स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री स्वामी सारदानन्द को लिखित (6 जुलाई, 1890)
(स्वामी विवेकानंद का श्री स्वामी सारदानन्द को लिखा गया पत्र)
बागबाजार,
कलकत्ता,
६ जुलाई, १८९०
प्रिय शरत् तथा कृपानन्द,
तुम लोगों का पत्र यथासमय मिला। सुनने में आता है कि अल्मोड़े की जलवायु इसी समय सबसे अधिक स्वास्थ्यप्रद है, फिर भी तुम्हें ज्वर हो गया। आशा है कि यह ‘मलेरिया’ नहीं है। गंगाधर के बारे में तुमने जो लिखा है, वह सम्पूर्ण मिथ्या है।
उसने तिब्बत में सब कुछ खाया था, यह बात एकदम झूठ है… और अर्थ-संग्रह के बारे में तुमने जो कुछ लिखा है – वह घटना इस प्रकार है कि उदासी बाबा नामक एक व्यक्ति के लिए उसे कभी-कभी भिक्षा माँगनी पड़ती थी एवं उसे प्रतिदिन बारह आने, एक रुपया के हिसाब से उसके फलाहार की व्यवस्था करनी पड़ती थी। गंगाधर अब जान गया है कि वह एक पक्का झूठा है, क्योंकि पहले जब वह उस व्यक्ति के साथ गया था, तभी उसने उससे कहा था कि हिमालय में कितनी ही आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखने को मिलती हैं। किन्तु उन आश्चर्यजनक वस्तुओं तथा स्थानों के दर्शन न मिलने के कारण गंगाधर को यह विश्वास हो चुका था कि वह सफेद झूठ बोलने वाला व्यक्ति है, फिर भी उसने उसकी बहुत सेवा की।… इसका साक्षी है। बाबाजी के चरित्र के बारे में भी उसे पर्याप्त सन्देहास्पद कारण मिले थे। इन सब घटनाओं के कारण तथा … के साथ अन्तिम साक्षात्कार के फलस्वरूप ही वह उदासी के प्रति पूर्णतया श्रद्धाहीन हो चुका था एवं इसीलिए उदासी प्रभु का इतना क्रोध है। और पण्डे – जो कि पाजी और एकदम पशुतुल्य हैं – उनकी बातों का तुम्हें कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
मैं देख रहा हूँ कि गंगाधर अभी तक पहले की तरह कोमलमति शिशु जैसा ही है। इन भ्रमणों के फलस्वरूप उसकी चंचलता तो अवश्य कुछ घट गयी है और हमारे तथा हमारे प्रभु के प्रति उसका प्रेम बढ़ा ही है, घटा नहीं। वह निडर, साहसी, सरल तथा दृढ़निष्ठ है। केवल मात्र ऐसे एक व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसे स्वतः ही वह भक्तिभाव से अंगीकार कर सके, ऐसा होने पर वह एक बहुत ही उत्तम व्यक्ति बन सकता है।
इस बार गाजीपुर छोड़ने का मेरा विचार नहीं था और कलकत्ता आने की इच्छा तो बिल्कुल नहीं थी, किन्तु काली की बीमारी का समाचार पाकर मुझे वाराणसी जाना पड़ा एवं बलराम बाबू की आकस्मिक मृत्यु ने मुझे कलकत्ता आने को विवश किया। सुरेश बाबू तथा बलराम बाबू, दोनों ही इस लोक को त्यागकर चले गये! गिरीशचन्द्र घोष मठ का खर्च चला रहे हैं और दिन भी एक प्रकार से अच्छी तरह से बीत रहे हैं। मेरा शीघ्र ही (अर्थात् मार्ग-व्यय की व्यवस्था होते ही) अल्मोड़ा जाने का विचार है। वहाँ से गढ़वाल में गंगा -तट पर किसी स्थान में दीर्घ काल तक ध्यानमग्न रहने की अभिलाषा है; गंगाधर मेरे साथ जा रहा है। कहना न होगा कि खासकर इसीलिए मैंने उसे काश्मीर से बुला लिया है।
मैं समझता हूँ कि कलकत्ते आने के लिए तुम लोगों को इतना व्यग्र नहीं होना चाहिए। भ्रमण भी काफी हो चुका है। यद्यपि भ्रमण करना उचित है, परन्तु मैं यह देख रहा हूँ कि तुम लोगों के लिए जो सबसे अधिक आवश्यक कार्य था, उसीको तुमने नहीं किया, अर्थात् कमर कस लो एवं ध्यान के लिए जमकर बैठ जाओ। मेरी धारणा है कि ज्ञान-प्राप्ति इतनी सरल नहीं है कि मानो किसी सोती हुई युवती को यह कहकर जगा दिया गया कि उठ गोरी, तेरा ब्याह रचाया जा रहा है और वह तत्काल उठ बैठी। मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि दो-चार से अधिक व्यक्तियों को किसी भी युग में ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिए हम लोगों को अविच्छिन्न रूप से इस विषय में जुटे रहने तथा अग्रसर होने की आवश्यकता है; इसमें यदि मृत्यु का आलिंगन करना पड़े तो वह भी स्वीकार है। जानते तो हो, यही मेरा पुराना ढर्रा है। आजकल के संन्यासियों में ज्ञान के नाम पर ठगी का जो व्यापार चल रहा है, उसकी मुझे खूब जानकारी है। अतः तुम निश्चिन्त रहो तथा शक्तिशाली बनो। राखाल ने लिखा है कि दक्ष (स्वामी ज्ञानानन्द) उसके साथ वृन्दावन में है; सोना इत्यादि बनाना सीखकर वह एक पक्का ज्ञानी बन गया है! भगवान् उसे आशीर्वाद प्रदान करे तथा तुम लोग भी कहो, तथास्तु।
मेरा स्वास्थ्य अब काफी अच्छा है; और गाजीपुर में रहने से जो लाभ हुआ है, आशा है, वह कुछ समय तक अवश्य टिकेगा। जिन कार्यों को करने के विचार से मैं गाजीपुर से यहाँ आया हूँ, उनको पूरा करने में कुछ समय लगेगा। मैं यहाँ पर मानो बरैयों के छत्ते में रह रहा हूँ, ऐसा अनुभव मुझे पहले भी हुआ करता था। एक ही दौड़ में हिमालय जाने के लिए व्यग्र हो उठा हूँ। अबकी बार पवहारी बाबा या अन्य किसी साधु के समीप मुझे नहीं जाना है – वे सर्वोच्च उद्देश्य से लोगों को विचलित कर देते हैं। इसलिए एकदम ऊपर की ओर जा रहा हूँ।
अल्मोड़े की जलवायु कैसी प्रतीत हो रही है, शीघ्र लिखना। सारदानन्द, खासकर तुम्हारे आने की कोई आवश्यकता नहीं। एक जगह सबके मिलकर शोर-गुल मचाने तथा आत्मोन्नति की इतिश्री करने से क्या लाभ? मूर्ख आवारा न बनो – यह बात ठीक है, किन्तु वीर की तरह आगे बढ़ते रहो।
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥
– ‘जिनका अभिमान तथा मोह दूर हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जो आत्मज्ञाननिष्ठ हैं, जिनकी कामनाएँ विनष्ट हो चुकी हैं, जो सुखदुःखरूप द्वन्द्व से विमुक्त हो चुके हैं, ऐसे विगतमोह व्यक्ति ही उस अव्यय पद को प्राप्त करते हैं।’1
अग्नि में कूदने के लिए तुम्हें कौन कहता है? यदि यह अनुभव होता हो कि हिमालय में साधना नहीं हो रही है, तो फिर और कहीं क्यों नहीं चले जाते?
यह जो तुमने प्रश्न के बाद प्रश्न किये हैं, उनसे तुम्हारे मन की कमजोरी ही प्रकट हो रही है कि तुम वहाँ से उतर आने के लिए चंचल हो उठे हो। शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष, निरन्तर संघर्ष! अलमिति।
यहाँ पर सब कुशल है, सिर्फ बाबूराम को थोड़ा ज्वर हो गया है।
तुम्हारा ही,
विवेकानन्द
- गीता ॥१५।५॥