स्वामी विवेकानंद के पत्र – प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित (2 अक्टूबर, 1893)
(स्वामी विवेकानंद का प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट को लिखा गया पत्र)
शिकागो,
२ अक्टूबर, १८९३
प्रिय आध्यापक जी,
पता नहीं, मेरी इस लम्बी चुप्पी के बारे में आपने क्या सोचा होगा! पहली बात तो यह है कि मैं अंतिम समय में कांग्रेस में पहुँचा, जब वह आरम्भ होने ही जा रही थी, और वह भी बिना किसी तैयारी के! इसी कारण मैं कुछ समय के लिए तो बहुत व्यस्त रहा। और दूसरी बात कि मुझे कांग्रेस में करीब-करीब प्रतिदिन भाषण देना पड़ता था और पत्र लिखने का समय ही नहीं मिल पाता था। और अंतिम तथा सबसे प्रधान बात, मेरे मित्र, यह थी कि मैं आपका इतना ऋणी हूँ कि जल्दबाजी में आपको व्यावसायिक पत्र जैसा कुछ लिखना आपकी अहैतुकी मैत्री का अपमान होता। कांग्रेस अब समाप्त हो गयी है।
प्यारे भाई! विश्व के बड़े-बड़े विचारकों और वक्ताओं की उस बड़ी सभा के सम्मुख मुझे पहले तो खड़े होने और बोलने में ही बड़ा डर लग रहा था। लेकिन ईश्वर ने मुझे शक्ति दी और मैंने प्रतिदिन साहस (?) से मंच और श्रोताओं का सामना किया। अगर सफल हुआ हूँ, तो उन्हीं की शक्ति से; और यदि मैं बुरी तरह असफल भी हुआ – इसका ज्ञान मुझे पहले से ही था – घोर अज्ञानी तो मैं था ही।
आपके मित्र प्रो. ब्रैडले तो मेरे प्रति बड़े कृपालु रहे और उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया। लेकिन आह! सभी लोग मुझ जैसे निरे नगण्य के प्रति इतने कृपालु हैं, जो वर्णनातीत है। लेकिन श्रेय तो उस परम पिता को है, जिसकी दृष्टि में भारत का इस अकिंचन और अज्ञानी संन्यासी तथा इस महादेश के परम विद्वान् धर्माचार्यों में कोई अंतर नहीं है। और भाई, प्रभु किस प्रकार प्रतिदिन मेरी मदद कर रहा है – कभी कभी तो मैं चाहता हूँ कि मुझे लाखों वर्षों की जिन्दगी मिल जाती और मलिन वस्त्रों में लिपटा, भिक्षा पर निर्वाह करता हुआ उनकी सेवा कर्म के द्वारा करता रहता।
अरे, मैं कितना चाहता था कि काश, आप यहाँ होते और भारत के कुछ मधुर व्यक्तियों को देखते। वक्ता मजूमदार और सुकुमार हृदय, बौद्ध भिक्षु धम्मपाल जैसे सौम्य व्यक्तियों को देखकर आपको यही अनुभव होता कि उस सुदूर और गरीब भारत में भी कुछ हृदय हैं, जो इस महान् और शक्तिशाली देश में जन्मे आप जैसे हृदय के स्वरों में स्पंदित हैं।
आपकी पुण्यशीला पत्नी के प्रति मेरा शाश्वत अभिवादन एवं बच्चों को मेरा प्यार और शुभकामनाएँ!
कर्नल हिगिन्सन ने मुझे बताया कि आपकी लड़की ने मेरे बारे में उनकी लड़की को लिखा था। वे बड़े उदार विचारों के व्यक्ति हैं और मेरे प्रति कृपाशील भी! कल मैं एवॉन्स्टन जाऊँगा और प्रो. ब्रैडले से वहाँ मिलूँगा।
ईश्वर हम सभी को पवित्र और शुद्ध बनाये, ताकि इस पार्थिव शरीर के त्यागने के पूर्व हम सभी पूर्ण आध्यात्मिक जीवन बिता सकें।
विवेकानन्द
(निम्नांश एक अलग कागज पर लिखा गया था।)
यहाँ मैं अपने जीवन से समझौता कर रहा हूँ। मैं जीवन भर हर परिस्थिति को प्रभु से आती हुई मानकर शांतिपूर्ण ढंग से अंगीकार करता तथा तदनुसार अपने को समायोजित कर लेता रहा हूँ। मैंने अमेरिका में जल के बाहर मछली की तरह अनुभव किया। मुझे भय था कि शायद मुझे कहीं परमात्मा द्वारा परिचालित चिर अभ्यस्त मार्ग छोड़ अपनी चिंता का भार स्वयं न लेना पड़े। लेकिन यह कितना बीभत्स और कृतघ्नतापूर्ण विचार था! अब मैं समझ रहा हूँ कि जिस ईश्वर ने मुझे हिमालय के हिमशिखरों पर और भारत की जलती भूमि पर पथ दिखलाया था, वही मुझे यहाँ भी सहायता कर रहा है। उस परम पिता की जय हो! अतः मैं अब चुपचाप अपने पुराने रास्ते पर फिर चल रहा हूँ। कोई मुझे भोजन और आश्रय देता है; कोई मुझे उसके बारे में बोलने को कहता है और मैं जानता हूँ कि वे उसीके भेजे हैं, और आज्ञा पालन करना मेरा काम है। और मेरी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति वही करते हैं। उसकी इच्छा पूर्ण हो!
‘जो मुझ पर आश्रित है और अपने सारे अभिमान और संघर्ष का परित्याग करता है, मैं उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता हूँ।’1
ऐसा ही एशिया में है। ऐसा ही यूरोप में, ऐसा ही अमेरिका में और ऐसा ही भारत की मरुभूमि में भी। ऐसा ही अमेरिका के व्यापार के कोलाहल में भी। क्योंकि क्या वह यहाँ भी नहीं है? और यदि यह न करे, तो मैं यही समझूँगा कि वह चाहता है कि मैं मिट्टी की इस तीन मिनट की काया को अलग रख दूँ – और मैं उसे सहर्ष त्याग दूँगा।
भाई, पता नहीं, हम लोग मिल सकेंगे या नहीं। वही जानता है। आप महान् विद्वान् और श्रेष्ठ हैं। मैं आपको या आपकी पत्नी को कुछ भी उपदेश देने का दुस्साहस नहीं करूँगा। पर आपके बच्चों के लिए मैं वेद के कुछ उद्धरण प्रस्तुत करता हूँ।
‘चारों वेद, विज्ञान, भाषा, दर्शन एवं सभी विद्याएँ मात्र आभूषणात्मक हैं। सच्ची विद्या एवं सत्य ज्ञान तो वह है, जो हमें उसके समीप ले जाता है, जिसका प्रेम नित्य है।’
‘वह कितना सत्य, कितना स्पृश्य एवं प्रत्यक्ष है, जिसके द्वारा हमारी त्वचा को स्पर्श का ज्ञान होता है, आँखें देखती हैं और संसार को उसकी वास्तविकता प्राप्त होती है।’
‘उसको सुनने के पश्चात् कुछ भी सुनना शेष नहीं रहता। उसके दर्शन के बाद कुछ भी देखना बाकी नहीं बचता। उसकी प्राप्ति के पश्चात् किसी चीज की प्राप्ति शेष नहीं रहती।’
‘वह हमारे चक्षुओं का चक्षु है, कानों का कान है, आत्माओं की आत्मा है।’
मेरे प्यारे बच्चे, तुम्हारे पिता और माता से भी अधिक निकट वह है। तुम पुष्पों की भाँति निर्दोष और पवित्र हो! तुम ऐसे ही रहो और किसी दिन वह स्वयं प्रकट होगा। प्रिय आस्टिन, जब तुम खेल रहे होगे, तो तुम्हारे साथ एक दूसरा साथी भी खेलता होगा,जो तुमको किसी भी व्यक्ति से भी अधिक प्यार करता है। और ओह! वह आमोद से परिपूर्ण है। वह सदा खेलता रहता है – कभी बहुत बड़े गेंदों से, जिन्हें हम पृथ्वी और सूर्य कहते हैं और कभी तुम्हारी ही तरह छोटे बच्चे के रूप में तुम्हारे साथ हँसता और खेलता है।
उसको देखना और उसीके साथ खेलना कितनी विचित्र बात है! जरा सोचो तो इसे।
अध्यापक जी, अब मैं घूम रहा हूँ। केवल शिकागो जब जब आता हूँ, मैं श्री ल्योन्स और श्रीमती ल्योन्स से बराबर मिलता हूँ। ये दोनों बहुत संभ्रान्त दम्पति हैं। आप श्री जॉन बी. ल्योन्स, २६२ मिशिगन एवेन्यू, शिकागो, के मार्फत ही मुझे पत्र देने की कृपा करेंगे।
‘जो अनेकत्व के इस जगत् में उस एक को प्राप्त कर लेता है – जो चंचल छायाओं के इस संसार में अगर कोई अचल सत्ता पा लेता है – मृत्यु के इस संसार में जो जीवन प्राप्त कर लेता है – मात्र वही यातना और कष्ट के इस सागर को पार करता है। उसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं।’ (वेद)
“वेदान्तियों का जो ब्रह्म है, द्वैतवादियों का जो ईश्वर है, सांख्य में जो पुरुष है, मीमांसाशास्त्र का जो ‘कारण’ है, बौद्धों का जो धर्म है, नास्तिकों का जो ‘शून्य’ है और प्रेमियों के लिए जो असीम प्रेम है, वही हम सबों को अपनी दयापूर्ण छत्रछाया में रक्षा करे।” यह उद्धरण द्वैतवादी नैयायिक महान् दार्शनिक उदयनाचार्य ने अपने अद्भुत ग्रन्थ ‘कुसुमाञ्जलि’ के मंगलाचरण का है। उस पुस्तक में उन्होंने श्रुति का आश्रय लिये बिना एक सगुण स्त्रष्टा और अमित प्रेमयुक्त नैतिक शासक के अस्तित्व की स्थापना का प्रयास किया है।
आपका चिर कृतज्ञ मित्र,
विवेकानन्द
- अनन्याश्चितयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ – गीता॥९।२२॥