स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (27 सितम्बर, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२७ सितम्बर,१८९४
प्रिय आलासिंगा,
… मेरे व्याख्यानों और उपदेशों की पुस्तकें, जो कलकत्ते में छप रही हैं, उनमें मैं एक बात पाता हूँ। इनमें से कुछ इस तरह छापी जा रही हैं, जिसमें से राजनीतिक विचारों की गंध आती मालूम देती है। परन्तु मैं न राजनीतिज्ञ हूँ, न राजनीतिक आन्दोलन खड़ा करने वालों में से हूँ। मैं केवल आत्मतत्त्व की चिन्ता करता हूँ – जब वह ठीक होगा, तो सब काम अपने आप ठीक हो जाएँगे।… इसलिए कलकत्ता निवासियों को तुम सावधान कर दो कि मेरे लेखों या उपदेशों पर राजनीतिक अर्थ का मिथ्या आरोप न करें। क्या बकवास है!… मैंने सुना है कि रेवरेण्ड कालीचरण बनर्जी ने ईसाई धर्मोपदेशकों के सामने व्याख्यान देते हुए कहा कि मैं राजनीतिक प्रतिनिधि हूँ। यदि यह बात खुल्लमखुल्ला कही गयी हो, तो उसी प्रकार उन बाबू को मेरी ओर से कहो कि या तो वे कलकत्ते के किसी भी समाचार पत्र में लिखकर इसे प्रमाण द्वारा सिद्ध करें, नहीं तो, अपने मूर्खतापूर्ण कथन को वापस ले लें। यही उनकी चाल है! साधारणतः मैंने ईसाई शासन के विरुद्ध सहज रूप से कुछ कठोर और खरे वचन अवश्य कहे थे, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मैं राजनीति की परवाह करता हूँ, या मेरा उससे कोई सम्बन्ध है या ऐसी और कोई बात है। मेरे व्याख्यानों के उन अंशों को छापना जो बड़ाई का काम समझते हैं, और उससे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं राजनीतिक उपदेशक हूँ, उनके लिए मेरा यही कहना है कि, ‘ऐसे मित्रों से भगवान् बचाये!’
… मेरे मित्रों से कहना कि सतत मौन ही मेरी निन्दा करने वालों के प्रति मेरा उत्तर है। यदि मैं उनसे बदला लूँ, तब मैं उन्हीं के दर्जे पर उतर आऊँगा। उनसे कहना कि सत्य अपनी रक्षा स्वयं करता है, और उन्हें मेरे लिए किसी से झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं। अभी उन्हें बहुत कुछ सीखना है और वे अभी बच्चे हैं। वे अभी तक मूर्खवत् सुनहले स्वप्न देख रहे हैं – निरे बच्चे ही तो!
… यह लोक-जीवन की बकवास और समाचार-पत्रों में होने वाली शोहरत – इनसे मुझे विरक्ति हो गयी है। मैं हिमालय के एकान्त में वापस जाने के लिए लालायित हूँ।
प्रेमपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द