहाँ कहीं भी जायँ – भगवान् उनका मंगल करे। अपने जीवन में मुझे जिन दो-चार निष्कपट व्यक्तियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे उनमें से एक हैं।
सभी कुछ भले के लिए होता है। मिलन के बाद विच्छेद अवश्यम्भावी है। आशा है कि मैं अकेला ही अच्छी तरह से कार्य कर सकूँगा। मनुष्य से जितनी कम सहायता ली जाती है, उतनी ही अधिक सहायता भगवान् की ओर से मिलती है! अभी अभी मुझे लन्दन के एक अंग्रेज महोदय का पत्र मिला – मेरे दो गुरुभाइयों के साथ कुछ दिन वे भारत के हिमालय प्रदेश में रह चुके हैं। उन्होंने मुझे लन्दन बुलाया है। आपको पत्र लिखने के बाद से ही मेरे छात्र मुझे सहायता पहुँचाने के लिए तत्पर हो उठे हैं और इसमें कोई सन्देह नहीं कि अब मेरा क्लास अच्छी तरह से चलता रहेगा। इससे मैं अत्यन्त आनन्दित हूँ, क्योंकि शिक्षा प्रदान करना मेरे जीवन के लिए भोजन अथवा श्वास-प्रश्वास की तरह एक अत्यावश्यकीय कार्य बन चुका है।
आपका स्नेहास्पद
विवेकानन्द
पुनश्च – ‘ – ’के सम्बन्ध में मुझे ‘बार्डरलैंड’ नामक एक अंग्रेजी समाचारपत्र में बहुत कुछ पढ़ने को मिला है। हिन्दुओं को अपने धर्म से गुण-ग्रहण की शिक्षा प्रदान करती हुई वे भारत में निःसन्देह एक अच्छा कार्य कर रही हैं।… उक्त महिला के लेखों को पढ़कर उनमें मुझे कोई पाण्डित्य का परिचय नहीं मिला।…अथवा किसी प्रकार की आध्यात्मिक भावना भी नहीं मिली। अस्तु, जो कोई भी जगत् का भला करना चाहे, भगवान उसकी सहायता करे।
पाखण्डी लोग कितनी आसानी से इस जगत् को धोखे में डाल देते हैं! सभ्यता के प्राथमिक विकास-काल से लेकर भोली-भाली मानव-जाति पर न जाने कितना छल-कपट किया जा चुका है।
वि.