स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी अभेदानन्द को लिखित (1894)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी अभेदानन्द को लिखा गया पत्र)

संयुक्त राज्य अमेरिका
१८९४

प्रिय काली,

तुम्हारे पत्र से मुझे सब समाचार ज्ञात हुआ, जिस तार के बारे में तुमने लिखा है, उसके ‘ट्रिब्यून’ में निकलने की मुझे कोई सूचना नहीं मिली। छः महीने हुए, मैंने शिकागो छोड़ा था और अभी तक मुझे वहाँ लौटने का समय नहीं मिला है। इसलिए मैं वहाँ के हाल की बराबर खबर न रख सका। तुमने बड़ा कष्ट उठाया है, उसके लिए तुम्हें मैं किस प्रकार धन्यवाद दूँ? तुम सबने काम करने की एक अद्भुत योग्यता दिखाई है। श्रीरामकृष्ण के वचन मिथ्या कैसे हो सकते हैं? तुम लोगों में अद्भुत तेज है। शशि सान्याल के विषय में मैंने पहले ही लिखा है। श्री रामकृषण की कृपा से कुछ भी छिपा नहीं रहता। अगर वे चाहें तो सम्प्रदायस्थापना आदि करें, इसमें क्या हानि है? शिवा वः सन्तु पन्थानः – ‘तुम्हारा पथ कल्याणमय हो।’ दूसरी बात यह कि तुम्हारे पत्र का अभिप्राय मैं नहीं समझ सका। अपने सबके लिए मठ बनाने को मैं स्वयं चन्दा जमा करूँगा, और यदि इस बात के लिए लोग मेरी निन्दा करें, तो इसमें मेरा कछ घटता-बढ़ता नहीं है। तुम लोगों की बुद्धि कूटस्थ बुद्धि है, तुम्हें कोई हानि न पहुँचेगी। तुम लोगों का आपस में अत्यन्त प्रेम-भाव हो, जनता की टीका-टिप्पणी के प्रति उदासीनता का भाव हो, इतना ही पर्याप्त है। कालीकृष्ण बाबू को हमारे उद्देश्यों के प्रति अगाध प्रेम है और वे महान् पुरुष हैं। उन्हें विशेष रूप से मेरा स्नेह कहना। जब तक तुम लोगों में भेद-भाव न हो, प्रभु की कृपा से रणे वने पर्वतमस्तके वा – ‘चाहे रण में, चाहे वन में, चाहे पर्वत के शिखर पर’, तुम्हारे लिए कोई भी भय नहीं रहेगा। श्रेयांसि बहु विघ्नानि – ‘श्रेष्ठ कार्य में अनेक विघ्न होते हैं।’ यह तो स्वाभाविक ही है। अति गम्भीर बुद्धि धारण करो। बालबुद्धि जीव कौन क्या कह रहा है, उस पर तनिक भी ध्यान न दो। उदासीनता! उदासीनता! उदासीनता! मैं शशि (रामकृष्णानन्द) को विस्तारपूर्वक लिख चुका हूँ। कृपा करके समाचारपत्र और पुस्तकें अब न भेजना। ‘ढेंकी स्वर्ग में भी जाकर धान ही कूटता है’। देश में भी दर-दर भटकता फिरना और यहाँ भी वही। बोझा ढोना ऊपर से। बोलो, इस देश में किस तरह औरों की पुस्तकों के खरीदार जुटाऊँ? एक साधारण से व्यक्ति के सिवा और तो कुछ मैं हूँ नहीं। यहाँ के समाचारपत्र आदि मेरे विषय में जो कुछ भी लिखते हैं, उसे मैं अग्निदेव को समर्पित करता हूँ। तुम भी वही करो, वही वाजिब तरीका है।

गुरुदेव के काम के लिए जनता में कुछ प्रचार-प्रदर्शन की आवश्यकता थी। वह हो गया, अच्छा हुआ। अब तुमलोग ऐरे गैरे लोगों की बकवास पर बिलकुल ध्यान न देना। चाहे मैं धन एकत्र करूँ या और कुछ करूँ, क्या ऐरे गैरे मनुष्यों का मतामत प्रभु के कार्य में रुकावट डाल सकता है? भाई, तुम अभी बालक हो और तेरे तो बाल सफेद हुए जा रहे हैं। ऐसे लोगों की बातों और मतामत पर मेरी श्रद्धा का अंदाज तुम इसी से लगा लो। चाहे सारा संसार एक होकर भी हमारे विरुद्ध खड़ा हो जाय, जब तक तुम लोग कमर कसकर मेरे पीछे हो, हमें किसी बात का डर नहीं है। मैं इतना समझ गया हूँ कि मुझे बहुत ही ऊँचा आसन लेना पड़ेगा। तुम लोगों के सिवाय और किसी को पत्र नहीं लिखूँगा। गुणनिधि कहाँ है? उसे ढूँढ़कर यत्नपूर्वक मठ में लाने की चेष्टा करना। वह बड़ा विद्वान् और सच्चा मनुष्य है। तुम जमीन के दो प्लॉट लेने की व्यवस्था करो, लोग चाहे जो कहें, कहने दो। मेरे पक्ष या विपक्ष में समाचारपत्रों में कौन क्या लिखता है लिखने दो, तुम उसकी बिलकुल परवाह न करो। और भाई, मैं बार-बार तुमसे बिनती करता हूँ कि टोकरे भर-भरकर समाचारपत्र मुझे न भेजा करो। इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम इस शरीर को त्यागेंगे, तभी कुछ दिनों के लिए विश्राम करेंगे। भाई, तुम्हारे उस प्रचण्ड तेज से एकबार जोरदार महोत्सव कर दिखाओ। चारों ओर धूम मच जाये ! वाह बहादुर! शाबाश! प्रेम का प्रचण्ड प्रवाह परिहास करने वालों के समूह को बहा देगा। तुम हाथी हो, चींटी के काटने से तुम्हें क्या डर है?

वह अभिनन्दन-पत्र जो तुमने मुझे भेजा था, वह बहुत पहले ही मुझे मिल गया था। उसका उत्तर भी मैंने प्यारेमोहन बाबू को भेज दिया है।

हमेशा याद रखो – आँखें दो होती हैं और कान भी दो, परन्तु मुख एक ही होता है। उदासीनता, उदासीनता, उदासीनता। न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात गच्छति (श्रीमद्भगवद्गीता ६-८०) – ‘हे तात, सुकर्म करने वाला दुर्गति को कभी प्राप्त नहीं होता’, डर किसका! किनका भय रे भाई? यहाँ, मिशनरी-विशनरी सभी चिल्ला-चिल्लाकर अब मौन हो गये हैं और दुनिया भी ऐसा ही करेगी।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु।

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्॥

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा।

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

– ‘नीति में निपुण लोग चाहे प्रशंसा करें या निन्दा, लक्ष्मी चाहे अनुकूल हों या अपने मनमाने मार्ग पर जायें, चाहे मृत्यु आज आये या सैकड़ों वर्षों बाद, धैर्यवान व्यक्ति कभी न्याय के पथ से विचलिंत नहीं होते।’1

ऐरे गैरों से मिलने की कोई आवश्यकता नहीं है, न उनसे कुछ माँगने की। प्रभु सब जुटा रहे हैं और भविष्य में भी जुटायेंगे। भय किस बात का है मेरे भाई? सभी बड़े-बड़े कार्य प्रबल विध्नों के मध्य ही हुए होते हैं। हे वीर, स्मर पौरुषमात्मनः, उपेक्षितव्याः जनाः सुकृपणाः कामाकांचनवशगाः – ‘हे वीर, अपने पौरुष का स्मरण करो, कामकांचनसक्त दयनीय लोगों की उपेक्षा ही उचित है।’ अब इस देश में मैं दृढ़प्रतिष्ठ हो गया हूँ, इसलिए मुझे सहायता की आवश्यकता नहीं है। परन्तु तुम सब लोगों से मेरी एक यही प्रार्थना है कि मेरी सहायता करने की उत्सुकता में भ्रातृप्रेम के कारण तुम लोगों में जो क्रियात्मक पुरुषार्थ उत्पन्न हो गया है, उसे प्रभु के कार्य में लगाओ। जब तक तुम निश्चित रूप से न जान लो कि वह हितकर होगा, तब तक अपने मन का भेद न खोलो। बड़े से बड़े शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शब्दों का व्यवहार करो।

नाम, यश और धन के भोग की इच्छा स्वतः ही जीव में है उससे अगर दोनों पक्षों का काम चले तो सभी आग्रही होते हैं। परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य, अपि च त्रिभुवन के उपकार मात्र की इच्छा केवल महापुरुषों को ही होती है।2 इसलिए विमूढ़मति, अनात्म-दर्शी, तमसाच्छन्न-बुद्धि जीव को उसकी अपनी बालचेष्टा करने दो। गरम महसूस होने पर स्वयं ही भाग जायेंगे। चाँद पर थूकने की चेष्टा करें – ‘शुभं भवतु तेषाम्’ (उनका मंगल हो)। अगर उनमें माल हो तो उनके साफल्य में बाधा कौन डाल सकता है? लेकिन अगर ईर्ष्या के वश में होकर केवल आस्फालन भर करे तो सब निष्फल हो जायगा। हरमोहन ने जप-मालाएँ भेजी हैं। बहुत अच्छा। परन्तु तुम्हें यह जानना चाहिए कि उस प्रकार का धर्म, जो हमारे देश में प्रचलित है, यहाँ नहीं चल सकता। उसे लोगों की रुचि के अनुकूल बनाना होगा। यदि तुम उनसे हिन्दू बनने को कहोगे, तो वे तुमसे दूर भागेंगे और तुमसे द्वेष करेंगे, जैसे कि हम ईसाई धर्मोपदेशकों से करते हैं। उन्हें हिन्दू शास्त्रों के कुछ विचार प्रिय लगते हैं, बस, इतनी ही बात है, इससे अधिक कुछ नहीं। अधिकांश पुरुष धर्म के लिए माथापच्ची नहीं करते। महिलाओं को कुछ रुचि है, किन्तु अधिक मात्रा में नहीं। दो-चार हजार व्यक्तियों को अद्वैत मत में श्रद्धा है। परन्तु पोथी, जात-पाँत, स्रियों की निन्दा की बातें करो, तो वे तुमसे किनारा करेंगे। सभी काम धीरे-धीरे होते हैं। धैर्य, पवित्रता एवं अध्यवसाय।

तुम्हारा,
विवेकानन्द


  1. भर्तृहरि नीतिशतकम्।
  2. वही।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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