स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री शरच्चन्द्र चक्रवर्ती को लिखित (3 जुलाई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का श्री शरच्चन्द्र चक्रवर्ती को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय।
अल्मोड़ा यस्य वीर्येण कृतिनो वयं च भुवनानि च।
रामकृष्णं सदा वन्दे शर्वं स्वतन्त्रमीश्वरम्॥
“प्रभवति भगवान् विधि” रित्यागमिनः अप्रयोगनिपुणाः प्रयोगनिपुणाश्च पौरुषं बहुमन्यमानाः। तयोः पौरुषेयापौरुषेयप्रतीकारबलयोः विवेकाग्रहनिबन्धनः कलह इति मत्वा यतस्वायुष्मन् शरच्चन्द्र आक्रमितुम् ज्ञानगिरिगुरोर्गरिष्ठं शिखरम्।
यदुक्तं “तत्त्वनिकषग्रावा विपदिति” उच्येत तदपि शतशः “तत्त्वमसि” तत्त्वाधिकारे। इदमेव तन्निदानं वैराग्यरुजः। धन्यं कस्यापि जीवनं तल्लक्षणाक्रान्तस्य। अरोचिष्णु अपि निर्दिशामि पदं प्राचीनं – “कालः कश्चित् प्रतीक्ष्यताम्” इति। समारूढक्षेपणीक्षेपणश्रमः विश्राम्यतां तन्निर्भरः। पूर्वाहितो वेगः पारं नेष्यति नावम्। तदेवोक्तं – “तत् स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति,” “न धनेन न प्रजया त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” इत्यत्र त्यागेन वैराग्यमेव लक्ष्यते। तद्वैराग्यं वस्तुशून्यं वस्तुभूतं वा। प्रथमं यदि, न तत्र यतेत कोऽपि कीटभक्षितमस्तिष्केन विना; यद्यपरं, तदेदम् आपतति – त्यागः मनसः संकोचनम् अन्यस्मात् वस्तुनः, पिण्डीकरणं च ईश्वरे वा आत्मनि। सर्वेश्वरस्तु व्यक्तिविशेषो भवितुं नार्हति, समष्टिरित्येव ग्रहणीयम्। आत्मेति वैराग्यवतो जीवात्मा इति नापद्यते, परन्तु सर्वगः सर्वान्तर्यामी सर्वस्यात्मरूपेणावस्थितः सर्वेश्वर एक लक्ष्यीकृतः। स तु समष्टिरूपेण सर्वेषां प्रत्यक्षः। एवं सति जीवेश्वरयो स्वरूपतः अभेदभावात् तयोः सेवाप्रेमरूपकर्मणोरभेदः। अयमेव विशेषः – जीवे जीवबुद्ध्या या सेवा समर्पिता सा दया, न प्रेम, यदात्मबुद्ध्या जीवः सेव्यते, तत् प्रेम। आत्मनो हि प्रेमास्पदत्वं श्रुतिस्मृतिप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वत्। तत् युक्तमेव यदवादीत् भगवान् चैतन्यः – प्रेम ईश्वरे, दया जीवे इति। द्वैतवादित्वात् तत्र भगवतः सिद्धान्तः जीवेश्वरयोर्भेदविज्ञापकः समीचीनः। अस्माकं तु अद्वैतपराणां जीवबुद्धिर्बन्धनाय इति। तदस्माकं प्रेम एवं शरणं, न दया। जीवे प्रयुक्तः दयाशब्दोऽपि साहसिकजल्पित इति मन्यामहे। वयं न दयामहे, अपि तु सेवामहे; नानुकम्पानुभूतिरस्माकम्, अपि तु प्रेमानुभवः स्वानुभवः सर्वस्मिन्।
सैव सर्ववैषम्यसाम्यकरी भवव्याधिनीरुजकरी प्रपञ्चावश्यम्भाव्यत्रितापहरणकरी सर्ववस्तुस्वरूपप्रकाशकरी मायाध्वान्तविध्वंसकरी आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तस्वात्मरूपप्रकटनकरी प्रेमानुभूतिवैराग्यरूपा भवतु ते शर्मणे शर्मन्।
इत्यनुदिवसं प्रार्थयति त्वयि धृतचिरप्रेमबन्धः विवेकानन्दः।
(हिन्दी अनुवाद)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
जिनकी शक्ति से हम सब लोग तथा समस्त जगत् कृतार्थ हैं, उन शिवस्वरूप, स्वतंत्र, ईश्वर श्रीरामकृष्ण की मैं सदैव चरण वन्दना करता हूँ।
अल्मोड़ा,
३ जुलाई, १८९७
आयुष्मन् शरच्चन्द्र,
शास्त्रों के वे रचनाकार जो कर्म की ओर रुचि नहीं रखते, कहते हैं कि सर्वशक्तिमान भावी प्रबल है; परन्तु दूसरे लोग जो कर्म करने वाले हैं, समझते हैं कि मनुष्य की इच्छा-शक्ति श्रेष्ठतर है। जो मानवी इच्छा-शक्ति को दुःख हरनेवाला समझते हैं, और जो भाग्य का भरोसा करते हैं, इन दोनों पक्षों की लड़ाई का कारण अविवेक समझो और ज्ञान की उच्चतम अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न करो।
यह कहा गया है कि विपत्ति सच्चे ज्ञान की कसौटी है, और यही बात ‘तत्त्वमसि’ (तू वह है) की सच्चाई के बारे में हजार गुना अधिक कही जा सकती है। यह वैराग्य की बीमारी का सच्चा निदान है। धन्य हैं वे, जिनमें यह लक्षण पाया जाता है। हालांकि यह तुम्हें बुरा लगता है, फिर भी मैं यह कहावत दुहराता हूँ, ‘कुछ देर प्रतीक्षा करो।’ तुम खेते-खेते थक गए हो, अब डाँड़ पर आराम करो। गति के आवेग से नाव उस पार पहुँच जायगी। यही गीता में कहा है – तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति अर्थात् ‘उस ज्ञान को शुद्धान्तःकरणवाला साधक समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा स्वयं अपनी आत्मा में यथासमय अनुभव करता है।’ और उपनिषद् में कहा है – न धनेन न प्रजया त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः अर्थात् ‘न धन से, न सन्तान से, वरन् केवल त्याग से ही अमरत्व प्राप्त हो सकता है’ (कैवल्य २)। यहाँ ‘त्याग’ शब्द से वैराग्य का संकेत किया गया है। यह दो प्रकार का हो सकता है – उद्देश्यपूर्ण और उद्देश्यहीन। यदि दूसरी प्रकार का हो तो उसके लिए केवल वही यत्न करेगा, जिसका दिमाग सड़ चुका हो; परन्तु यदि पहले से अभिप्राय हो तो वैराग्य का अर्थ होगा कि मन को अन्य वस्तुओं से हटाकर भगवान् या आत्मा में लीन कर लेना। सबका स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्ति-विशेष नहीं हो सकता, वह तो समष्टिरूप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्माशब्द का अर्थ व्यक्तिगत ‘मैं’ न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है, जो अन्तःकरण में अन्तर्नियामक होकर सब में वास कर रहा है। वे समष्टि के रूप में सबको प्रतीत हो सकते हैं। इस प्रकार जब जीव ओर ईश्वर स्वरूपतः अभिन्न है, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है, तब वह दया है, प्रेम नहीं; परन्तु जब उसे आत्मा समझ कर सेवा की जाती है, तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एकमात्र प्रेम का पात्र है, यह श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान् चैतन्यदेव ने इसलिए यह ठीक ही कहा था – ‘ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया।’ वे द्वैतवादी थे, इसलिए जीव और ईश्वर में भेद करने का उनका निर्णय उनके अनुरूप ही था। परन्तु हम अद्वैतवादी हैं। हमारे लिए जीव को ईश्वर से पृथक समझना ही बन्धन का कारण है। इसलिए हमारा मूल तत्त्व प्रेम होना चाहिए, न कि दया। मुझे तो जीवों के प्रति ‘दया’ शब्द का प्रयोग विवेकरहित और व्यर्थ जान पड़ता है। हमारा धर्म करुणा करना नहीं, सेवा करना है। दया की भावना हमारे योग्य नहीं, हममें प्रेम एवं समष्टि में स्वानुभव की भावना होनी चाहिए।
जिस वैराग्य का भाव प्रेम है, जो समस्त भिन्नता को एक कर देता है, जो संसाररूपी रोग को दूर कर देता है, जो इस नश्वर संसार के त्रय-तापों को मिटा देता है, जो सब चीजों के यथार्थ रूप को प्रकट करता है, जो माया अंधकार को विनष्ट करता है, और घास के तिनके से लेकर ब्रह्मा तक सब चीजों में आत्मा का स्वरूप दिखता है, वह वैराग्य, हे शर्मन्, अपने कल्याण के लिए तुम्हें प्राप्त हो। मेरी यह निरन्तर प्रार्थना है।
तुम्हें सदैव प्यार करने वाला,
विवेकानन्द