स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (14 सितम्बर, 1899)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
रिजले मॅनर,
१४ सितम्बर, १८९९
प्रिय स्टर्डी,
लेगेट के घर में मैं केवल विश्राम ही ले रहा हूँ और कुछ भी नहीं कर रहा हूँ। अभेदानन्द यहीं पर है। वह अत्यन्त परिश्रम कर रहा है। दो-एक दिन के अन्दर ही एक माह तक विभिन्न स्थानों में कार्य करने के लिए वह चल देगा। फिर न्यूयार्क में कार्य करने के लिए आयेगा।
तुम्हारे बताये हुए तरीके के आधार पर मैं कुछ करने के लिए प्रयत्नशील हूँ; किन्तु हिन्दुओं के बारे में हिन्दू द्वारा लिखी गयी पुस्तक को पाश्चात्य देश में कितना आदर प्राप्त होगा – मैं नहीं कह सकता।..
श्रीमती जॉनसन के मतानुसार किसी धार्मिक व्यक्ति को रोग होना उचित नहीं है। उनको अब यह भी मालूम हो रहा है कि मेरा सिगरेट आदि पीना भी पाप है, आदि आदि। मेरी बीमारी के कारण कुमारी मुलर ने मुझे छोड़ दिया। मुझे एवं तुम्हें यह सोचना चाहिए कि सम्भवतः उनकी धारणा पूर्णतया ठीक है। किन्तु मैं जैसा था, ठीक वैसा ही हूँ। भारत में अनेक व्यक्तियों ने इस दोष के लिए जिस प्रकार आपत्ति की है, उसी प्रकार यूरोपीय लोगों के साथ भोजन करना भी उनकी दृष्टि में दोषयुक्त है। यूरोपियनों के साथ मैं भोजन करता हूँ, इसलिए मुझे एक पारिवारिक देव-मन्दिर से निकाल दिया गया था। मैं चाहता हूँ कि मेरा गठन इस प्रकार का हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार मुझे मोड़ सके। किन्तु यह दुर्भाग्य की बात है कि मुझे ऐसा व्यक्ति देखने को नहीं मिलता, जिससे कि सब कोई सन्तुष्ट हों। खासकर जिसे अनेक स्थलों में घूमना पड़ता है, उसके लिए सबको सन्तुष्ट करना सम्भव नहीं है।
जब मैं पहले अमेरिका आया था, तब पतलून न रहने से लोग मेरे प्रति दुर्व्यवहार करते थे; इसके बाद मजबूत आस्तीन तथा कॉलर पहनने के लिए मुझे बाध्य किया गया – अन्यथा वे मुझे स्पर्श नहीं कर सकते थे। अगर उनके द्वारा दी गयी खाद्यसामग्री मैं नहीं खाता था, तो वे मुझे अत्यन्त व्यंग्यात्मक दृष्टि से देखते थे – इसी प्रकार सारी बातें थीं।
ज्यों ही मैं भारत पहुँचा, वहाँ पर तत्काल ही मेरा मस्तक मुण्डन कराकर उन्होंने मुझे कौपीन धारण कराया; फलतः मुझे ‘बहुमूत्र’ की बीमारी हो गयी। सारदानन्द ने कभी अपने अन्तर्वास को नहीं त्यागा, इसलिए उसके जीवन की रक्षा हो गयी – उसे केवल सामान्यरूप से वातग्रस्त होना पड़ा विपुल लोकनिन्दा सहनी पड़ी।
इसमें सन्देह नहीं कि सब कुछ मेरा कर्मफल ही है – और इसलिए इसमें मैं आनन्द ही अनुभव करता हूँ। क्योंकि यद्यपि इससे तात्कालिक कष्ट होता है, फिर भी इसके द्वारा जीवन में एक विशेष प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है; और यह अनुभव, चाहे इस जीवन में हो अथवा दूसरे जीवन में उपयोगी ही सिद्ध होता है।…
जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं स्वयं उतार-चढ़ाव के बीच में होकर अग्रसर ही रहा हूँ। मैं सदा यह जानता तथा प्रचार करता रहा हूँ कि प्रत्येक आनन्द के बाद दुःख उपस्थित होता है – अगर चक्रवृद्धि ब्याज के साथ नहीं, तो कम से कम मूलधन के रूप में ही। संसार से मुझे बहुत प्यार मिला है; इसलिए यथेष्ट घृणा प्राप्त करने के लिए भी मुझे प्रस्तुत रहना होगा और इससे मुझे खुशी ही है – क्योंकि इसके द्वारा मेरा यह मतवाद प्रमाणित हो रहा है कि प्रत्येक उत्थान के साथ ही साथ उसके अनुरूप पतन भी रहता है।
अपनी ओर से मैं अपने स्वभाव तथा नीति पर अवलम्बित हूँ – एक बार जिसको मैंने अपने मित्र के रूप में माना है, वह सदा के लिए मेरा मित्र है। इसके अलावा भारतीय रीति के अनुसार बाहरी घटनाओं के कारणों का अनुसंधान करने के लिए मैं भीतर की ओर देखता हूँ।
मैं यह जानता हूँ कि मुझ पर चाहे जितनी भी विद्वेष एवं घृणा की तरंगे उपस्थित क्यों न हों, उनके लिए मैं जिम्मेवार हूँ एवं यह जिम्मेवारी एकमात्र मुझ पर ही है। इसकी अपेक्षा उसका और कोई रूपान्तर होना सम्भव नहीं है।
श्रीमती जॉनसन ने एवं तुमने एक बार और अन्तर्मुखी होने के लिए मुझे जो सावधान किया है, तदर्थ तुम दोनों को अनेक धन्यवाद!
सदा ही की तरह स्नेहशील तथा शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द