स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (17 मार्च, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
न्यूयार्क,
१७ मार्च, १८९६
शुभ और प्रिय,
तुम्हारा पिछला पत्र अभी मिला। इसने मुझे बहुत भयभीत कर दिया है। कुछ मित्रों के तत्त्वावधान में भाषण (व्याख्यान) दिया गया था, जिन्होंने आशुलिपि की तथा अन्य ख़र्च इस शर्त पर दिये कि प्रकाशन का अधिकार उन्हें ही होगा। अतः उन्होंने रविवारीय भाषण और साथ ही ‘कर्मयोग’, ‘राजयोग’ और ‘ज्ञानयोग’ नामक तीन पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं। ‘राजयोग’ को विशेष रूप से परिवर्तित कर दिया गया है और उसे पतंजलि के योग-सूत्र के अनुवाद के साथ फिर से क्रमबद्ध किया गया है। ‘राजयोग’ लांगमैन्स के हाथ में है। यहाँ कुछ मित्र इन पुस्तकों के इंगलैण्ड में प्रकाशित होने की बात पर क्रुद्ध हैं; मैंने चूँकि वैधानिक रूप से ये पुस्तकें उन्हें दे दी थीं, अतः मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ। पुस्तिकाओं के प्रकाशन की बात उतनी गंभीर नहीं थी। किंतु पुस्तकों को इस तरह पुनः क्रमबद्ध तथा परिवर्तित कर दिया गया है कि अमेरिकी संस्करण अंग्रेजी संस्करण से एकदम भिन्न हो गया है। अब कृपया इन पुस्तकों को मत प्रकाशित करो, क्योंकि मैं बुरी स्थिति में पड़ जाऊँगा और सदा के लिए झगड़ा खड़ा हो जायगा, जिससे यहाँ के कार्यों में भी क्षति होगी।
भारत से आयी पिछली डाक से मैं जान सका हूँ कि एक संन्यासी वहाँ से प्रस्थान कर चुका है। कुमारी मूलर का एक सुन्दर पत्र आया था और कुमारी मैक्लिऑड का भी। लेगेट परिवार मुझसे बहुत सम्बद्ध हो गया है।
श्री चटर्जी के सम्बन्ध में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है। दूसरे सूत्रों से जान सका हूँ कि उसे पैसे की कठिनाई है और थियोसॉफिस्ट उसकी पूर्ति नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त उसकी सहायता, जो मुझे मिल सकेगी, वह भारत से आनेवाले एक सुदृढ़ व्यक्ति की सहायता की अपेक्षा बहुत ही प्रारम्भिक और अनुपयोगी होगी। उसके विषय में इतना ही पर्याप्त है। हम लोगों को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
मैं पुनः प्रकाशन सम्बन्धी बातों पर सोच लेने का अनुरोध करता हूँ और श्रीमती ओलि बुल को पत्र लिखकर वेदान्त से सम्बन्धित अमेरिकन मित्रों की सम्मति पूछ लो, यह स्मरण दिलाते हुए कि ‘हमारा सिद्धान्त अथवा धर्म सभी प्राणियों की एकता का है।’ सभी राष्ट्रीय भावनाएँ खोटी अंधविश्वास हैं। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति दूसरे की सम्मति को जगह देने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है, उसका विचार अंततः विजयी होता है। आत्मसमर्पण की सर्वथा अंत में विजय होती है। अपने सभी मित्रों को प्यार –
प्यार और शुभकामनाओं के साथ तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च – मैं निश्चित ही जितना शीघ्र हो सका, मार्च में आ रहा हूँ।
वि.