स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री प्रमदादास मित्र को लिखित (3 मार्च, 1890)
(स्वामी विवेकानंद का श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया पत्र)
ईश्वरो जयति
गाजीपुर,
३ मार्च, १८९०
पूज्यपाद,
आपका कृपापत्र अभी मिला। शायद आप नहीं जानते कि मैं कठोर वेदान्ती विचारों का होता हुआ भी बहुत ही कोमल हृदय हूँ, और इसीसे मेरा बड़ा अनिष्ट होता है। थोड़ा भी आघात मुझे विचलित कर देता है, क्योंकि मैं कितना ही स्वार्थपरायण रहने का प्रयत्न करूँ, दूसरे की हानि-लाभ देखते ही मेरा सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जाता है।
इस बार मैंने आत्म-लाभार्थ दृढ़ संकल्प कर लिया था, परन्तु एक गुरुभाई की बीमारी का समाचार पाकर मुझे इलाहाबाद दौड़ना पड़ा। अब हृषीकेश से सूचना मिली है, इस कारण मेरा मन वहीं लगा है। मैंने शरत् को तार दे दिया है, परन्तु अभी तक कोई उत्तर नहीं मिला। कैसी जगह है कि जहाँ से तार आने में भी इतना विलम्ब लगता है! कमर का दर्द जरा भी अच्छा नहीं हो रहा है, बहुत कष्ट है। कुछ दिनों से मैं पवहारीजी के वहाँ नहीं जा रहा हूँ। पर उनकी बड़ी कृपा है कि वे प्रतिदिन किसीको भेजकर मेरी खोज-खबर लेते रहते हैं। किन्तु अब तो मैं देखता हूँ ‘उल्टा समझलि राम’ – पहले मैं उनके द्वार का भिखारी था, पर अब वे ही मुझसे कुछ सीखना चाहते हैं! ऐसा लगता है कि यह सन्त अभी पूर्ण सिद्ध नहीं हुए हैं, क्योंकि ये बहुत से कर्म, व्रत, आचार इत्यादि में लिप्त हैं और गुप्त भाव तो बहुत ही अधिक है। समुद्र पूर्ण होने पर कभी सीमाबद्ध नहीं रह सकता, यह निश्चित है। इसलिए अब इन साधु को व्यर्थ कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। शीघ्र ही विदा लेकर प्रस्थान करूँगा। क्या करूँ, मेरा ईश्वरदत्त कोमल स्वभाव ही मेरे नाश का कारण बन गया है! बाबाजी तो मुझे जाने देते नहीं और गगन बाबू (इन्हें शायद आप जानते हों, एक धार्मिक, साधु और सहृदय व्यक्ति हैं) मुझे छोड़ते नहीं। यदि तार के उत्तर से मेरा वहाँ जाना आवश्यक हुआ, तो जाऊँगा, नहीं तो कुछ दिनों में आपके पास वाराणसी पहुँचूँगा। मैं आपको सहज छोड़नेवाला नहीं – आपको हृषीकेश जरूर ले जाऊगाँ। आपका कोई बहाना न चलेगा। वहाँ किन स्वच्छताविषयक कठिनाइयों का आप जिक्र करते हैं? पहाड़ पर क्या जल की कमी है या स्थान की? कलिकाल के तीर्थस्थानों और संन्यासियों को तो आप जानते ही हैं, वे कैसे हैं! रुपये खर्च कीजिए और मन्दिर के पुजारी आपके लिए जगह करने के निमित्त देवमूर्ति को भी हटा देंगे, ठहरने के लिए स्थान की तो बात ही क्या है! वहाँ आपको कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। गरमी तो वहाँ भी पड़ने लगी होगी, पर वाराणसी जैसी नहीं, इतना अच्छा है। वहाँ ठण्ड होने के कारण अच्छी नींद तो आयेगी।
आप इतना डरते क्यों हैं? मैं इस बात का भार लेता हूँ कि आप सकुशल घर लौटेंगे और आपको कहीं कुछ कष्ट न होगा। ब्रिटिश राज्य के फकीर या गृहस्थ को कोई कष्ट नहीं, यह मेरा अनुभव है।
क्या मैं यों ही कहता हूँ कि हमारा-आपका पूर्व जन्म का कुछ सम्बन्ध है। देखिए न, आपके एक पत्र से मेरे सारे संकल्प हवा हो गये और मैं सब छोड़कर वाराणसी की ओर उन्मुख हो गया।
गंगाधर को मैंने फिर लिखा है और इस बार उससे कहा है कि मठ में लौट आये। यदि वह आयेगा, तो आपसे मिलेगा। वाराणसी की जलवायु अब कैसी है? यहाँ ठहरने से मैं मलेरिया से मुक्त हो गया हूँ। केवल कमर की पीड़ा ने मुझे बेचैन कर रखा है। दर्द दिन-रात बना रहता है और मुझे बहुत बेचैनी रहती है। मैं कह नहीं सकता कि मैं पहाड़ पर कैसे चढूँगा। मैंने बाबाजी में अद्भुत तितिक्षा देखी है और इसीलिए मैं उनके कुछ प्रसाद का भिक्षुक हूँ, पर वे कुछ देना नहीं चाहते, केवल मुझसे ही ले रहे हैं। इसलिए मैं भी चला।
आपका
नरेन्द्र
पुनश्च – अब किसी बड़े आदमी के पास न जाऊँगा।
‘रे मन, तू अपने में स्थिर रह, जा न किसी के द्वार,
केवल शान्तचित्त हो, कर तू विनय विवेक-विचार।
परम अर्थ का जिसमें रहता सदा भरा भण्डार,
वह पारस-मणि तो तुझमें है, कर उससे व्यवहार॥’ – कमलाकान्त
अतएव मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि श्रीरामकृष्ण की बराबरी का दूसरा कोई नहीं। वैसी अपूर्व सिद्धि, वैसी अपूर्व अकारण दया, जन्म-मरण से जकड़े हुए जीव के लिए वैसी प्रगाढ़ सहानुभूति इस संसार में और कहाँ? या तो वे अपने कथानानुसार अवतार हैं अथवा वेदान्त दर्शन में जिसे नित्यसिद्ध महापुरुष लोकहिताय मुक्तोऽपि शरीरग्रहणकारी कहा गया है, वे हैं, निश्चित निश्चित इति मे मतिः। ऐसे महापुरुष की उपासना के विषय के पातंजल सूत्र ईश्वरप्रणिधानाद्वा या महापुरषप्रणिधानाद्वा के किंचित् परिवर्तित रूप में उल्लेख किया जा सकता है।
अपने जीवन-काल में उन्होंने मेरी कोई भी प्रार्थना नहीं ठुकरायी, मेरे लाखों अपराध क्षमा किये। मेरे माता-पिता में भी मेरे लिए इतना प्रेम न था। इसमें कोई कविजनसुलभ अतिशयोक्ति नहीं है। यह एक नितान्त सत्य है, जिसे उनका प्रत्येक शिष्य जानता है। बड़े बड़े संकट और प्रलोभन के अवसरों पर मैंने करुणा के साथ रोकर प्रार्थना की, “भगवान्, रक्षा कर”, और किसी ने भी उत्तर नहीं दिया, किन्तु इस अद्भुत महापुरुष ने – अथवा अवतार या जो कुछ समझिए, उसने – अपने अन्तर्यामित्व गुण से मेरी सारी वेदनाओं को जानकर, स्वयं आग्रहपूर्वक बुलाकर उन सबका निराकरण किया। यदि आत्मा अविनाशी है और यदि वे इस समय हैं, तो मैं बारम्बार प्रार्थना करता हूँ, “हे अपार दयानिधे, ममैक शरणदाता रामकृष्ण भगवान्, कृपा करके हमारे इस नरश्रेष्ठ बन्धुवर की सारी मनोवांछा पूर्ण कीजिए।” आप पर वे मंगल-वर्षा करें, वे – जिनको ही मैंने इस जगत् में अहेतुकदयासिन्धु पाया है। शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च – कृपया शीघ्र उत्तर दीजिए।