स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (16 जनवरी, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
२२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता,
न्यूयार्क,
१६ जनवरी, १८९६
स्नेहाशीर्वादभाजन,
पुस्तकों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। ‘सांख्यकारिका’ अत्यन्त सुन्दर ग्रन्थ है,‘कूर्मपूराण’ में आशानुरूप सब कुछ न मिलने पर भी उसमें योग सम्बन्धी कतिपय श्लोक हैं। मेरे पहले के पत्र में ‘योगसूत्र’ शब्द भूल से छूट गया था। अनेक प्रामाणिक ग्रन्थों से टीका-टिप्पणी सहित मैं उक्त ग्रन्थ का अनुवाद कर रहा हूँ। ‘कूर्मपूराण’ के उस परिच्छेद को मैं अपनी टीका में जोड़ना चाहता हूँ। कुमारी मैक्लिऑड के द्वारा तुम्हारी कक्षाओं का अत्यन्त उत्साहपूर्ण विवरण मुझे प्राप्त हुआ है। श्री गाल्सवर्दी अब बहुत ही आकृष्ट हुए हैं – ऐसा प्रतीत होता है।
यहाँ पर मैने कक्षा लेना तथा रविवार को भाषण देना प्रारम्भ कर दिया है। दोनों कार्यों में लोग उत्साह दिखलाते हैं। इन दोनों कार्यों के लिए मैं धन नहीं लेता हूँ; किन्तु सभागृह के किराये के लिए (सभाओं में) थोड़ा-बहुत चन्दा लेता हूँ। गत रविवार के भाषण की बहुत प्रशंसा हुई है, समाचारपत्र में उक्त भाषण प्रकाशित हुआ है। आगामी सप्ताह में उसकी कुछ प्रतियाँ मैं तुम्हें भेज दूँगा। उक्त भाषण में हमारे कार्यों की एक साधारण योजना पर प्रकाश डाला गया था।
मेरे मित्रों द्वारा एक सांकेतिक लेखक (गुडविन को) नियुक्त करने के फल स्वरूप उक्त ‘कक्षाओं’ की विवृतियाँ तथा वक्तृताएँ लिपिबद्ध हो रही हैं। प्रत्येक की एक एक प्रति तुम्हें भेजने की इच्छा है। उनमें से सम्भवतः तुम्हारे चिन्तन के लिए कुछ सामग्री मिल सके। यहाँ पर मुझे तुम जैसे शक्तिशाली व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसमें बुद्धि, योग्यता तथा स्नेह हो। इस सार्वजनिक शिक्षा के देश में सबको एक साथ मिश्रित कर मानो एक मध्यम वर्ग का निर्माण किया गया है; अन्य योग्य व्यक्ति हैं, वे प्रचलित प्रथा के अनुसार धनोपार्जन के गुरू भार से पीड़ित हैं।
एक ग्रामीण क्षेत्र में मुझे कुछ जमीन मिलने की सम्भावना है, उसमें कई मकान एवं कुछ वृक्षावलि हैं तथा एक नदी भी है। ग्रीष्म ऋतु में ध्यान के लिए वह उपयुक्त स्थान हो सकता है। हाँ, इतना अवश्य हो सकता है कि मेरी अनुपस्थिति में उसकी देख-रेख, रुपये-पैसों का लेन-देन, प्रकाशन तथा अन्यान्य कार्यों के लिए एक समिति का होना आवश्यक होगा।
मैंने अपने को रुपये-पैसे के झंझटों से सर्वथा मुक्त कर लिया है; किन्तु अर्थ के बिना कोई आन्दोलन भी नहीं चल सकता। अतः बाध्य होकर कार्य-संचालन की सारी व्यवस्थाएँ मुझे एक समिति को सौंपनी पड़ी हैं; मेरी अनुपस्थिति में वे लोग कार्यों का संचालन करते रहेंगे। स्थिर होकर कार्य करने की शक्ति अमेरिकनों की आदत के बाहर की बात है। केवल मात्र दलबद्ध होकर वे कार्य करना जानते हैं। अतः उन लोगों को उसी तरह से कार्य करने का अवसर प्रदान करना होगा। प्रचार के बारे में इस प्रकार की व्यवस्था की गयी है कि मेरे मित्रवर्ग स्वतन्त्र रूप से यहाँ पर विभिन्न स्थानों में पर्यटन करते रहेंगे तथा वे लोग स्वतन्त्र दलों का निर्माण कर सकेंगे। यही प्रचार का सर्वश्रेष्ठ सरल उपाय है। अनन्तर जब हम पर्याप्त शक्तिशाली बनेंगे, तब अपनी शक्ति को केन्द्रीभूत करने के लिए हम वार्षिक सम्मेलन का आयोजन करेंगे।
यह समिति केवल मात्र कार्य-संचालन के लिए बनायी गयी है एवं उसका कार्यक्षेत्र न्यूयार्क तक ही सीमित है। सतत स्नेहपरायण तथा आशीर्वादक –
तुम्हारा,
विवेकानन्द