स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री प्रमदादास मित्र को लिखित (17 अगस्त, 1889)
(स्वामी विवेकानंद का श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया पत्र)
ईश्वरो जयति
वराहनगर, कलकत्ता,
१७ अगस्त, १८८९
पूज्यपाद,
आपने पिछले पत्र में लिखा है कि जब मैं आपको आदरसूचक शब्दों से सम्बोधित करता हूँ, तो आपको बहुत संकोच होता है। किन्तु इसमें मेरा कुछ दोष नहीं। इसका उत्तरदायित्व तो आपके सद्गुणों पर है। मैंने इस पत्र के पूर्व एक पत्र में लिखा था कि आपके सद्गुणों से जो मैं आपकी ओर आकृष्ट होता हूँ, उससे यह प्रतीत होता है कि हमारा और आपका पूर्व जन्म का कुछ सम्बन्ध है।
इस सम्बन्ध में मैं एक गृहस्थ और संन्यासी में कोई भेद नहीं मानता और जहाँ कहीं महानता, हृदय की विशालता, मन की पवित्रता एवं शान्ति पाता हूँ, वहाँ मेरा मस्तक श्रद्धा से नत हो जाता है – शांतिः शांतिः शांतिः! आजकल जितने लोग संन्यास ग्रहण करते हैं – ऐसे लोग जो वास्तव में मान-सम्मान के भूखे हैं, जीवन-निर्वाह के निमित्त त्याग का दिखावा करते हैं और जो गृहस्थ ओर संन्यास, इन दोनों के आदर्शों से गिरे हुए होते हैं – उनमें कम-से-कम एक लाख में एक तो आपके जैसा महात्मा निकले, ऐसी मेरी प्रार्थना है! मेरे जिन ब्राह्मण गुरुभाइयों ने आपके सद्गुणों की चर्चा सुनी है, वे सब आपको सादर प्रणाम करते हैं।
मेरे जिन अनेक प्रश्नों के आपने उत्तर लिख भेजे हैं, उनमें से एक से सम्बन्धित मेरा भ्रम दूर हो गया है। इसके लिए मैं आपका चिर अनुगृहीत रहूँगा। इस प्रश्नों में एक और यह था कि, क्या भगवान् शंकराचार्य ने गुण-कर्मानुसार जाति-विभाग पर, जिसका उल्लेख महाभारत इत्यादि पुराणों में हुआ है, अपना स्पष्ट निर्णय दिया है? अगर दिया है, तो वह कहाँ मिलेगा? मुझे इसमें संदेह नहीं है कि इस देश की प्राचीन रूढ़ि के अनुसार जाति-विभाग जन्म के अनुसार होता आया है और इसमें सन्देह नहीं कि समय-समय पर शूद्रों के साथ उससे भी अधिक अत्याचार किया जाता रहा होगा, जैसा कि स्पार्टा के लोगों ने वहाँ के हेलट्स (अस्पृश्यों) के साथ किया और आज भी अमेरिका में हब्शियों के साथ किया जाता है। मैं तो जाति-पाँति के मामलें में किसी भी वर्ग के प्रति कोई पक्षपात नहीं रखता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह एक सामाजिक नियम है और गुण एवं कर्म के भेद पर आधारित है। यदि कोई नैष्कर्म्य एवं निर्गुणत्व को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे अपने मन में किसी प्रकार का जाति-भेद रखना हानिकर है। इन मामलों में गुरु के प्रसाद से मेरे कुछ निश्चित विचार हैं, परन्तु यदि मैं आपके विचार जान सकूँ, तो मैं उनके आधार पर अपने कुछ मतों की परिपुष्टि कर सकूँगा और शेष का संशोधन। मधुमक्खी के छत्ते को बाँस से बिना कोंचे शहद नहीं टपक सकता। अतः मैं आपसे कुछ प्रश्न और करूँगा। मुझको अज्ञ और बालक समझकर बिना किसी प्रकार का क्रोध किये कृपया यथार्थ उत्तर देगें।
- वेदान्त-सूत्र में जिस मुक्ति का वर्णन हुआ है, क्या उसमें और अवधूत गीता तथा अन्य ग्रन्थों में वर्णित निर्वाण में कोई भेद है या नहीं?
- यदि जगद्व्यापारवर्जं प्रकरणादसंनिहितत्वाच्च1 इस सूत्र के अनुसार किसीको पूर्ण ईश्वरत्व प्राप्त नहीं होता, तो निर्वाण का वास्तव में क्या अर्थ है?
- यह कहा जाता है कि चैतन्यदेव ने सार्वभौम से पुरी में कहा, “मैं व्यास के सूत्रों को समझता हूँ। वे द्वैतात्मक हैं, परन्तु भाष्यकारों ने उन्हें अद्वैतात्मक बना दिया है। यह बात समझ में नहीं आती।” क्या यह सच है? किंवदन्ती के अनुसार चैतन्यदेव का प्रकाशानन्द सरस्वती से इस विषय पर शास्त्रार्थ हुआ और चैतन्यदेव की विजय हुई। कहते हैं कि चैतन्यदेव द्वारा लिखित एक भाष्य प्रकाशानन्दजी के मठ में था।
- तंत्र में आचार्य शंकर को प्रच्छन्न बुद्ध (छिपे हुए बुद्ध) कहा गया है। बौद्ध महायान के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्रज्ञापारमिता’ में वर्णित सिद्धान्त आचार्य शंकर द्वारा प्रतिपादित वेदान्त मत से बिल्कुल मिलता-जुलता है। पंचदशीकार का भी यह कहना है कि ‘जिसे हम लोग ब्रह्म कहते हैं, वही तत्त्वतः बौद्धों का शून्य है।’ इस सबका क्या अर्थ है?
- वेदान्त-सूत्रों में वेदों के प्रमाण के विषय में कोई कारण क्यों नहीं दिये गये? पहले तो यह कहा गया है कि वेद परमात्मा के अस्तित्व के प्रमाण हैं और फिर यह बताया गया है कि वेद ‘परमात्मा से निःश्वसित हैं’, इसलिए प्रमाण हैं। अब यह बताइए कि पश्चिमी तर्कशास्त्र के अनुसार यह कथन एक अन्योन्याश्रय दोष (Argument in a circle) के समान दोषपूर्ण है या नहीं?
- वेदान्त श्रद्धा की अपेक्षा करता है, क्योंकि केवल तर्क से निर्णय नहीं हो सकता। तो फिर शास्त्रार्थ करने वाले पण्डितों ने सांख्य और न्याय की पद्धतियों में थोड़ी-सी भी कमी पाकर उस पर आक्षेपों की इतनी बौछार क्यों की है? हम किसका विश्वास करें? जिसे देखिए, वह अपने ही मत के प्रतिपादन के पीछे मतवाला है। यदि व्यास के अनुसार स्वयं महासिद्ध2 कपिल मुनि ने ही भूल की है, तो कौन कह सकता है कि स्वयं व्यास ने उसकी अपेक्षा बड़ी भूल नहीं की? क्या कपिल वेदों को नहीं समझ सके?
- न्यायशास्त्र के अनुसार ‘शब्द या वेद’ (सत्य का प्रमाण) उनकी वाणी है, जो सर्वोच्च पद पर पहुँच चुके हैं या आप्त हैं। इस दृष्टि से ऋषि सर्वज्ञ हैं। तो फिर यह कैसे मानें कि वे ‘सूर्य सिद्धान्त’ के अनुसार इतने साधारण ज्योतिष तत्त्वों के ज्ञाता नहीं थे? उनके कथानुसार पृथ्वी त्रिकोण है और वासुकि नाग के सिर पर रखी है, आदि। इन सब बातों को देखते हुए भी हम यह कैसे मान लें कि उनकी बुद्धि-नौका हमें जन्म-मरण के इस भवसागर के पार पहुँचा देगी
- यदि परमात्मा प्राणियों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही उन्हें जन्म देता है, तो फिर उसकी उपासना से हमें क्या लाभ? नरेशचन्द्र का एक सुन्दर गीत है, जिसमें कहा गया है : ‘हे माता, यदि जो कुछ भाग्य में लिखा है, उसका होना अवश्यम्भावी है, तो फिर हम दुर्गा के पवित्र नाम को लेकर प्रार्थना क्यों करें?”
- माना कि एक ही विषय पर अनेक वाक्य एकार्थक हैं, तब उसका एक-दो वाक्यों द्वारा विरोध मान्य नहीं हो सकता। मधुपर्क3 और इसी प्रकार की दूसरी चिर प्रचलित प्रथाओं का अश्वमेध, गोवध, संन्यास, श्राद्ध आदि में मांस-पिण्ड-दान आदि द्वारा क्यों निषेध हो जाता है?
यदि वेद नित्य हैं, तो फिर इन कथाओं में कहाँ तक सत्य है कि ‘धर्म की वह विधि द्वापर के लिए है’, और ‘यह कलियुग के लिए है’ इत्यादि-इत्यादि? - जिस परमात्मा ने वेदों का निर्माण किया, उसीने फिर बुद्धावतार धारण कर उनका खण्डन किया। इन धर्मादेशों में किसका अनुगमन किया जाय? इनमें से किसको प्रमाणस्वरूप माना जाय? पहले को या बादवाले को?
- तंत्र कहते हैं कि कलियुग में वेद-मंत्र व्यर्थ हैं। अब भगवान् शिव के भी किस उपदेश का पालन किया जाय?
- व्यास का वेदान्त-सूत्र में यह स्पष्ट कथन है कि वासुदेव संकर्षणादि चतुर्व्यूह उपासना ठीक नहीं। फिर वे ही व्यास भागवत में इसी उपासना के गुणानुवाद गाते हैं। तो क्या व्यास पागल थे?
इनके अतिरिक्त मेरी और बहुत सी शंकाएँ हैं। उनके समाधान की आशा से मैं भविष्य में उन्हें आपके सम्मुख उपस्थित करूँगा। इस प्रकार के प्रश्न बिना साक्षात् मिले भली प्रकार प्रकट नहीं किये जा सकते और न प्रत्याशित समाधान ही उपलब्ध हो सकता है। अतएव मेरी इच्छा है कि गुरुकृपा से मैं जब निकट भविष्य में आपसे मिलूँगा, उसी समय वे सब प्रश्न करूँगा।
मैंने ऐसा कहते सुना है कि बिना आध्यात्मिक साधना में आन्तरिक प्रगति हुए इन विषयों पर केवल युक्ति आदि के बल से किसी निर्णय पर पहुँचना असम्भव है। पर शुरू में कम से कम कुछ परिभाषा में समाधान तो होना ही चाहिए।
आपका,
नरेन्द्र
- इस सूत्र के अनुसार सृष्टि, स्थिति और प्रलय, इन तीनों कर्मों का कर्ता केवल ईश्वर है। जो जीव मुक्त हो जाते हैं, उनको यह सामर्थ्य नहीं प्राप्त है, लेकिन, अतिरिक्त सभी दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। स.
- सिद्धनां कपिलो मुनिः ॥ – गीता॥१०।२६॥ वेदान्तसूत्र-भाष्य, २।१।१ में शंकर ने वैदिक कपिल और सांख्यकार कपिल के एक होने में सन्देह प्रकट किया है। स.
- मधुपर्क एक वैदिक विधि थी, जिसके अनुसार किसी अतिथि के सत्कारार्थ उसके सम्मुख बहुत से सुस्वादु भोज्य पदार्थ, जिनमें गोमांस भी था, रखे जाते थे। जिस वाक्य का स्वामी जी ने उल्लेख किया है, वह अंशतः ऐसे भोजन का निषेध करता है, क्योंकि पूरे वाक्य का अर्थ यह है कि कलियुग में पाँच कर्म निषिद्ध हैं – १. अश्वमेध, २. गोवध, ३. श्राद्ध में मास-पिण्डदान, ४. संन्यास-ग्रहण और ५. पति के अभाव में देवर के द्वारा पुत्रोत्पादन करना।