स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री जस्टिस सुब्रह्मण्य अय्यर को लिखित (3 जनवरी, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का श्री जस्टिस सुब्रह्मण्य अय्यर को लिखा गया पत्र)

५४१, डियरबोर्न एवेन्यू,
शिकागो,
३ जनवरी, १८९५

प्रिय महाशय,

प्रेम, कृतज्ञता और विश्वासपूर्ण हृदय से आज मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूँ। मैं आपसे यह पहले ही बता देना चाहता हूँ कि आप उन थोड़े से मनुष्यों में से एक हैं, जिन्हें मैंने अपने जीवन में पूर्ण रूप से दृढ़ विश्वासी पाया। आपमें पूरी मात्रा में भक्ति और ज्ञान का अपूर्व सामंजस्य है। इसके साथ ही अपने विचारों को कार्यरूप में परिणत करने में भी आप पूरे समर्थ हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आप निष्कपट हैं, और इसलिए मैं अपने कुछ विचार आपके सामने विश्वास पूर्वक उपस्थित करता हूँ।

भारत में हमारा कार्य अच्छे ढंग से शुरू हुआ है और इसे न केवल जारी रखना चाहिए, बल्कि पूरी शक्ति के साथ बढ़ाना भी चाहिए। सब तरह के सोच-विचार के बाद मेरा मन अब निम्नलिखित योजना पर डटा हुआ है। पहले मद्रास में धर्म-शिक्षा के लिए एक कॉलेज खोलना उचित होगा, फिर इसका कार्यक्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ाना होगा। नवयुवकों को वेद तथा विभिन्न भाष्यों और दर्शनों की पूरी शिक्षा देनी होगी, इसमें संसार के अन्य धर्मों का ज्ञान भी शामिल रहेगा। साथ ही एक अंग्रेजी और एक देशी भाषा का पत्र निकालना होगा, जो उस विद्यालय के मुखपत्र होंगे।

पहला काम यही है, और छोटे-छोटे कामों से ही बड़े-बड़े काम पैदा हो जाते हैं। कई कारणों से मद्रास ही इस समय इस कार्य के लिए सब से अच्छी जगह है। बम्बई में वही पुरानी जड़ता आ रही है। बंगाल में यह डर है कि अब वहाँ जैसा पाश्चात्य विचारों का मोह फैला हुआ है, उसे देखते हुए कहीं उसके विपरीत वैसी ही घोर प्रतिक्रिया न शुरू हो जाए। इस समय मद्रास ही जीवन-यात्रा की प्राचीन तथा आधुनिक प्रणालियों के यथार्थ गुणों को ग्रहण करता हुआ मध्यम मार्ग का अनुसरण कर रहा है।

भारत में शिक्षित समाज से मैं इस बात पर सहमत हूँ कि समाज का आमूल परिवर्तन करना आवश्यक है। पर यह किया किस तरह जाए? सुधारकों की सब कुछ नष्ट कर डालने की रीति व्यर्थ हो चुकी है। मेरी योजना यह है : हमने अतीत काल में कुछ बुरा नहीं किया – निश्चय ही नहीं किया। हमारा समाज खराब नहीं, बल्कि अच्छा है। मैं केवल चाहता हूँ कि वह और भी अच्छा हो। हमें असत्य से सत्य तक अथवा बुरे से अच्छे तक पहुँचना नहीं हैं, वरन् सत्य से उच्चतर सत्य तक, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम तक पहुँचना है। मैं अपने देशवासियों से कहता हूँ कि अब तक जो तुमने किया, सो अच्छा ही किया है, अब इस समय और भी अच्छा करने का मौका आ गया है।

जात-पाँत की ही बात लीजिए। संस्कृत में ‘जाति’ का अर्थ है वर्ग या श्रेणीविशेष। यह सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है। विचित्रता अर्थात् जाति का अर्थ ही सृष्टि है। एकोऽहं बहुस्याम – ‘मैं एक हूँ – अनेक हो जाऊँ’, विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पायी जाती है। सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि वैविध्य शुरू हुआ। अतः यदि यह विविधता समाप्त हो जाए, तो सृष्टि का ही लोप हो जाएगा। जब तक कोई जाति शक्तिशाली और क्रियाशील रहेगी, तब तक वह विविधता अवश्य पैदा करेगी। ज्यों ही उसका ऐसा विविधता का उत्पादन करना बन्द होता है, या बन्द कर दिया जाता है, त्यों ही वह जाति नष्ट हो जाती है। जाति का मूल अर्थ था प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वाधीनता और यही अर्थ हजारों वर्षों तक प्रचलित भी रहा। आधुनिक शास्त्र-ग्रन्थों में भी जातियों का आपस में खाना-पीना निषिद्ध नहीं हुआ है; और न किसी प्राचीन ग्रन्थ में उनका आपस में ब्याह-शादी करना मना है। तो फिर भारत के अधःपतन का कारण क्या था? – जाति सम्बन्धी इस भाव का त्याग। जैसे गीता कहती है – जाति नष्ट हुई कि संसार भी नष्ट हुआ। अब क्या यह सत्य प्रतीत होता है कि इस विविधता का नाश होते ही जगत् का भी नाश हो जाएगा? आजकल वर्ण-विभाग यथार्थ में जाति नहीं है, बल्कि जाति की प्रगति में वह एक रुकावट ही है। वास्तव में इसने सच्ची जाति अथवा विविधता की स्वच्छन्द गति को रोक दिया है। कोई भी दृढ़मूल प्रथा अथवा किसी जाति-विशेष का विशेष अधिकार अथवा किसी भी प्रकार का वंश-परम्परागत जाति-विभाग उस सच्ची जाति की स्वच्छन्द गति को रोक देती है, और जब कभी कोई राष्ट्र इस अनन्त विविधता का सृजन करना छोड़ देता है, तब उसकी मृत्यु अनिवार्य हो जाती है। अतः मुझे अपने देशवासियों से यही करना है कि जाति प्रथा उठा देने से ही भारत का पतन हुआ है। प्रत्येक दृढ़मूल आभिजात्य वर्ग अथवा विशेष अधिकार प्राप्त सम्प्रदाय जाति का घातक है – वह जाति नहीं है। ‘जाति’ को स्वतन्त्रता दो; जाति की राह से प्रत्येक रोड़े को हटा दो, बस, हमारा उत्थान होगा। अब यूरोप को देखो। ज्यों ही वह जाति को पूर्ण स्वाधीनता देने में सफल हुआ, और अपनी-अपनी जाति के गठन में प्रत्येक व्यक्ति की बाधाओं को हटा दिया, त्यों ही वह उठ खड़ा हुआ। अमेरिका में यथार्थ जाति के विकास के लिए सबसे अधिक सुविधा है, और इसीलिए अमेरिका वाले बड़े हैं। प्रत्येक हिन्दू जानता है कि किसी लड़के या लड़की के जन्म लेते ही ज्योतिष लोग उसके जाति-निर्वाचन की चेष्टा करते हैं। वही असली जाति है – हर एक व्यक्ति का व्यक्तित्व, और ज्योतिष इसे स्वीकार करता है। और हम लोग केवल तभी उठ सकते हैं, जब इसे फिर से पूरी स्वतन्त्रता दें। याद रखें कि इस विविधता का अर्थ वैषम्य नहीं है, और न कोई विशेषाधिकार ही।

यही मेरी कार्य-प्रणाली है – हिन्दुओं को यह दिखा देना कि उन्हें कुछ भी त्यागना नहीं पड़ेगा, केवल उन्हें ऋषियों द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलना होगा और सदियों की दासता के फलस्वरूप प्राप्त अपनी जड़ता को उखाड़ फेंकना होगा। हाँ, मुसलमानी अत्याचार के समय विवश होकर हमें अपनी प्रगति अवश्य रोक देनी पड़ी थी, क्योंकि तब प्रगति की बात नहीं थी, तब जीने-मरने की समस्या थी। अब वह दबाव नही रहा, अतः हमें आगे बढ़ना ही चाहिए – सर्वधर्म-त्यागियों और मिशनरियों द्वारा बताये गए तोड़-फोड़ के रास्ते से नहीं, वरन् स्वयं के अपने भाव के अनुसार, स्वयं अपने पथ से। हमारा जातीय प्रासाद अभी अधूरा ही है, इसीलिए सब कुछ भद्दा दीख पड़ रहा है। सदियों के अत्याचार के कारण हमें प्रासाद-निर्माण का कार्य छोड़ देना पड़ा था। अब निर्माण-कार्य पूरा कर लीजिए, बस, सब कुछ अपनी अपनी जगह पर सजा हुआ सुन्दर दिखायी देगा। यही मेरी समस्त कार्य योजना है। मैं इसका पूरा कायल हूँ। प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में एक मुख्य प्रवाह रहता है : भारत में वह धर्म है। उसे प्रबल बनाइए, बस, दोनों ओर के अन्य स्रोत उसी के साथ-साथ चलेंगे। यह मेरी विचार-प्रणाली का एक पहलू हैं। आशा है, समय पाकर मैं अपने सब विचारों को प्रकट कर सकूँगा। पर इस समय मैं देखता हूँ कि इस देश (अमेरिका) में भी मेरा एक मिशन है। विशेषतः मुझे इस देश से – और केवल यहीं से – सहायता पाने की आशा है : किन्तु अब तक अपने विचारों को फैलाने के सिवा मैं और कुछ न कर सका। अब मेरी इच्छा है कि भारत में भी एक ऐसी ही चेष्टा की जाए।

मैं कब तक भारत लौटूँगा, इसका मुझे पता नहीं। मैं प्रभु की प्रेरणा का दास हूँ; उन्हीं के हाथ का यंत्र हूँ।

‘इस संसार में धन की खोज में लगे हुए मैंने तुम्हींको सबसे श्रेष्ठ रत्न पाया। हे प्रभो, मैं अपने को तुम पर निछावर करता हूँ।’

‘प्रेम करने के लिए किसी को ढूँढ़ते हुए एकमात्र तुम्हीं को मैंने प्रेमास्पद पाया। मैं अपने को तुम्हारे श्रीचरणें में निछावर करता हूँ।’1

प्रभु आपका सदा-सर्वदा कल्याण करें।

भवदीय,
विवेकानन्द


  1. यजुर्वेद संहिता।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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