स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (1896)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
१४, ग्रेकोट गार्डन्स,
वेस्टमिनिस्टर, लन्दन,
१८९६
प्रिय आलासिंगा,
लगभग तीन सप्ताह हुए मैं स्विट्जरलैण्ड से लौटा हूँ, पर इसके पूर्व तुम्हें पत्र न लिख सका। पिछली डाक से मैंने तुम्हें कील के पॉल डॉयसन पर लिखा एक लेख भेजा था। स्टर्डी की पत्रिका की योजना में अभी भी विलम्ब है। जैसा कि तुम जानते हो मैंने सेंट जार्ज रोड स्थित मकान छोड़ दिया है। ३९, विक्टोरिया स्ट्रीट पर एक लेक्चर हॉल हमें मिल गया है। ई. टी. स्टर्डी के मार्फत भेजने पर चिट्ठी-पत्री मुझे एक साल तक मिल जाया करेगी। ग्रेकोट गार्डन्स के कमरे मेरे तथा मात्र तीन महीने के लिए आये हुए स्वामियों के आवास के लिए हैं। लन्दन में काम शीघ्रता से बढ़ रहा है और हमारी कक्षाएँ बड़ी होती जा रही हैं। इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं कि यह इस रफ्तार से बढ़ता ही जायगा, क्योंकि अंग्रेज लोग दृढ़ एवं निष्ठावान हैं। यह सही है कि मेरे छोड़ते ही इसका अधिकांश तानाबाना टूट जायगा। कुछ घटित अवश्य होगा। कोई शक्तिशाली व्यक्ति इसे वहन करने के लिए उठ खड़ा होगा। ईश्वर जानता है कि क्या अच्छा है। अमेरिका में वेदान्त और योग पर बीस उपदेशकों की आवश्यकता है। पर ये उपदेशक और इन्हें यहाँ लाने के लिए धन कहाँ मिलेगा? यदि कुछ सच्चे और शक्तिशाली मनुष्य मिल जायें तो आधा संयुक्त राज्य दस वर्ष में जीता जा सकता है। वे कहाँ हैं? वहाँ के लिए हम सब अहमक हैं। स्वार्थी, कायर, देश-भक्ति की केवल मुख से बकवास करने वाले, और अपनी कट्टरता तथा धार्मिकता के अभिमान से चूर!! मद्रासियों1में अधिक स्फूर्ति और दृढ़ता होती है, परन्तु वहाँ हर मूर्ख विवाहित है। ओफ, विवाह! विवाह! विवाह! और फिर आजकल के विवाह का तरीका जिसमें लड़कों को जोत दिया जाता है! अनासक्त गृहस्थ होने की इच्छा करना बहुत अच्छा है, परन्तु मद्रास में अभी उसकी आवश्यकता नहीं है बल्कि अविवाह की है…
मेरे बच्चे, मैं जो चाहता हूँ वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु जिनके भीतर ऐसा मन वास करता हो, जो कि वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज। हमारे सुन्दर होनहार लड़के – उनके पास सब कुछ है यदि वे विवाह नाम की क्रूर वेदी पर लाखों की गिनती में बलिदान न किये जायें! हे भगवान्, मेरे हृदय का क्रन्दन सुनो। मद्रास तभी जाग्रत होगा, जब उसके प्रत्यक्ष हृदय स्वरूप सौ शिक्षित नवयुवक संसार को त्यागकर और कमर कस कर, देश-देश में भ्रमण करते हुए सत्य का संग्राम लड़ने के लिए तैयार होंगे। भारत के बाहर का एक आघात भारत के अन्दर के एक लाख आघातों के बराबर है। खैर, यदि प्रभु की इच्छा होगी तो सभी कुछ हो जायेगा।
मिस मूलर ही वह व्यक्ति हैं जिनसे मैंने तुम्हें रुपये दिलाने का वचन दिया था। मैंने उन्हें तुम्हारे नये प्रस्ताव के विषय में बतला दिया है। वे उसके बारे में सोच रही हैं। इस बीच मैं सोचता हूँ उन्हें कुछ काम दे देना उचित रहेगा। उन्होंने ‘ब्रह्मवादिन्’ और ‘प्रबुद्ध भारत’ का प्रतिनिधि बनना स्वीकार कर लिया है। इसके विषय में क्या तुम उन्हें लिखोगे? उनका पता है : एयरली लॉज, रिजवे गार्डन्स, विम्बल्डन, इंग्लैण्ड। वहीं उनके साथ पिछले कई हफ्तों से मैं रह रहा था। लेकिन लन्दन का काम मेरे वहाँ रहे बिना संभव नहीं है। इसीलिए मैंने अपना आवास बदल दिया है। मुझे दुःख है कि इससे मिस मूलर की भावनाओं को थोड़ी ठेस पहुँची है। लेकिन किया ही क्या जा सकता है! उनका पूरा नाम है मिस हेनरियेटा मूलर। मैक्समूलर के साथ गाढ़ी मित्रता हो रही है। मैं शीघ्र ही ऑक्सफोर्ड में दो व्याख्यान देने वाला हूँ।
मैं वेदान्त दर्शन पर कुछ बड़ी चीज लिख रहा हूँ और भिन्न-भिन्न वेदों से वाक्य संग्रह करने में लगा हूँ, जो कि वेदान्त की तीनों अवस्थाओं से सम्बन्ध रखते हैं। पहले अद्वैतवाद सम्बन्धी विचार, फिर विशिष्टाद्वैत और द्वैत से जो वाक्य सम्बन्ध रखते हों, वे संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराण में से किसी से संग्रह कराकर तुम मेरी सहायता कर सकते हो। वे श्रेणीबद्ध होने चाहिए, शुद्ध अक्षरों में लिखे जाने चाहिए और प्रत्येक के साथ ग्रन्थ और अध्याय के नाम उद्धृत होने चाहिए। पुस्तक रूप में दर्शनशास्त्र को पश्चिम में छोड़े बिना पश्चिम से चल देना दयनीय होगा।
मैसूर से तमिल अक्षरों में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसमें सभी १०८ उपनिषद् सम्मिलित थे। मैंने प्रोफेसर डॉयसन के पुस्तकालय में वह पुस्तक देखी थी। क्या वह देवनागरी अक्षरों में भी मुद्रित हुई है? यदि हो तो मुझे एक प्रति भेजना। यदि न हो तो मुझे तमिल संस्करण तथा एक कागज पर तमिल अक्षर और संयुक्ताक्षर लिखकर भेज देना। उसके साथ देवनागरी समानार्थक अक्षर भी लिख देना जिससे मैं तमिल अक्षर पहचानना सीख जाऊँ।
श्री सत्यनाथन् जिनसे कुछ दिन हुए मैं लंदन में मिला था, कहते थे कि ‘मद्रास मेल’ ने जो मद्रास का मुख्य ऐंग्लो इण्डियन समाचार पत्र है, मेरी पुस्तक ‘राजयोग’ की अनुकूल समीक्षा की है। मैंने सुना है कि अमेरिका के प्रधान शरीर-शास्त्रज्ञ मेरे विचारों पर मुग्ध हो गये हैं। उसके साथ ही इंग्लैण्ड में कुछ लोगों ने मेरे विचारों का मजाक उड़ाया है। यह ठीक ही है; क्योंकि इसमें सन्देह नहीं कि मेरे विचार नितान्त साहसिक हैं और बहुत कुछ उनमें से हमेशा के लिए अर्थहीन रहेंगे, परन्तु उनमें कुछ ऐसे संकेत भी हैं जिन्हें शरीर-शास्त्रज्ञ यदि शीघ्र ही ग्रहण कर ले तो अच्छा हो। फिर भी उसके परिणाम से मैं बिल्कुल सन्तुष्ट हूँ। वे चाहे मेरी निन्दा ही करें, पर चर्चा तो करें। यह मेरा आदर्श-वाक्य है। इंग्लैण्ड में बेशक भद्र लोग हैं और बेहूदी बातें नहीं करते, जैसा कि मैंने अमेरिका में पाया और फिर इंग्लैण्ड के लगभग सभी मिशनरी भिन्नमतावलम्बी वर्ग के हैं। वे इंग्लैण्ड के भद्र-जन वर्ग से नहीं आते। यहाँ के सभी धार्मिक भद्रजन इंग्लिश चर्च को मानते हैं। उन भिन्न मतावलम्बियों की इंग्लैण्ड में कोई पूछ नहीं है और वे शिक्षित भी नहीं हैं। उनके बारे में मैं यहाँ कुछ भी नहीं सुनता, जिनके विषय में तुम मुझे बार-बार आगाह करते हो। उनको यहाँ कोई नहीं जानता और यहाँ बकवास करने की उनको हिम्मत भी नहीं है। आशा है आर. के. नायडू मद्रास में ही होंगे और तुम कुशलपूर्वक हो।
डटे रहो मेरे बहादुर बच्चों! हमने अभी कार्य आरम्भ ही किया है। निराश न हो! कभी न कहो कि बस इतना काफी है!… जैसे ही मनुष्य पश्चिम में आकर दूसरे राष्ट्रों को देखता है, उसकी आँखें खुल जाती हैं। इसी तरह मुझे शक्तिशाली कार्यकर्ता मिल जाते हैं – केवल बातों से नहीं, प्रत्यक्ष दिखाने से कि हमारे पास भारत में क्या है और क्या नहीं। मेरी कितनी इच्छा है कि कम से कम दस लाख हिन्दू पूरे संसार का भ्रमण किये हुए होते!
प्रेमपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
- मद्रासी शब्द का प्रयोग स्वामीजी ने सदैव एक व्यापक संदर्भ में किया है, जिसके अन्तर्गत संम्पूर्ण दक्षिणवासी आ जाते हैं।