स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित (20 जून, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखा गया पत्र)
शिकागो,
२० जून, १८९४
प्रिय दीवान जी
आज आपका कृपा-पत्र मिला। मुझे बहुत दुःख है कि आप जैसे महामना व्यक्ति को मैंने अपने विवेचनाहीन कठोर शब्दों से चोट पहुँचायी। आपके मृदु सुधारों के आगे मैं नतमस्तक हूँ। ‘मैं आपका पुत्र हूँ, मुझ नतमस्तक को शिक्षा दीजिये।’ – गीता। परन्तु दीवान जी साहब, आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि मेरे स्नेह ने ही मुझे ऐसा कहने के लिए प्रेरित किया। आपको यह बताना चाहता हूँ कि पीठ-पीछे मेरी निन्दा करने वालों ने परोक्ष रूप से मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचाया, बल्कि इस दृष्टि से मेरा घोर अपकार ही किया है कि हमारे हिन्दू भाइयों ने अमेरिकनों को यह बतलाने के लिए अपनी अँगुली भी नहीं हिलायी कि मैं उनका प्रतिनिधि हूँ। मेरे प्रति अमेरिकनों की सहृदयता के निमित्त, काश, हमारी जनता उनके लिए धन्यवाद के कुछ शब्द प्रेषित कर पाती और यह बताती कि मैं उनका प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ। श्री मजूमदार, बम्बई से आगत नागरकर नाम का एक व्यक्ति तथा पूना से आगत सोराबजी नाम की एक ईसाई लड़की अमेरिकनों से कह रहे हैं कि मैंने अमेरिका में ही संन्यासियों के वस्त्र धारण किये हैं, और मैं एक धूर्त हूँ। जहाँ तक मेरे स्वागत का प्रश्न है, इसका अमेरिकी जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा; परन्तु जहाँ तक धन द्वारा मेरी ऐसी सहायता का प्रश्न है, इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा, क्योंकि उन्होंने मेरी ऐसी सहायता करने से अपने हाथ खींच लिये। मैं यहाँ एक वर्ष से हूँ, किन्तु किसी भी ख्यातिमान भारतीय ने अमेरिकनों को यह बताना उचित नहीं समझा कि मैं प्रवंचक नहीं हूँ। फिर यहाँ मिशनरी लोग सदा मेरे विरुद्ध कही गयी बातों की ताक में रहते हैं, और भारत के ईसाई पत्रों द्वारा मेरे विरुद्ध लिखी गयी बातों को खोजने और उनको यहाँ प्रकाशित कराने में सदा व्यस्त रहते हैं। आपको यह विदित होना चाहिए कि यहाँ के लोग भारत में ईसाई एवं हिन्दू में अन्तर के बारे में बहुत कम जानते हैं।
मेरे यहाँ आने का मुख्य प्रयोजन अपनी एक योजना के लिए धन एकत्र करना ही था। मैं आपसे ये बातें फिर कह रहा हूँ।
पूर्व एवं पश्चिम में सारा अन्तर यह है कि उनमें जातीयता की भावना है, हम लोगों में नहीं, अर्थात् सभ्यता एवं शिक्षा का प्रसार यहाँ व्यापक है, सर्वसाधारण में व्याप्त है। उच्च वर्ग के लोग भारत और अमेरिका में समान हैं, लेकिन दोनों देशों के निम्न वर्गों में जमीन-आसमान का फर्क है। अंग्रेजों के लिए भारत को जीतना इतना आसान क्यों सिद्ध हुआ? यह इसलिए कि वे एक जाति हैं, हम नहीं। जब हमारा कोई महापुरुष चल बसता है, तो एक और के लिए हमें सैकड़ों वर्ष बैठे रहना पड़ता है; और ये उनका सर्जन उसी अनुपात में कर सकते हैं, जिस अनुपात में उनकी मृत्यु होती है। जब हमारे दीवान जी साहब नहीं रहेंगे, (जिसे हमारे देश के कल्याण के लिए प्रभु दीर्घ काल तक स्थगित रखें), तो उनके स्थान की पूर्ति के लिए जो कठिनाई होगी, उसका अनुभव देश को तत्काल ही हो जायेगा। कठिनाई तो इसी बात से प्रत्यक्ष हो जाती है कि आपकी सेवाओं के बिना लोगों का काम नहीं चलता है। यह महापुरुषों का अभाव है। ऐसा क्यों? क्योंकि महापुरुषों के चुनाव के लिए उनके पास बहुत बड़ा क्षेत्र है, जबकि हमारे पास, बहुत ही छोटा। तीन, चार या छह करोड़ की जातियों की तुलना में तीस करोड़ की जाति के पास अपने महापुरुषों के चुनाव के लिए क्षेत्र सबसे छोटा है। क्योंकि शिक्षित पुरुषों एवं स्त्रियों की संख्या उन जातियों में बहुत अधिक है। आप मेरे विवेचक मित्र हैं, मुझे गलत न समझें, यही हमारे देश का बहुत बड़ा दोष है और इसे दूर करना ही होगा।
सर्वसाधारण को शिक्षित बनाइए एवं उन्नत कीजिए। इसी तरह एक जाति का निर्माण होता है। हमारे सुधारकों को यही नहीं मालूम कि कहाँ चोट है, और वे विधवाओं का विवाह कराके देश का उद्धार करना चाहते हैं; क्या आप यह मानते हैं कि किसी देश का उद्धार इस बात पर निर्भर है कि उसकी विधवाओं के लिए कितने पति प्राप्त होते हैं? और न इसके लिए धर्म को ही दोषी ठहराया जा सकता है; क्योंकि सिर्फ मूर्ति-पूजा से यों कोई अंतर नहीं पड़ता। सारा दोष यहाँ है : यथार्थ राष्ट्र जो कि झोपड़ियों में बसता है, अपना मनुष्यत्व विस्मृत हो चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, – हरेक के पैरों तले कुचले गये वे लोग यह समझने लगे हैं कि जिस किसी के पास पर्याप्त धन है, उसीके पैरों तले कुचले जाने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। उन्हें उनका खोया हुआ व्यकित्व वापस करना होगा। उन्हें शिक्षित करना होगा। मूर्तियाँ रहें या न रहें, विधवाओं के लिए पतियों की पर्याप्त संख्या हो या न हो, जाति-प्रथा दोषपूर्ण है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परेशान नहीं करता। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार अपने आप ही करना पड़ेगा। हमारा कर्तव्य केवल रासायनिक पदार्थों को एकत्र कर देना है, ईश्वरीय विधान से वे अपने आप जम जायेंगे। हमें केवल उनके मस्तिष्क में विचारों को भर देना है, शेष सब वे अपने आप कर लेंगे। इसका अर्थ हुआ सर्वसाधारण को शिक्षित करना। यहाँ ये कठिनाइयाँ हैं। एक अकिंचन सरकार कभी कुछ नहीं कर सकती है, न करेगी; अतः उस दिशा से किसी सहायता की कोई आशा नहीं।
अगर यह भी मान लिया जाय कि प्रत्येक गाँव में हम लोग निःशुल्क पाठशाला खोलने में समर्थ हैं, तब भी गरीब लड़के पाठशालाओं में आने की अपेक्षा अपने जीविकोपार्जन हेतु हल चलाने जायेंगे। न तो हमारे पास धन है और न हम उनको शिक्षा के लिए बुला ही सकते हैं। समस्या निराशाजनक प्रतीत होती है। मैंने एक रास्ता ढूँढ़ निकाला है। वह यह है – अगर पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं आता, तो मुहम्मद को पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। यदि गरीब शिक्षा के निकट नहीं आ सकते, तो शिक्षा को ही उनके पास हल पर, कारखाने में और हर जगह पहुँचना होगा। यह कैसे? आपने मेरे गुरुभाइयों को देखा है। मुझे सारे भारत से ऐसे निःस्वार्थ, अच्छे एवं शिक्षित सैकड़ों नवयुवक मिल सकते हैं। दरवाजे-दरवाजे पर धर्म को ही नहीं, शिक्षा को भी पहुँचाने के लिए इन लोगों को गाँव-गाँव घूमने दीजिए, इसलिए विधवाओं को भी हमारी महिलाओं की शिक्षिकाओं के रूप में संगठित करने के लिए मैंने एक छोटे-से दल का आयोजन किया है।
अब मान लीजिए कि ग्रामीण अपना दिन भर का काम करके अपने गाँव लौट आये हैं और किसी पेड़ के नीचे या कहीं भी बैठकर हुक्का पीते, गप लड़ाते समय बिता रहे हैं। मान लीजिए दो शिक्षित संन्यासी वहाँ उन्हें लेकर कैमरे से ग्रह नक्षत्रों के या भिन्न-भिन्न देशों के या ऐतिहासिक दृश्यों के चित्र उन्हें दिखाने लगें। इस प्रकार ग्लोब, नक्शे आदि के द्वारा जबानी ही कितना काम हो सकता है, दीवान जी साहब? केवल आँख ही ज्ञान का एकमात्र द्वार नहीं है, कान से भी यह काम हो सकता है। इस प्रकार नये-नये विचारों से, नीति से उनका परिचय होगा एवं वे उन्नततर जीवन की आशा करने लगेंगे। यहाँ हमारा काम खत्म हो जाता है। शेष उन पर छोड़ देना होगा। संन्यासियों को त्याग के इतने बड़े इस कार्य के लिए प्रेरणा कहाँ से मिलेगी? धार्मिक उत्साह से। धर्म के हर नये तरंग के लिए एक केन्द्र की आवश्यकता होती है। पुराने धर्म को केवल एक नया केन्द्र ही पुनरुज्जीवित कर सकता है। अपनी रूढ़ियों एवं पुराने सिद्धान्तों को सूली पर चढ़ा दीजिए, उनसे कोई लाभ नहीं होता। एक चरित्र, एक जीवन, एक केन्द्र, एक ईश्वरीय पुरुष ही मार्गदर्शन करेंगे। इसी केन्द्र के चारों ओर अन्य सभी उपादान एकत्र हो जायेंगे एवं एक प्रलयंकर महातरंग की तरह समाज पर जा गिरेंगे तथा सबको बहाकर ले जाते हुए उनकी अपवित्रताओं का भी नाश करेंगे। फिर, जैसे लकड़ी को उसके रेशे की दिशा में ही चीरने में आसानी होती है, वैसे ही पुराने हिन्दू धर्म का संस्कार हिन्दू धर्म से ही हो सकता है, नय-नये संस्कार-आन्दोलनों के द्वारा नहीं। साथ ही साथ इन सुधारकों को अपने में पूर्व एवं पश्चिम, दोनों संस्कृतियों का मिलन कराना होगा। क्या आपको यह नहीं मालूम पड़ता कि आपने ऐसे महान आन्दोलन के केन्द्र को प्रत्यक्ष किया है? उस बढ़ते हुए प्लावन की अस्पष्ट गम्भीर गर्जना को सुना है? वह केन्द्र मार्गदर्शक उस देवमानव का जन्म भारत ही में हुआ। वे थे महान श्रीरामकृष्ण परमहंस। उन्हीं को केन्द्र मानकर यह दल धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है। इन्हीं लोगों से यह काम होगा।
दीवान जी महाराज अब इसके लिए एक संगठन की आवश्यकता है, रुपयों की जरूरत है – भले ही थोड़े से की, जिससे काम शुरू किया जा सके। भारत में हमें धन कौन देता? इसीलिए, दीवान जी महाराज, मैं अमेरिका चला आया। आपको यह बात शायद याद हो कि मैंने सारा धन गरीबों से माँगा था, और धनियों के दान को मैं इसलिए अस्वीकार कर देता था कि मेरी भावनाओं को वे नहीं समझ पाते। इस देश में पूरे साल भर तक व्याख्यान देते रहने पर भी मुझे अपने कार्य के आरम्भ के लिए धनार्जन की अपनी योजना में जरा-सी भी सफलता नहीं मिली (निश्चय ही मुझे अपनेलिए कोई अभाव नहीं हुआ)। पहली बात यह है कि यह साल अमेरिका के लिए बहुत बुरा है; हजारों गरीब बेरोजगार हैं। दूसरी, मिशनरी तथा … मेरी योजनाओं में बाधा डालने का प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरी बात यह है, एक साल गुजर गया और हमारे देशवासी मेरे लिए इतना ही नहीं कर सके कि अमेरिका के लोगों से वे कहते कि मैं एक वंचक नहीं हूँ, बल्कि एक यथार्थ संन्यासी हूँ, कि मैं हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ। इतना भी, इन थोड़े से शब्दों का व्यय भी, वे नहीं कर सके। शाबाश, मेरे देशवासियों! दीवान जी, मैं उनको प्यार करता हूँ। मानवीय सहायता को मैं लात मारता हूँ। मुझे आशा है कि वे जो सदा पर्वतों एवं उपत्यकाओं में, मरुस्थलों एवं वनों में मेरे साथ रहे हैं, मेरे साथ रहेंगे; अगर और ऐसा न हुआ तो फिर भारत में कभी मुझसे भी कहीं अधिक योग्यता-सम्पन्न किसी और वीर का उदय होगा जो इस कार्य को सम्पन्न करेगा। आज मैं आपको सभी कुछ कह गया। दीवान जी, मेरे लम्बे पत्र के लिए मुझे क्षमा करें। आप मेरे अच्छे मित्र हैं, उन बहुत थोड़ों में से एक, जो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं, जो मेरे ऊपर यथार्थ में कृपालु हैं। आप यह सोच सकते हैं कि मैं एक स्वप्नविलासी हूँ या एक कल्पनाप्रिय व्यक्ति हूँ; लेकिन आप कम से कम इतना विश्वास रखें कि मैं पूर्णतः ईमानदार हूँ, और मुझमें सबसे बड़ा दोष यही है कि मुझे अपने देश के प्रति अधिक, बहुत अधिक प्रेम है। मेरे प्रिय मित्र, आप और आपके सम्बन्धीजन सदा ही कल्याण के भागी हों। जो आपके प्रिय हों, उन सब पर भगवान् की दया-दृष्टि सदा बनी रहे। मैं आपके प्रति चिरंतन कृतज्ञ हूँ। आपके प्रति मैं अत्यधिक ऋणी हूँ, केवल इसीलिए नहीं कि आप मेरे मित्र हैं, बल्कि इसलिए भी कि आपने इतनी अच्छी तरह अपनी मातृभूमि की एवं प्रभु की जिन्दगी भर सेवा की है।
आपका सतत कृतज्ञ
विवेकानन्द