स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित (मई, 1893)
(स्वामी विवेकानंद का श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखा गया पत्र)
खेतड़ी
मई, १८९३
प्रिय दीवान जी साहब,
मुझे पत्र लिखने के पूर्व निश्चय ही आपको मेरा पत्र नहीं मिला। आपके पत्र को पढ़ते समय मुझे हर्ष एवं विषाद, दोनों ही हुए। हर्ष इसलिए कि आपकी जैसी शक्ति, हृदय एवं पदवाले एक व्यक्ति का स्नेह पाने का सौभाग्य मुझे है, और दुःख यह देखकर कि मेरी नीयत को एकदम गलत समझा गया। मुझ पर विश्वास रखिए कि मैं आपको पितृवत् आदर तथा आपसे स्नेह करता हूँ, और आप एवं आपके परिवार के प्रति मेरी कृतज्ञता असीम है। सच्ची बात यह है कि आपको याद होगा कि शिकागो जाने की मेरी इच्छा पहले से ही थी। जब मैं मद्रास में था, वहाँ की जनता ने स्वयं ही मैसूर एवं रामनाड़ के राजाओं के सहयोग से मुझे भेजने का सारा प्रबन्ध कर दिया। आपको यह भी विदित होगा कि खेतड़ी के महाराज और मैं स्नेह के अंतरंगतम सूत्र से आबद्ध हैं। और मैंने उनको सामान्य तौर पर लिखा कि मैं अमेरिका जा रहा हूँ। स्नेहवश खेतड़ी महाराज ने यह सोचा कि प्रस्थान करने के पूर्व उनसे भेंट करना मेरा कर्तव्य है, और विशेष रूप से ऐसे अवसर पर जब भगवान् ने उनके सिंहासन के लिए एक उत्तराधिकारी प्रदान किया था और यहाँ जोरों से खुशियाँ मनायी जा रही थीं; और मैं निश्चय ही आऊँ, इस निमित्त उन्होंने मद्रास तक अपने वैयक्तिक सचिव को मुझे लिवाने भेज, और इस प्रकार मैं यहाँ आने के लिए विवश हो गया। इसी बीच मैंने नदियाद में आपके भाई को तार दिया, यह मालूम करने के लिए कि आप वहीं हैं कि नहीं और दुर्भाग्यवश मैं कोई भी जवाब नहीं पा सका; अतः बेचारे सचिव ने, जो अपने स्वामी के लिए मद्रास-भ्रमण से काफी कष्ट उठा चुका था और यही ध्यान में रखा था कि यदि हम जलसे के अवसर तक खेतड़ी न पहुँच पाये, तो उसके स्वामी नाखुश होंगे, एकाएक जयपुर का टिकट खरीद लिया। रास्ते में श्री रतिलाल से हमारी मुलाकात हुई, जिन्होंने यह सूचना दी कि मेरा तार मिल गया था और समय से उसका जवाब भी दे दिया गया था तथा श्री बिहारीदास मेरी प्रतीक्षा में थे। अब आप ही इसका न्याय करें, जिनका इतने दीर्घ काल से न्याय करना ही कर्तव्य रहा है। इस सम्बन्ध में मैं क्या करता या कर सकता था? अगर मैं उतर जाता, तो मैं समय से खेतड़ी-जलसे में नहीं पहुँच सकता; दूसरे, मेरे उद्देश्यों का गलत अभिप्राय लगाया जा सकता था। परन्तु आपके तथा आपके भाई का मुझ पर जो स्नेह है, उसे मैं जानता हूँ, और मुझे यह भी याद था कि कुछ ही दिनों में शिकागो जाते समय मुझे बम्बई जाना होगा। मैंने सोचा कि इसका सबसे अच्छा समाधान यही है कि लौटने के समय तक यात्रा को स्थगित कर दूँ। जहाँ तक आपके भाइयों द्वारा मेरी सेवा न हो पाने के कारण मेरी भावनाओं में ठेस लगने की बात है, वह आपकी एक नयी खोज है, जिसकी मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी; या शायद, ईश्वर जाने, आप विचार-विज्ञाता हो गये हैं, मजाक की बातें छोड़ दें, मेरे दीवान साहब, मैं वही कौतुकप्रिय शरारती किन्तु, आपको यह विश्वास दिलाता हूँ कि मैं सीधा-सादा लड़का हूँ, जिससे आप जूनागढ़ में मिले थे; और आपके प्रति मेरा वही स्नेह है या सौ गुना हो गया है, क्योंकि मैंने आपकी तुलना मन ही मन दक्षिण के सभी राज्यों के दीवानों से कर ली है, और ईश्वर ही मेरा साक्षी है कि दक्षिण के प्रत्येक दरबार में आपकी प्रशंसा में मेरी जिह्वा किस तरह वाचाल थी (यद्यपि मुझे ज्ञात है कि आपके सद्गुणों का मूल्य जानने के लिए मेरी शक्ति पूर्णतया अपर्याप्त है)। अगर यह एक पर्याप्त व्याख्या नहीं है, मैं आपसे क्षमा के लिए प्रार्थना करता हूँ, जैसे एक पुत्र अपने पिता से करता है, और ऐसा कीजिए, जिससे मैं इस भावना से अनुतप्त न रहूँ कि जो मनुष्य मेरे प्रति इतना दयालु था, उसका मैं सदा कृतघ्न बना रहा।
भवदीय,
विवेकानन्द
पुनश्च – मैं आप पर इस बात के लिए आश्रित हूँ कि मेरे न आने से आपके भाई के दिमाग में जो भी गलतफहमी हो, उसे दूर करें और यदि मैं शैतान भी होता, तो भी मैं उनकी दयालुता एवं सज्जनता को नहीं भूल सकता था।
और जहाँ तक उन दो स्वामियों का प्रश्न है, जो पिछली बार आपके यहाँ जूनागढ़ गये थे, वे मेरे गुरुभाई थे; उनमें से एक हमारा नेता है। तीन वर्षों बाद मैं उनसे मिला था और हम साथ ही साथ आबू तक आये, तत्पश्चात् मैंने उनका साथ छोड़ दिया। अगर हम चाहें, तो बम्बई लौटने तक उनको मैं नदियाद ला सकता हूँ। आप एवं आपके आत्मीयों पर भगवान् आशीर्वाद-वर्षा करे।