स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (6 मई, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
अमेरिका,
६ मई, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
आज सबेरे मुझे तुम्हारा पिछला पत्र और रामानुजाचार्य-भाष्य का पहला खण्ड मिला। कुछ दिनों पहले मुझे तुम्हारा दूसरा पत्र भी मिला था। श्री मणि अय्यर का पत्र भी मुझे मिल गया। मैं ठीक हूँ और उसी पुरानी रफ़्तार से सब कुछ चल रहा है। तुमने श्री लँड के भाषणों के विषय में लिखा है। मैं नहीं जानता कि वह कौन है और कहाँ है। वह हो सकता है, चर्चों में व्याख्यान देता हो, क्योंकि उसके पास यदि बड़े प्लेटफार्म होते, तो हम लोग उसे अवश्य सुनते। खैर, वह कुछ पत्रों में अपने भाषणों को प्रकाशित कराता है और उन्हें भारत भेजता है। शायद मिशनरी लोग इससे लाभ भी उठाते हैं। हाँ, तुम्हारे पत्रों से इतनी ध्वनि निकलती है।
यहाँ पर जनता में इस विषय में किसी प्रकार की चर्चा नहीं है, जिससे आत्मपक्षसमर्थन करना पड़े। क्योंकि ऐसा होने से यहाँ प्रतिदिन मुझे सैकड़ों लोगों से जूझना पड़ेगा। क्योंकि अब यहाँ भारत की धूम मच गयी है, और डॉ० बरोज के साथ साथ कट्टर ईसाई और बाकी लोग इस आग को बुझाने में बेहद प्रयत्नशील हैं। दूसरी बात, भारत के विरुद्ध इन सभी कट्टर ईसाइयों के व्याख्यानों में मुझे लक्ष्य बनाकर ख़ूब गालीगलौज होनी चाहिए। कट्टर ईसाई नर-नारी जो मेरे विरुद्ध गन्दी अफवाहें फैला रहे हैं, उन्हें थोड़ा भी सुनो, तो आश्चर्यचकित रह जाओ। अब, क्या तुम कहना चाहते हो कि इन स्वार्थी नर-नारियों के कायरतापूर्ण और पाशविक आक्रमणों के विरुद्ध एक संन्यासी को निरन्तर आत्मसमर्थन करना पड़ेगा? यहाँ मेरे कई एक बहुत प्रभावशाली मित्र हैं, जो बीच बीच में उनको करारा जवाब देकर बैठा देते हैं। फिर यदि हिन्दू सब निद्रित अवस्था में रहेंगे, तो मै हिन्दू धर्म का समर्थन करने में अपनी शक्ति क्यों क्षीण करूँ? तुम तीस करोड़ आदमी वहाँ क्या कर रहे हो? विशेषतः वे, जिन्हें अपनी विद्वत्ता आदि का अभिमान है? तुम क्यों नहीं इस संग्राम का भार अपने कन्धों पर लेते और मुझे केवल शिक्षा और प्रचार करने का अवकाश देते? मैं अजनबी लोगों में रातदिन संघर्ष कर रहा हूं… भारत से मुझे क्या सहायता मिलती है? कभी संसार में कोई ऐसा देशभक्तिहीन राष्ट्र्र देखा है, जैसा कि भारत है? अगर तुम यूरोप और अमेरिका में उपदेश देने के लिए बारह सुशिक्षित दृढ़चेता मनुष्यों को यहाँ भेज सको, और कुछ साल तक उन्हें यहाँ रख सको, तो इस भाँति राजनीतिक और नैतिक दृष्टि से, दोनों तरह की भारत की अपरिमित सेवा हो जाय। प्रत्येक मनुष्य जो नैतिक दृष्टि से भारत के प्रति सहीनुभूतिशील है, वह राजनीतिक विषयों में भी उसका मित्र बन जाता है। बहुत से पश्चिमी राष्ट्र तुम्हें अर्धनग्न बर्बर समझते हैं। इसलिए वे तुम्हें कोड़े के बल पर सभ्य बनाना उचित समझते हैं। यदि तुम तीस करोड़ लोग मिशनरी लोगों की धमकियों में आ गये, तो तुम सब कायर हो और कुछ भी कहने के अधिकारी नहीं हो। दूर देश में एक आदमी अकेला क्या कर सकता है? जो मैने किया भी है, उसके योग्य भी तुम नहीं हो।
अमेरिकन पत्रिकाओं में अपने पक्ष-समर्थन संबंधी लेख तुम क्यों नहीं भेजते? तुम्हें क्या बाधा है? तुम कायरों की जाति – शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से। तुम जानवर लोग, जिनके सामने दो ही भाव हैं – काम और कांचन – जैसे हो, तुम्हारे साथ वैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए। तुम ‘साहब लोगों’ से, यहाँ तक कि मिशनरियों से भी डरते हो। और एक संन्यासी को जीवन भर लड़ाई में रत, हमेशा रत रहने देना चाहते हो। और तुम लोग बड़े काम करोगे, छिः। क्यों नहीं, तुममें से कुछ लोग एक सुन्दर हिन्दू धर्म-समर्थनयुक्त लेख लिखते और बोस्टन की ‘ऐरेना पब्लिशिंग कम्पनी’ को भेजते? ‘एरेना’ एक ऐसा पत्र है, जो खुशी से उसे प्रकाशित करेगा और शायद काफी पैसा भी दे। इत्यलम्। इस पर सोचो, जब तुम अहमक की तरह मिशनरियों से प्रलोभित होते हो! अब तक जितने हिन्दू पश्चिमी देशों में गये हैं, उन्होंने प्रशंसा या धन के लोभ में अधिकतर अपने धर्म और देश का छिद्रान्वेषण ही किया है। तुम जानते हो कि नाम और यश ढूँढ़ने मैं नहीं आया था। वह मुझ पर लादा गया है। मैं क्यों भारत में लौटकर जाऊँ? मेरी वहाँ कौन सहायता करेगा? तुम लोग बच्चे हो, तुम लोग लड़कपन करते हो, कुछ जानते-बूझते नहीं। मद्रास में वे मनुष्य कहाँ हैं जो धर्म का प्रचार करने के लिए संसार त्याग देंगे? सांसारिकता तथा ईश्वर का साक्षात्कार साथ साथ सम्भव नहीं। मैं ही एक व्यक्ति हूँ, जिसने अपने देश के पक्ष में बोलने का साहस किया है, और मैने उन्हें ऐसे विचार प्रदान किये हैं, जिसकी आशा हिन्दुओं से वे स्वप्न में भी न रखते थे। यहाँ पर बहुत से मेरे विरोधी हैं, किन्तु मैं तुम लोगों की तरह कायर कभी भी नहीं हूँगा। इस देश में हजारों मेरे मित्र भी हैं और सैकड़ों मेरा आमरण अनुसरण करेंगे। प्रतिवर्ष वे बढ़ते जायँगे और यदि मैं उनके साथ रहकर काम करता रहा, तो मेरे जीवन का ध्येय ओर धर्म का मेरा आदर्श पूरा होगा। यह तुम समझते हो?
अमेरिका में जो सार्वजनीन मन्दिर (Temple Universal) बननेवाला था, उसके विषय में मै अब बहुत नहीं सुनता; परन्तु फिर भी न्यूयार्क, जो अमेरिकन जीवन का केन्द्र है, उसमें मैंने सुदृढ़ जड़ पकड़ ली है, और इसलिए मेरा काम चलता रहेगा। मैं अपने कुछ शिष्यों को, ग्रीष्म-काल के निमित्त बने हुए एक एकान्त स्थान में ले जा रहा हूँ। वहाँ योग, भक्ति और ज्ञान में उनकी शिक्षा समाप्त होगी और फिर वे काम करने में सहायता कर सकेंगे।
ख़ैर, जो भी हो, मेरे बच्चों, मैंने तुम लोगों को बहुत डाँटा है; डाँटने की आवश्यकता भी थी। मेरे बच्चों, अब काम करो। एक माह के भीतर मैं पत्रिका के लिए कुछ धन भेज सकूँगा। हिन्दू भिखारियों से भिक्षा मत माँगो। मैं अपने मस्तिष्क और बाहुबल द्वारा ही स्वयं सब करूँगा। मैं किसी मनुष्य से सहायता नहीं चाहता, चाहे वह यहाँ हो, या भारत में…श्रीरामकृष्ण को अवतार मानने के लिए लोगों पर जोर न दो।
अब मैं तुम्हें अपने एक नूतन आविष्कार के विषय में बतलाऊँगा। समग्र धर्म वेदान्त में ही है अर्थात् वेदान्त दर्शन के द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत, इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति की क्रम से ये तीन भूमिकाएँ हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यही सार-रूप से धर्म है। भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार-व्यवहारों और धर्ममतों में वेदान्त के प्रयोग का नाम है ‘हिन्दू धर्म’। यूरोप की जातियों के विचारों में उसकी पहली भूमिका अर्थात् द्वैत का प्रयोग है ‘ईसाई धर्म’। सेमिटिक (semetic) जातियों में उसका ही प्रयोग है ‘इस्लाम धर्म’। अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ ‘बौद्ध धर्म’ – इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदान्त; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्त्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त आदि हर एक ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान-पद्धति में उसे रूपान्तरित कर लिया है। अब अपनी पत्रिका में तुम इन तीन प्रणालियों पर अनेक लेख लिखो, जिनमें उसका सामंजस्य दिखाओ कि वे अवस्थाएँ कैसे एक के बाद एक क्रमानुसार आती हैं। उसके साथ साथ धर्म के अनुष्ठानिक अंग को बिल्कुल दूर रखो; अर्थात् दार्शनिक एवं आध्यात्मिक भाव का प्रचार करो और लोगों को अपने अपने अनुष्ठानों एवं क्रिया-कल्पादि में उसका प्रयोग करने दो। मैं इस विषय पर पुस्तक लिखना चाहता हूँ; इसलिए मैं तीनों भाष्य चाहता था। परन्तु अभी तक रामानुज-भाष्य का एक ही भाग मुझे मिला है!
अमेरिकी थियोसॉफिस्ट दूसरों से अलग हो गये हैं और अब वे भारत से नफरत करते हैं। टुच्ची बात! और इंग्लैण्ड के स्टर्डी ने, जो हाल में भारत गये थे और मेरे भाई शिवानन्द से मिले थे, मुझे एक पत्र लिखा है, जिसमें वह जानना चाहता है कि मैं कब इंग्लैण्ड जा रहा हूँ। मैंने उसे एक अच्छी चिट्ठी लिखी है। बाबू अक्षयकुमार घोष के क्या हाल हैं? मैंने उनके विषय में और अधिक कुछ नहीं सुना। मिशनरी लोगों और दूसरों को उनका प्राप्य दे दो। हममें से कुछ बहुत मजबूत लोग उठें और भारत के वर्तमान धार्मिक पुनर्जागरण पर अच्छे ढंग से, एक सुन्दर और जोरदार लेख लिखे तथा कुछ अमेरिकी पत्रों में उसे भेजें। मैं उनमें से केवल एक या दो से अवगत हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं कुछ विशेष लेखक नहीं हूँ। मुझे द्वार द्वार भीख माँगने का अभ्यास नहीं है। मैं चुपचाप बैठता हूँ और अपने आप जिस चीज को आना हो आने देता हूँ।…मेरे बच्चों, यदि मैं संसारी, पाखण्डी होता, तो यहाँ पर एक बड़ा संघ स्थापित करने में बड़ी भारी सफलता प्राप्त करता! हाय! यहाँ इतने ही में धर्म है; धन और उसके साथ नाम-यश की लालसा – यही है पुरोहितों का दल; और धन के साथ काम का योग होने से होता है साधारण गृहस्थों का दल। मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अन्तःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा। उस समय तक तुम अपना काम करो और मैं अपनी नौका को सीधा चलाकर ले जाऊँगा। पत्रिका को बकवादी न होना चाहिए; परन्तु शान्त, स्थिर और उच्च आदर्शयुक्त।…उत्तम और नियमित रूप से लिखनेवाले लेखकों का दल ढूँढ़ लो।…पूर्णतःनिःस्वार्थ हो, स्थिर रहो, और काम करो। हम बड़े बड़े काम करेंगे, डरो मत।… एक बात और है। सबके सेवक बनो। और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज बर्बाद हो जायगी।… आगे बढ़ो। तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे – अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविश्वास रखो, सच्चे और सहनशील बनो। मेरे दूसरे मित्रों के विरुद्ध मत जाओ। सबसे मिलकर रहो। सबको मेरा असीम प्यार।
आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
पु० – यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा।…यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले ‘अहं’ का नाश कर डालो।
वि.