स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (20 नवम्बर, 1896)

(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)

३९, विक्टोरिया स्ट्रीट, लन्दन,
२० नवम्बर, १८९६

प्रिय आलासिंगा,

मैं इंग्लैण्ड से इटली के लिए १६ दिसम्बर को रवाना होऊँगा और नेपल्स से ‘नार्थ जर्मन लॉयड एस. एस. प्रिन्स रीजेन्ट लिओपोल्ड’ नामक जहाज से प्रस्थान करूँगा। जहाज आगामी १४ जनवरी को कोलम्बो पहुँचने वाला है।

श्रीलंका में कुछ चीजें देखने की मेरी इच्छा है; वहाँ से फिर मद्रास पहुँचूँगा। मेरे साथ तीन अंग्रेज दोस्त हैं – कैप्टन तथा श्रीमती सेवियर तथा श्री गुडविन। श्री सेवियर और उसकी पत्नी अल्मोड़ा के पास हिमालय में एक मठ बनाने की सोच रहे हैं, जिसे मैं अपना ‘हिमालय केन्द्र’ बनाना चाहता हूँ और वहीं पाश्चात्य शिष्यों को ब्रह्मचारी और संन्यासी के रूप में रखूँगा। गुडविन एक अविवाहित नवयुवक है। वह मेरे साथ भ्रमण करेगा और मेरे ही साथ रहेगा। वह संन्यासी जैसा ही है।

मेरी तीव्र अभिलाषा है कि श्रीरामकृष्ण देव के जन्मोत्सव से पहले मैं कलकत्ता पहुँच जाऊँ। मेरी वर्तमान कार्य-योजना यह है कि युवक प्रचारकों के प्रशिक्षण के लिए कलकत्ता और मद्रास में दो केन्द्र स्थापित करना है। कलकत्ते के केन्द्र के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है। कलकत्ता श्रीरामकृष्ण के कर्म-जीवन का क्षेत्र रह चुका है, इसलिए वह मेरा ध्यान पहले आकर्षित करता है। मद्रास के केन्द्र के लिए मैं आशा करता हूँ कि भारत से मुझे धन मिल जायेगा।

इन तीन केन्द्रों से हम काम आरम्भ करेंगे। फिर इसके बाद बम्बई और इलाहाबाद में भी केन्द्र बनायेंगे। इन तीन स्थानों से यदि भगवान् की कृपा हुई तो हम भारत भर में ही नहीं, परन्तु संसार के प्रत्येक देश में प्रचारकों का दल भेजेंगे। यह हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए। दिल लगाकर काम करते रहो। कुछ समय के लिए लन्दन का मुख्य कार्यालय ३९, विक्टोरिया स्ट्रीट में रहेगा, क्योंकि कार्य यहीं से होगा। स्टर्डी के पास सन्दूक भर ‘ब्रह्मवादिन्’ पत्रिका है, जिसका मुझे पहले पता नहीं था। वह अब इसके लिए ग्राहक बनाने के लिए प्रचार-कार्य कर रहा है।

चूँकि अब अंग्रेजी भाषा में भारत से एक पत्रिका आरम्भ हो गयी है, अतः अब भारतीय भाषाओं में भी हम कोई पत्रिका आरम्भ कर सकते हैं। विम्बलडन की कुमारी एम. नोबल बड़ी काम करने वाली है। वह मद्रास की दोनों पत्रिकाओं के लिए प्रचारकार्य भी करेगी। वह तुम्हें लिखेगी। ऐसे कार्य धीरे-धीरे, किन्तु निश्चित रूप से आगे बढ़ेंगे। ऐसी पत्रिकाओं को अनुयायियों के छोटे से समुदाय द्वारा ही सहायता मिलती है। एक ही समय में उनसे अनेक कार्य करने की आशा नहीं करनी चाहिए। उनको पुस्तकें खरीदनी पड़ती हैं; इंग्लैण्ड का कार्य चलाने के लिए पैसा एकत्र करना पड़ता है; यहाँ की पत्रिका के लिए ग्राहक ढूँढ़ने पड़ते हैं और फिर भारतीय पत्रिकाओं को खरीदना पड़ता है। यह बहुत ज्यादती है। यह शिक्षा प्रचार की अपेक्षा व्यापार-कार्य अधिक जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में तुम धीरज रखो। फिर भी मुझे आशा है कि कुछ ग्राहक बन ही जायेंगे। इसके अलावा मेरे जाने के बाद यहाँ लोगों के पास करने के लिए काम होना चाहिए, नहीं तो सब किया-कराया मिट्टी में मिल जायेगा। इसलिए धीरे-धीरे यहाँ और अमेरिका में भी पत्रिका होना चाहिए। भारतीय पत्रिकाओं की सहायता भारतवासियों को ही करनी चाहिए। किसी पत्रिका के सब राष्ट्रों में समान भाव से अपनाये जाने के लिए, सब राष्ट्रों के लेखकों को एक बड़ा भारी विभाग रखना पड़ेगा, जिसके माने हैं प्रतिवर्ष एक लाख रूपये का खर्च।

तुम्हें यह न भूलना चाहिए कि मेरे कार्य अन्तरराष्ट्रीय हैं, केवल भारतीय नहीं। मेरा तथा अभेदानन्द दोनों का स्वास्थ्य अच्छा है।

शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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