स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (23 जुलाई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
२३ जुलाई, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
मेरे संक्षिप्त पत्र के लिए बुरा न मानना। अब मैं पहाड़ से मैदान की ओर रवाना हो रहा हूँ। किसी एक निर्दिष्ट स्थल पर पहुँचकर तुम्हें विस्तृत पत्र लिखूँगा।
तुम्हारी इस बात का कि घनिष्ठता के बिना भी स्पष्टवादिता हो सकती है, मैं तात्पर्य नहीं समझ सका। अपनी ओर से तो मैं यह कह सकता हूँ कि प्राच्य औपचारिकता का जो भी अंश अभी तक मुझ में मौजूद है, उसका अन्तिम चिह्न तक मिटाकर बालसुलभ सरलता से बातें करने के लिए मैं सब कुछ करने को प्रस्तुत हूँ। काश, एक दिन के लिए भी स्वतन्त्रता के पूर्ण आलोक में जीने का सौभाग्य प्राप्त हो एवं सरलता की मुक्त वायु में श्वास लाने का अवसर मिले! क्या यह उच्चतम प्रकार की पवित्रता नहीं है?
इस संसार में लोगों से डरकर हम काम करते हैं, डरकर बातें करते हैं तथा डरकर ही चिन्तन करते हैं। हाय, शत्रुओं से घिरे हुए लोक में हमने जन्म लिया है! इस प्रकार की भीति से यहाँ कौन मुक्त हो सका है कि जैसे प्रत्येक वस्तु गुप्तचर की तरह उसका पीछा कर रही हो? और जो जीवन में अग्रसर होना चाहता है, उसके भाग्य में दुर्गति लिखी हुई है। क्या यह संसार कभी मित्रों से पूर्ण होगा? कौन जानता है? हम तो केवल प्रयत्न कर सकते हैं।
कार्य प्रारम्भ हो गया है तथा इस समय दुर्भिक्ष-निवारण ही हमारे लिए प्रधान कर्तव्य है। अनेक केन्द्र स्थापित हो चुके हैं एवं दुर्भिक्ष-सेवा, प्रचार तथा साधारण शिक्षा-प्रदान की व्यवस्था की गयी है। यद्यपि अभी तक कार्य अत्यन्त नगण्य रूप से ही हो रहा है, फिर भी जिन युवकों को शिक्षा दी जा रही है, आवश्यकतानुसार उनसे काम लिया जा रहा है। इस समय मद्रास तथा कलकत्ता ही हमारे कार्य-क्षेत्र हैं। श्री गुडविन मद्रास में कार्य कर रहा है। कोलम्बो में भी एक व्यक्ति को भेजा गया है। यदि अभी तक तुम्हें कार्य-विवरण नहीं भेजा गया हो तो आगामी सप्ताह से सम्पूर्ण कार्यों का एक मासिक विवरण तुमको भेजा जायगा। मैं इस समय कार्यक्षेत्र से दूरी पर हूँ, इससे सभी कार्य कुछ शिथिलता से चल रहे हैं, यह तुम देख ही रही हो; किन्तु साधारणतया कार्य सन्तोषजनक है।
यहाँ न आकर इंग्लैण्ड से ही तुम हमारे लिए अधिक कार्य कर सकती हो। दरिद्र भारतवासियों के कल्याणार्थ तुम्हारे विपुल आत्म-त्याग के लिए भगवान् तुम्हारा मंगल करें!
तुम्हारे इस मन्तव्य को मैं भी मानता हूँ कि मेरे इंग्लैण्ड जाने पर वहाँ का कार्य बहुत कुछ सजीव हो उठेगा। फिर भी यहाँ का कर्म-चक्र जब तक चालू न हो और मुझे विश्वास न हो जाये कि मेरी अनुपस्थिति में कार्य-संचालन करने वाले और भी व्यक्ति हैं, मेरे लिए भारत छोड़ना उचित न होगा। जैसा कि मुसलमान कहते हैं, ‘खुदा की मर्जी से’ कुछ एक माह में ही उसकी व्यवस्था हो जायगी। मेरे अन्यतम श्रेष्ठ कार्यकर्ता खेतड़ी के राजा साहब इस समय इंग्लैण्ड में हैं। आशा है कि वे शीघ्र ही भारत वापस आएँगे एवं अवश्य ही मेरे विशेष सहायक होंगे।
अनन्त प्यार तथा आशीर्वाद सहित,
तुम्हारा,
विवेकानन्द