स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (31 अक्टूबर, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
८०, ओक्ले स्ट्रीट, चेल्सी,
३१ अक्टूबर, १८९५,
सायंकाल, ५ बजे
प्रिय मित्र,
अभी अभी भद्र युवक, श्री सिलवरलाक तथा उनके मित्र चले गये। कुमारी मूलर भी आज शाम को आयी थीं और इन दोनों के आते ही वे चली गयीं।
इनमें से एक इंजीनियर हैं तथा दूसरे अनाज का व्यापार करते हैं। इन दोनों ने दर्शन तथा विज्ञान के बहुत से ग्रन्थों का अध्ययन किया है एवं अपने आधुनिकतम सिद्धान्तों के साथ भारतीय प्राचीन मतवाद का अपूर्व सामंजस्य देखकर वे अत्यन्त प्रभावित हुए हैं। दोनों ही बहुत सज्जन, बुद्धिमान तथा पण्डित हैंं, उनमें से एक ने तो गिरजा से अपना नाता तोड़ लिया है और दूसरे ने इस बारे में मेरा मत पूछा है। इनसे मिलने के बाद मेरा ध्यान दो बातों की ओर आकृष्ट हुआ है। प्रथम तो यह कि उस पुस्तक को हमें शीघ्र समाप्त करना है। उस पुस्तक के द्वारा इस प्रकार के कुछ लोगों के साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित हो सकेगा, जो कि दार्शनिक आधार पर धर्म को मानते हैं तथा अलौकिकता को एकदम पसन्द नहीं करते। दूसरी बात यह कि ये दोनों ही हमारे धर्म के आचरण को जानना चाहते हैं। इस घटना से मेरी आँखें खुल गयी हैं। जगत् की साधारण जनता कोई न कोई अवलम्बन चाहती है। वास्तव में आचरण के द्वारा रूपान्तरित दर्शन को ही साधारणतया धर्म कहा जाता है। इसलिए धर्म-मन्दिर तथा कुछ क्रिया-कर्मों का होना नितान्त आवश्यक है, अर्थात् यथासम्भव शीघ्र ही हमें कुछ क्रियाकर्म निर्धारित करने होंगे। यदि तुम शनिवार को सुबह या उससे पहले आ सको, तो हम ‘एशियाटिक सोसाइटी’ में चलेंगे अथवा यदि तुम मेरे लिए ‘हेमाद्रि कोष’ नामक ग्रन्थ का संग्रह कर सको, तो हमारे आवश्यकीय सब कुछ तथ्य उसीमें मिल जायँगे। कृपया उपनषिदों को अपने साथ लेते आओ। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्युकालपर्यन्त हमें कोई अपूर्व सिद्धान्त निश्चित रूप से स्थिर करना है; असम्बद्ध दार्शनिक मतवाद मानव-जीवन पर कोई भी प्रभाव नहीं डाल सकता।
यदि हम अपनी ‘कक्षाओं’ के समाप्त होने के पूर्व ही उस पुस्तक को पूरा कर सकें तथा दो-एक सार्वजनिक आयोजनों के द्वारा जनता के समक्ष उसका प्रकाशन कर सकें, तो वह चालू हो जायगी। ये लोग संघबद्ध होना चाहते हैं और साथ ही साथ क्रिया-कर्मों को भी जानना चाहते हैं; और वास्तव में यही एक कारण है, जिससे लोग कभी भी पाश्चात्य देशवासियों पर अपना प्रभाव नहीं फैला सकते।
‘नैतिक समिति’ (Ethical Society) के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने के कारण उन लोगों ने मुझे धन्यवाद देकर एक पत्र लिखा है तथा उनका एक ‘फार्म’ भी भेजा है। वे चाहते हैं कि मैं अपने साथ कोई पुस्तक ले जाऊँ तथा १० मिनट के लिए उससे कुछ पढूँ। क्या तुम अपने साथ गीता तथा बौद्ध जातक का अनुवाद लाने की कृपा करोगे? तुमसे मिले बिना मैं इस विषय में कुछ भी नहीं करूँगा। मेरी प्रीति तथा शुभेच्छा ग्रहण करो।
तुम्हारा,
विवेकानन्द