स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री सिंगारावेलू मुदलियार को लिखित (30 नवम्बर, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री सिंगारावेलू मुदलियार लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
३० नवम्बर, १८९४
प्रिय किडी,
तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारा मन इधर-उधर भटक रहा है, मालूम हुआ। तुमने रामकृष्ण का त्याग नहीं किया है, जानकर सुखी हूँ। उनके सम्बन्ध में जो अद्भुत कथाएँ प्रकाशित हुई हैं – उनसे और जिन अहमकों ने उन्हें लिखा है – उन लोगों से तुम दूर रहोगे – यही मेरा सुझाव है। वे बातें सही हैं जरूर – किन्तु, मै यह अच्छी तरह जानता हूँ कि ये मूर्ख इन सारी बातों को इधर-से-उधर कर – खिचड़ी बना डालेंगे। उन्होंने (रामकृष्ण ने) कितनी अच्छी- अच्छी – ज्ञानभरी बातों के द्वारा शिक्षा दी है – फिर सिद्धि-चमत्कार वगैरह बेकार की बातों में इतना क्यों उलझे हो? अलौकिक घटनाओं की सत्यता प्रमाणित कर देने से ही धर्म की सच्चाई प्रमाणित नहीं होती – जड़ के द्वारा चेतन का प्रमाण तो नहीं दिया जा सकता। ईश्वर या आत्मा का अस्तित्व अथवा अमरत्व के साथ अलौकिक क्रियाओं का भला क्या सम्बन्ध हो सकता है? तुम इस बातों में अपना सिर मत खपाओ। तुम अपनी भक्ति को लेकर रहो। मैंने तुम्हारा सारा दायित्व अपने ऊपर लिया है – इस सम्बन्ध में निश्चिन्त रहो। इधर-उधर की बातों से मन को चंचल मत करो। रामकृष्ण का प्रचार करो। जिसे पान करके तुमने अपनी तृष्णा मिटायी है – उसे दूसरों को पान कराओ। तुम्हारे प्रति मेरा यह आशीर्वाद : सिद्धि तुम्हें करतलगत हो! व्यर्थ की दार्शनिक चिन्ताओं में सिर खपाने की आवश्यकता नहीं। अपनी धर्मान्धता से दूसरों को विरक्त न करो। एक ही काम तुम्हारे लिए यथेष्ट है – रामकृष्ण का प्रचार – भक्ति का प्रचार। इसी काम के लिए तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ – किये चलो! यदि तुम्हारे मन में अबोध की भाँति फिर ऐसे प्रश्न जगें, तो समझना, मुक्ति और सिद्धि तुम्हें मिलने में अब देर नहीं। अभी प्रभु का नाम-प्रचार करो!
सदा आशीर्वाद सहित,
विवेकानन्द