स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (12 जनवरी, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
प्रिय आलासिंगा,
१२ जनवरी, १८९५
कल मैंने जी. जी. को एक पत्र लिखा है, किन्तु और भी कुछ बातें आवश्यक प्रतीत होने के कारण तुम्हें लिख रहा हूँ। सबसे पहली बात तो यह है कि पहले कई बार मैं तुम लोगों को लिख चुका हूँ कि मुझे पुस्तिकाएँ एवं समाचार-पत्र आदि और भेजने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु मुझे दुःख है कि तुम अब भी बराबर भेजते जा रहे हो। मुझे उनको पढ़ने तथा उस ओर ध्यान देने का एकदम अवकाश नहीं है। कृपया ऐसी चीजें पुनः न भेजी जाएँ। मिशनरी, थियोसॉफिस्ट या उस प्रकार के लोगों की मैं रत्ती भर भी परवाह नहीं करता – वे सब जो कुछ करना चाहें, करें। उनके बारे में आलोचना करने का अर्थ उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाना है।
तुम्हें मालूम ही है कि मिशनरी लोग गाली बकना जानते हैं, बहस करना नहीं। अब इस बात को तुम हमेशा के लिए जान रखो कि नाम, यश या उसी प्रकार की व्यर्थ की चीजों की मैं बिल्कुल परवाह नहीं करता। संसार के कल्याण के लिए मैं अपने विचारों का प्रचार करना चाहता हूँ। तुम लोगों ने निःसन्देह बहुत ही बड़ा काम किया है, किन्तु जहाँ तक कार्य अग्रसर हुआ है, उससे मुझे केवल प्रशंसा ही मिली है। संसार में एकमात्र प्रशंसा लाभ करने की अपेक्षा मुझे अपने जीवन का मूल्य कहीं अधिक प्रतीत होता है। उस प्रकार के मूर्खतापूर्ण कार्यों के लिए मेरे पास बिल्कुल समय नहीं है। भारत में मेरे विचारों के प्रचार तथा स्वयं संघबद्ध होने के लिए अब तक तुमने क्या किया है? – कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। एक ऐसे संघ की नितान्त आवश्यकता है, जो हिन्दुओं में पारस्परिक सहयोग एवं गुणग्राहकता की शिक्षा प्रदान कर सके। मेरे कार्य की सराहना करने के लिए कलकत्ते में पाँच हजार व्यक्ति एकत्र हुए थे, अन्य स्थानों में भी सैकड़ों व्यक्ति इकट्ठे हुए थे। ठीक है, किन्तु उनमें से प्रत्येक से यदि एक आने की सहायता भी माँगी जाए, तो क्या वे देंगे? हमारी समग्र जाति का चरित्र बालकों की तरह दूसरों पर निर्भर रहने का है। यदि कोई उसके सामने भोजन की सामग्री उपस्थित करे, तो वे खाने के लिए सदा प्रस्तुत रहेंगे, और कुछ व्यक्ति तो ऐसे हैं कि यदि उन वस्तुओं को उनके मुँह में डाल दिया जाए, तो उनके लिए और भी अच्छा। अमेरिका तुम्हारी आर्थिक सहायता नहीं कर सकता, और करे भी क्यों? यदि तुम लोग स्वयं अपनी सहायता नहीं कर सकते, तो तुम जीवित रहने के अधिकारी नहीं हो। तुमने जो पत्र लिखकर मुझसे यह जानना चाहा कि अमेरिका से प्रतिवर्ष कुछ एक हजार रुपयों की निश्चित आशा की जा सकती है या नहीं, इसको पढ़कर मैं एकदम निराश हो चुका हूँ। तुमको एक पैसा भी नहीं मिलेगा। रुपये-पैसे का संग्रह तुमको स्वयं करना होगा। कहो, कर सकते हो? जनता को शिक्षित करने की अपनी योजना इस समय मैंने स्थगित कर रखी है। वह धीरे-धीरे पूरी होती रहेगी। इस समय तो मैं उत्साही प्रचारकों का एक दल चाहता हूँ। विभिन्न धर्मों की तुलनात्मक शिक्षा, संस्कृत एवं कुछ पाश्चात्य भाषाओं तथा वेदान्त में विभिन्न मतवादों की शिक्षा प्रदान करने के लिए हमें मद्रास में एक कॉलेज की स्थापना करनी ही होगी। हमें एक प्रेस रखना होगा, और अंग्रेजी तथा देशीय भाषाओं में प्रकाशित समाचार-पत्र भी। इसमें से किसी भी एक कार्य को पूरा करो, तब मैं समझूँगा कि तुम लोगों ने कोई काम किया है। हमारा राष्ट्र भी तो यह दिखाये कि वह भी कुछ करने के लिए तत्पर है। यदि तुम लोग भारत में इन कार्यों में से कुछ भी न कर सको, तो मुझे अकेला ही कार्य करने दो। संसार के लोगों को देने के लिए मेरे पास एक संदेश है, जो उसे आदरपूर्वक ग्रहण तथा कार्यरूप में परिणत करने को प्रस्तुत हैं। ग्रहण करने वाला चाहे कोई भी हो, इसकी मुझे परवाह नहीं है। ‘जो मेरे पिता की अभिलाषा को कार्यरूप में परिणत करेगा’, वही मेरा अपना है।
अस्तु, मैं फिर भी यह कह देना चाहता हूँ कि इस कार्य के लिए तुम लोग पूर्ण प्रयास करते रहना – इसे एकदम छोड़ न देना। इस बात को याद रखना कि मेरी अत्यन्त प्रशंसा हो, यह मैं नहीं चाहता। मैं अपने विचारों को कार्य में परिणत हुआ देखना चाहता हूँ। तभी महापुरुषों के शिष्यों ने अपने गुरु के उपदेशों को उस एक व्यक्ति के साथ ही सदा अच्छेद्य रूप से जोड़ने की चेष्टा की है और अन्त में उसी एक व्यक्ति के लिए उन विचारों को भी नष्ट कर दिया है। श्रीरामकृष्ण के शिष्यों को अवश्य ही इस बात से सदा सावधान रहना होगा। विचारों के प्रसार के लिए काम करो, व्यक्ति के नाम के लिए नहीं। प्रभु तुम्हारा कल्याण करे। आशीर्वाद सहित,
सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द