स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री प्रमदादास मित्र को लिखित (7 अगस्त, 1889)
(स्वामी विवेकानंद का श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया पत्र)
ईश्वरो जयति
वराहनगर, कलकत्ता,
७ अगस्त, १८८९
पूज्य महाशय,
आपका पत्र मिले एक सप्ताह से अधिक हो गया, परन्तु मुझे फिर ज्वर आ गया था, इस कारण मैं अब तक उत्तर नहीं दे पाया, इसके लिए कृपया क्षमा करें। बीच में डेढ़ माह तक मैं ठीक था, पर दस दिन हुए, फिर बीमार पड़ गया था। अब स्वास्थ्य अच्छा है।
मुझे कुछ प्रश्न करने हैं, और चूँकि महाशय, आप संस्कृत के एक बड़े विद्वान् हैं, अतः मेरे निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर देकर मुझे कृतार्थ करें :
१. क्या उपनिषदों के अतिरिक्त वेदों में और कहीं सत्यकाम जाबाल और जानश्रुति की कथा आयी है?
२. जहाँ कहीं शंकराचार्य अपने वेदान्त-सूत्रों के भाष्य में स्मृति का उदाहरण देते हैं, तो वे प्रायः महाभारत का प्रमाण देते हैंं। परन्तु हम इस बात का पूरा प्रमाण देखते हैं कि महाभारत के वनपर्व के अजगरोपाख्यान एवं उमा-महेश्वर-संवाद में तथा भीष्म पर्व में जाति का आधार गुण-धर्म है, तो क्या उन्होंने इसका उल्लेख कहीं अपने अन्य ग्रन्थों में किया है?
३. वेदों में पुरुषसूक्त के अनुसार जाति-विभाग वंशपरम्परानुगत नहीं है। फिर वेदों में इस बात का कहाँ उल्लेख हुआ है कि जाति जन्म से है?
४. श्री शंकराचार्य ने वेदों से इस बात का कोई प्रमाण नहीं निकाला कि शूद्र वेदाध्ययन का अधिकारी नहीं। उन्होंने केवल ‘यज्ञेऽनवक्लृप्तः’ का प्रमाण इसलिए दिया है कि जब (शूद्र) यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है, तो अवश्य ही उपनिषदादि पढ़ने का भी उसे अधिकार नहीं है। परन्तु उन्हीं आचार्य ने ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ की व्याख्या करते हुए ‘अथ’ के अर्थ के सम्बन्ध में कहा है कि उसका अभिप्राय ‘वेदाध्ययन के पश्चात् नहीं है, क्योंकि पद प्रमाण के विरुद्ध पड़ता है कि संहिता और ब्राह्मण भाग का अध्ययन किये बिना उपनिषद् नहीं पढ़े जा सकते और साथ ही वैदिक कर्मकाण्ड और वैदिक ज्ञानकाण्ड में कोई पूर्वापर भाव नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि वेदों के कर्मकाण्डीय ज्ञान के बिना भी किसीको उपनिषद् पढ़कर ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो सकता है। अतएव यदि कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में कोई पूर्वापर सम्बन्ध नहीं है, तो शूद्रों के विषय में ‘न्यायपूर्वकम्’ आदि वाक्यों द्वारा आचार्य क्यों अपने वाक्यों को ही खंडित कर रहे हैं? शूद्र को उपनिषदों का अध्ययन क्यों नहीं करना चाहिए?
मैं आपके पास एक ईसाई सन्यासी लिखित ‘ईसा-अनुसरण’ नामक पुस्तक डाक द्वारा भेज रहा हूँ। यह एक अद्भुत ग्रन्थ है। ईसाइयों में भी त्याग-वृत्ति, वैराग्य और दास्य-भक्ति के कितने ऊँचे उदाहरण हैं, यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता है। कदाचित् आपने यह पुस्तक पहले पढ़ी हो, यदि नहीं पढ़ी, तो कृपया अवश्य पढ़िए।
आपका,
नरेन्द्रनाथ