स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (10 जुलाई, 1893)

(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)

ओरियेण्टल होटल, याकोहामा,
१० जुलाई, १८९३

प्रिय आलासिंगा,

बालाजी, जी. जी, तथा अन्य मद्रासी मित्र,

अपनी गति-विधि की सूचना तुम लोगों को बराबर न देते रहने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। यात्रा में जीवन बहुत व्यस्त रहता है; और विशेषतः बहुत सा सामान-असबाब अपने साथ रखना और उनकी देख-भाल करना तो मेरे लिए एक नयी बात है। इसीमें मेरी काफी शक्ति लग रही है। यह सचमुच एक बड़े झंझट का काम है।

बम्बई से कोलम्बो पहुँचा। हमारा स्टीमर वहाँ प्रायः दिन भर ठहरा था। इस बीच स्टीमर से उतरकर मुझे शहर देखने का अवसर मिला। हम सड़कों पर मोटर गाड़ी से गये; वहाँ की और सब वस्तुओं में भगवान् बुद्धदेव की निर्वाण के समय की लेटी हुई मूर्ति की याद मेरे मन में अभी तक ताजी है।…

दूसरा स्टेशन पेनांग था, जो मलय प्रायद्वीप में समुद्र के किनारे का एक छोटा सा टापू है। मलयनिवासी सब मुसलमान हैं। किसी जमाने में ये लोग मशहूर समुद्री डाकू थे और जहाजों से व्यापार करनेवाले इनके नाम से घबराते थे। किन्तु आजकल आधुनिक युद्धपोतों की चौमुखी मार करनेवाली विशाल तोपों के भय से ये लोग डकैती छोड़कर शान्तिपूर्ण धन्धों में लग गये हैं। पेनांग से सिंगापुर जाते हुए हमें उच्च पर्वतमालाओं से युक्त सुमात्रा द्वीप दिखायी दिया। जहाज के कप्तान ने संकेत कर मुझे समुद्री डाकुओं के बहुत से पुराने अड्डे दिखाये। सिंगापुर स्टेट्स सेट्लमेण्ट्स की राजधानी है। यहाँ एक सुन्दर वनस्पति-उद्यान है, जिसमें ताड़ जाति के तरह तरह के शानदार पेड़ लगाये गये हैं। यहाँ पंखेनुमा पत्तोंवाले ताड़ के पेड़ बहुतायत से पाये जाते हैं, जिन्हें ‘यात्री ताल-वृक्ष’ कहा जाता है और ब्रेड फ्रूट (Bread Fruit) नामक पेड़ तो जहाँ देखो, वहीं मिलता है। मद्रास में जिस प्रकार आम के पेड़ बहुतायत से होते हैं, उसी प्रकार यहाँ मैंगोस्टीन नामक फल बहुत होता है। पर आम तो आम ही है, उसके साथ किस फल की तुलना हो सकती है? यद्यपि यह स्थान भूमध्य रेखा के बहुत निकट है, फिर भी मद्रास के लोग जितने काले होते हैं, यहाँ के लोग उसके अर्धांश भी काले नहीं। सिंगापुर में एक बढ़िया अजायबघर भी है।…

इसके बाद हांग कांग आता है। यहाँ चीनी लोग इतनी अधिक संख्या में हैं कि यह भ्रम हो जाता है कि हम चीन ही पहुँच गये हैं। ऐसा लगता है कि सभी श्रम, व्यापार आदि इन्हीं के हाथों में है। और हांग कांग तो वास्तव में चीन ही है। ज्यों ही जहाज वहाँ लंगर डालता है कि सैकड़ों चीनी डोंगियाँ तट पर ले जाने के लिए घेर लेती हैं। दो दो पतवारोंवाली ये डोंगियाँ कुछ विचित्र सी लगती हैं। माझी डोंगी पर ही सकुटुंब रहता है। पतवारों का संचालन प्रायः पत्नी ही करती है। एक पतवार दोनों हाथों से चलाती है और दूसरी को एक पैर से। और उनमें से नब्बे फीसदी स्त्रियों की पीठ पर उनके बच्चे इस प्रकार बँधे रहते हैं कि वे आसानी से हाथ-पैर डुला सकें। मजे की बात तो यह है कि ये नन्हें-नन्हें चीनी बच्चे अपनी माताओं की पीठ पर आराम से झूलते रहते हैं और उनकी माताएँ कभी अपनी सारी शक्ति लगाकर पतवार घुमाती हैं, कभी भारी बोझ ढकेलती हैं, या कभी बड़ी फुर्ती से एक डोंगी से दूसरी डोंगी पर कूद जाती हैं। और यह सब होता है, लगातार इधर से उधर जानेवाली डोंगियों और वाष्प-नौकाओं की भीड़ के बीच। हर समय इन चीनी बाल-गोपालों के शिखायुक्त मस्तकों के चूर-चूर हो जाने का डर रहता है। पर उन्हें इसकी क्या परवाह? उन्हें इन बाहर की हलचलों से कोई सरोकार नहीं, वे तो अपनी चावल की रोटी कुतर-कुतरकर खाने में मस्त रहते हैं, जो काम के झंझटों से बौखलायी हुई माँ उन्हें दे देती है। चीनी बच्चों को पूरा दार्शनिक ही समझो। जिस उम्र में भारतीय बच्चे घुटनों के बल भी नहीं चल पाते, उस उम्र में वह स्थिर भाव से चुपचाप काम पर जाता है। आवश्यकता का दर्शन वह अच्छी तरह सीख और समझ लेता है। चीनियों और भारतीयों की नितान्त दरिद्रता ने ही उनकी सभ्यताओं को निर्जीव बना रखा है। साधारण हिन्दू या चीनी के लिए उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति इतनी भयंकर लगती है कि उसे और कुछ सोचने की फुरसत नहीं।

हांग-कांग बड़ा ही सुन्दर नगर है। वह पहाड़ के शिखरों और ऊँची ढालू जगहों पर बसा हुआ है। चोटी के ऊपर शहर की अपेक्षा अत्यधिक ठण्ड पड़ती है। पहाड़ के ऊपर एक ट्रामगाड़ी प्रायः एकदम सीधी चढ़ती है। लोहे के तारों की रस्सी से खींचकर और भाप की शक्ति के द्वारा वह ऊपर की ओर परिचालित होती है।

हांग-कांग में हम लोग तीन दिन रहे और वहाँ से कैंटन देखने गये। यह शहर एक नदी के चढ़ाव की ओर हांग कांग से अस्सी मील पर है। नदी इतनी काफी चौड़ी है कि बड़े से बड़े स्टीमर उसमें से गुजर सकते हैं। हांग कांग से कैंटन को बहुत से चीनी स्टीमर आते-जाते रहते हैं। हम लोग ऐसे ही एक स्टीमर पर शाम को सवार हुए और दूसरे दिन भोर में कैंटन पहुँचे। वहाँ की भीड़-भाड़ और व्यस्त जीवन का क्या कहना? नावें तो इतनी अधिक हैं कि मानो उनसे नदी पट गयी हो! ये नावें केवल व्यापार के ही काम नहीं आतीं, बल्कि सैकड़ों ऐसी भी हैं, जिनमें घर की भाँति लोग रहते हैं। और इनमें से बहुतेरी बहुत बढ़िया और बड़ी बड़ी हैं। सच पूछो तो ये बड़े बड़े दुमंजिले या तिमंजिले मकान हैं, जिनके चारों ओर बरामदा है और बीच में रास्ते – और सब पानी पर तैरते हैं। जिस छोटे से भूभाग पर हम लोग उतरे, वह चीन सरकार की ओर से विदेशियों के रहने के लिए दी गयी है। हमारे चारों ओर, नदी के दोनों किनारों पर मीलों तक यह बड़ा नगर बसा हुआ है – एक विशाल जन-समूह, जिसमें निरन्तर कोलाहल, धक्कम-धुक्का, चहल-पहल और परस्पर स्पर्धा का ही बोलबाला दिखायी देता है। परन्तु इतनी आबादी, इतनी क्रियाशीलता होते हुए भी मैंने इतना गन्दा शहर अब तक नहीं देखा। जिसे भारतवर्ष में गन्दगी समझते हैं, उस दृष्टि से नहीं – चीनी लोग कूड़े का एक तिनका भी बर्बाद नहीं होने देते – वरन् इस दृष्टि से कि मानो इन लोगों ने कभी न नहाने की कसम खा ली हो। हर एक घर में नीचे दूकान है और ऊपरी मंजिल में लोग रहते हैं। गलियाँ इतनी सँकरी हैं कि उनमें से गुजरते हुए दोनों ओर की दूकानों को हाथ फैलाकर लगभग छू सकते हैं। हर दस कदम पर मांस की दूकानें मिलती हैं। ऐसी दूकानें भी हैं, जिनमें कुत्ते-बिल्लियों का मांस बिकता है। हाँ, इस तरह का मांस वही लोग खाते हैं, जो बहुत गरीब हैं।

चीनी महिलाएँ बाहर दिखायी नहीं देतीं। उनमें उत्तर भारत के ही समान परदे की प्रथा है। केवल मजदूर वर्ग की ही औरतें बाहर दिखायी पड़ती हैं। इनमें भी एकाध स्त्री ऐसी दिखायी पड़ेगी, जिसके पाँव बच्चों से भी छोटे हैं और वह लड़खड़ाती हुई चलती है।

मैं बहुत से चीनी मन्दिरों में गया। कैंटन में जो सबसे बड़ा मन्दिर है, वह प्रथम बौद्ध सम्राट, और सबसे पहले बौद्ध धर्म स्वीकार करनेवाले पाँच सौ पुरुषों का स्मारकस्वरूप है। मन्दिर के बीचोबीच बुद्धदेव की मूर्ति स्थापित है, उसके नीचे सम्राट् की और दोनों ओर शिष्य-मण्डली की मूर्तियों की कतारें हैं। ये सभी लकड़ी में खूबसूरती से नक्काशी कर बनायी गयी हैं।

कैंटन से मैं फिर हांग कांग लौटा और वहाँ से जापान पहुँचा। पहला बन्दरगाह नागासाकी था, जहाँ हमारा जहाज कुछ घण्टों के लिए ठहरा और हम लोग गाड़ी में बैठकर शहर घूमने गये। चीनियों में और इनमें कितना अन्तर है! सफाई में जापानी लोग दुनिया में किसीसे कम नहीं हैं। सभी वस्तुएँ साफ-सुथरी हैं। सड़कें प्रायः सब चौड़ी, सीधी, सम और पक्की हैं। उनके मकान पिंजड़ों की भाँति छोटे हैं और प्रायः प्रत्येक कस्बे और गाँव की बस्तियों के पीछे सदाबहार चीड़ वृक्षों से परिपूर्ण हरी-भरी पहाड़ियाँ हैं। जापानी लोग ठिगने, गोरे और विचित्र वेश-भूषावाले हैं। उनकी चालढाल, हाव-भाव, रंग-ढंग सभी सुन्दर हैं। जापान सौन्दर्य-भूमि है! प्रायः प्रत्येक घर के पिछवाड़े जापानी ढंग का बढ़िया बगीचा रहता है। इन बगीचों के छोटे-छोटे लता-वृक्ष, हरे-भरे घास के मैदान, छोटे-छोटे जलाशय और नालियों पर बने हुए छोटे-छोटे पत्थर के पुल बड़े सुहावने लगते हैं।

नागासाकी से चलकर हम कोबे पहुँचे। यहाँ जहाज से उतरकर मैं जापान का मध्य भाग देखने के उद्देश्य से स्थल-मार्ग से याकोहामा आया।

इस मध्य भाग में मैंने तीन शहर देखे – महान् औद्योगिक नगर ओसाका, भूतपूर्व राजधानी क्योटो और वर्तमान राजधानी टोकियो। टोकियो कलकत्ते से प्रायः दुगना बड़ा होगा और आबादी भी लगभग दूनी होगी।

बिना पासपोर्ट के किसी भी विदेशी को जापान के भीतरी भाग में भ्रमण करने नहीं दिया जाता।

जान पड़ता है, जापानी लोग वर्तमान आवश्यकताओं के प्रति पूर्ण सचेत हो गये हैं। उनकी एक पूर्ण सुव्यवस्थित सेना है, जिसमें यहीं के अफसर द्वारा आविष्कृत तोपें काम में लायी जाती हैं और जो अन्य देशों की तुलना में किसीसे कम नहीं हैं। ये लोग अपनी नौसेना बढ़ाते जा रहे हैं। मैंने एक जापानी इंजीनियर की बनायी करीब एक मील लम्बी सुरंग देखी है।

दियासलाई के कारखाने तो देखते ही बनते हैं। अपनी आवश्यकता की सभी चीजें अपने देश में ही बनाने के लिए ये लोग तुले हुए हैं। चीन और जापान के बीच में चलनेवाली एक जापानी स्टीमर लाइन है, जो कुछ ही दिनों में बम्बई और याकोहामा के बीच यात्री जहाज चलाना चाहती है।

यहाँ मैंने बहुत से मन्दिर देखे। प्रत्येक मन्दिर में कुछ संस्कृत मंत्र प्राचीन बंग लिपि में लिखे हुए हैं। बहुत थोड़े पुरोहित संस्कृत जानते हैं, पर वे सबके सब बड़े बुद्धिमान हैं। अपनी उन्नति करने का आधुनिक जोश पुरोहितों तक में प्रवेश कर गया है।

जापानियों के विषय में जो कुछ मेरे मन में है, वह सब मैं इस छोटे से पत्र में लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ट संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन और जापान में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्न-राज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो?… जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद करनेवालो, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो। सठियाई बुद्धिवालों, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायेगी! अपनी खोपड़ी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृद्धिगत कूड़ा-कर्कट भरे बैठे, सैकड़ों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोंटनेवाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो?… किताबें हाथ में लिये तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो, यूरोपियनों के मस्तिष्क में निकली हुई इधर-उधर की बातों को लेकर बेसमझे दुहरा रहे हो। तीस रुपये की मुंशीगीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी-जान तड़प रहे हो – यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षा है। तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्ड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तड़पते हुए उन्हें घेरकर ‘रोटी दो, रोटी दो’ चिल्लाते रहते हैं! क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो?

आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखण्ड को जड़-मूल से निकाल फेंको! आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोड़ो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ़ रहे हैं। क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? क्या तुम्हें अपने देश से प्रेम है? यदि ‘हाँ’, तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुड़कर मत देखो; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढ़ते जाओ!

भारतमाता कम से कम एक हजार युवकों का बलिदान चाहती है – मस्तिष्कवाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोड़ने के लिए ही अंग्रेजी राज्य को भारत में भेजा है और मद्रासियों ने ही अंग्रेजों को भारत में पैर जमाने में सबसे पहले सहायता दी है। मद्रास ऐसे कितने निःस्वार्थी और कच्चे युवक देने के लिए तैयार हैं, जो गरीबों के साथ सहानुभूति रखने के लिए, भूखों को अन्न देने के लिए और सर्वसाधारण में नव जागृति का प्रचार करने के लिए प्राणों की बाजी

लगाकर प्रयत्न करने को तैयार हैं और साथ ही उन लोगों को, जिन्हें तुम्हारे पूर्वजों के अत्याचारों ने पशुतुल्य बना दिया है, मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए अग्रसर होंगे?

तुम्हारा,
विवेकानन्द

पुनश्च – धीरता और दृढ़ता के साथ चुपचाप काम करना होगा। समाचार-पत्रों के जरिये हल्ला मचाने से काम न होगा। सर्वदा याद रखना – नाम-यश कमाना अपना उद्देश्य नहीं है।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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