स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (2 अगस्त, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
१९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क,|
२ अगस्त, १८९५
प्रिय मित्र,
तुम्हारा संक्षिप्त कृपापत्र आज मिला। सर्वप्रथम मैं एक मित्र के साथ, पेरिस जा रहा हूँ और १७ अगस्त को यूरोप के लिए प्रस्थान करूँगा। फिर भी मैं अपने मित्र के विवाह को देखने के लिए एक सप्ताह पेरिस में रहूँगा और तब लन्दन जाऊँगा।
संगठन सम्बन्धी तुम्हारी सलाह वास्तव में बहुत अच्छी थी और मैं उसी आधार पर काम करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
यहाँ मेरे कई अडिग मित्र हैं, किन्तु दुर्भाग्य से उनमें से अधिकांश ग़रीब हैं। इसलिए धीमी गति से ही काम हो रहा है। इसके अतिरिक्त कार्य को स्पष्ट रूप देने के लिए न्यूयार्क में कुछ और महीने काम करने की आवश्यकता है; इस तरह शरद के आरम्भ में ही मुझे न्यूयार्क लौट आना होगा और ग्रीष्म में मैं पुनः लन्दन लौट जाऊँगा। जैसा मैं समझता हूँ, मैं लन्दन में अभी कुछ सप्ताह ही ठहर सकूँगा। किन्तु अगर प्रभु ने चाहा, तो यह थोड़ा समय ही महत् कार्यों का आरम्भ सिद्ध हो सकता है। तार द्वारा मैं पेरिस से ही सूचित करूँगा कि कब इंग्लैंड पहुँच रहा हूँ।
न्यूयार्क में कुछ थियोसॉफिस्ट कक्षाओं में आये थे, किन्तु मनुष्य ज्यों ही वेदान्त की महिमा को अनुभव करता है, उसकी सारी बड़बड़ाहटें स्वयं समाप्त हो जाती हैं। ऐसा मुझे सतत अनुभव होता रहा है। जब कभी मानव-जाति दिव्य दृष्टि प्राप्त करती है, तो निम्नतर दृष्टि अपने आप विलीन हो जाती है।
जनसमुदाय की गणना निरर्थक है। एक जनसमूह जो शताब्दी में करता है, उससे अधिक कुछ ही धैर्यवान, तत्पर, कर्मठ व्यक्ति एक वर्ष के अन्दर कर सकते हैं। अगर किसीके शरीर में उष्णता है, तो उसके निकट आनेवाले व्यक्ति पर उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। यही नियम है।
जब तक हममें उष्णता है, सत्य का बल है, तत्परता है, प्रेम है, सफलता हमारी है। मेरा जीवन ही बहुविध रहा है, किन्तु मैंने शाश्वत शब्दों को सदा प्रमाणित पाया है; सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः।1 तुममें जो ‘सत्’ है, निरन्तर वही तुम्हारा अचूक पथप्रदर्शक हो। जिसमें ‘सत्’ है, उसे शीघ्र ही मुक्ति मिल जाय और वह दूसरों की भी उसकी प्राप्ति में सहायता करे।
‘सत्’ में सदा तुम्हारा ही,विवेकनन्द
- मुंड्कोपरिषद्॥३।१।६॥