स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (24 अप्रैल, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
५४ पश्चिम ३३ वीं स्ट्रीट, न्यूयार्क
२४ अप्रैल, १८९५
प्रिय मित्र,
मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि थोड़े दिन से जो ‘रहस्यवाद’ पश्चिमी संसार में अकस्मात् आविर्भूत हुआ है, उसके मूल में यद्यपि कुछ सत्यता है, परन्तु अधिकांश में वह हीन और उन्मादी प्रवृत्ति से प्रेरित है। इस कारण मैंने धर्म के इस अंग से कुछ सम्बन्ध नहीं रखा है – न भारत में, न कहीं और ही। और ये रहस्यवादी मेरे अनुकूल भी नहीं हैं।…
मैं तुमसे पूर्णतः सहमत हूँ कि, चाहे पूर्व में या पश्चिम में, केवल अद्वैत दर्शन ही मानव-जाति को ‘शैतान-पूजा’ एवं इसी प्रकार के जातीय कुसंस्कारों से मुक्त कर सकता है और वही मनुष्य को अपनी प्रकृति में प्रतिष्ठित कर उसे शक्तिमान बना सकता है। स्वयं भारत में इसकी इतनी आवश्यकता है, जितनी की पश्चिम में, या कदाचित् वहाँ से भी अधिक। परन्तु यह काम कठिन और दुःसाध्य है। पहले इसमें रूचि उत्पन्न करनी पड़ेगी, फिर शिक्षा देनी पड़ेगी, और अन्त में समग्र प्रासाद का निर्माण करने में अग्रसर होना पड़ेगा।
पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, विशाल बुद्धि और सर्वविजयी इच्छा-शक्ति। इन गुणों से सम्पन्न मुटठी भर आदमियों को यह काम करने दो और सारे संसार में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो जायगा। पिछले वर्ष इस देश में मैंने बहुत सा कार्य व्याख्यान रूप में किया, प्रचुर मात्रा में प्रशंसा प्राप्त की, परन्तु यह अनुभव हुआ कि वह कार्य मैं अपने लिए ही कर रहा था। धीरज से चरित्र का गढ़ना, सत्यानुभव के लिए कठिन संघर्ष करना – मनुष्य-जाति के भावी जीवन पर इसीका प्रभाव पड़ेगा। इसलिए इस वर्ष मैं इसी दिशा में कार्य करने की आशा रखता हूँ – स्त्री-पुरुषों की एक छोटी सी मण्डली को व्यावहारिक अद्वैत की उपलब्धि की शिक्षा देने की चेष्टा करना। मुझे मालूम नहीं कि कहाँ तक मुझे इस कार्य में सफलता प्राप्त होगी। यदि कोई अपने देश और सम्प्रदाय की अपेक्षा मनुष्य-जाति का भला करना चाहे, तो पश्चिम ही कार्य का उपयुक्त क्षेत्र है। मैं तुम्हारे पत्रिका सम्बन्धी विचार से पूरी तरह सहमत हूँ। परन्तु यह सब करने के लिए व्यवसाय-बुद्धि का मुझमें पूरा अभाव है। मैं शिक्षा और उपदेश दे सकता हूँ और कभी कभी लिख सकता हूँ। परन्तु सत्य पर मुझे पूर्ण श्रद्धा है। प्रभु मुझे सहायता देंगे और मेरे साथ काम करने के लिए मनुष्य भी वे ही देंगे। मैं पूर्णतः शुद्ध, पूर्णतः निष्कपट और पूर्णतः निःस्वार्थी रहूँ – यही मेरी एकमेव इच्छा है।
सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः। – ‘सत्य की ही केवल विजय होती है, असत्य की नहीं। ईश्वर की ओर जाने का मार्ग सत्य में से है।’ (अथर्ववेद) जो निजी क्षुद्र स्वार्थ को संसार के कल्याणार्थ त्यागता है, वह सम्पूर्ण सृष्टि को अपनाता है।…मैं इंग्लैण्ड आने के विषय में अनिश्चित हूँ। मैं वहाँ किसीको नहीं जानता, और यहाँ कुछ कार्य कर रहा हूँ। प्रभु अपने नियत समय पर मेरा पथ-प्रदर्शन करेंगे।
तुम्हारा,
विवेकानन्द