स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (25 अगस्त, 1898)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
काश्मीर,
२५ अगस्त, १८९८
प्रिय मार्गट,
गत दो महीनों से मैं आलसी की तरह दिन बिता रहा हूँ। भगवान् की दुनिया में जिसे उज्ज्वल सौन्दर्य की पराकाष्ठा मानी जाती है, उसके अन्दर होकर प्रकृति के इस नैसर्गिक उद्यान में – जहाँ पृथ्वी, वायु, भूमि, तृण, गुल्मराजि, वृक्षश्रेणी पर्वतमालाएँ, हिमराशि एवं नरदेह के कम से कम बाहरी हिस्सों में भगवत्सौन्दर्य अभिव्यक्त हो रहा है – मनोहर झेलम के वक्षस्थल पर नाव में तैर रहा हूँ। वही मेरा मकान है और मैं प्रायः काम से मुक्त हूँ – यहाँ तक कि लिखना-पढ़ना भी नहीं जैसा है; जब जैसा मिल रहा है, उसीसे उदरपूर्ति की जा रही है – मानो रिप वान-विंकल के साँचे में ढला हुआ जीवन है!…
कार्य के बोझ से अपने को समाप्त न कर डालना। उससे कोई लाभ होने का नहीं; सदा यह ख्याल रखना कि – ‘कर्तव्य मानो मध्याह्नकालीन सूर्य है – उसकी तीव्र किरणों से जीवनी शक्ति क्षीण हो जाती है।’ साधना की ओर से उसका मूल्य अवश्य है – उससे अधिक अग्रसर होने पर वह एक दुःस्वप्न मात्र है। चाहे हम जागतिक कार्यों में हाथ बटावें अथवा नहीं, जगत् तो अपनी चाल से चलता ही रहेगा। मोहान्धकार में केवल हम अपने को चकनाचूर कर डालते हैं। एक प्रकार की भ्रान्त धारणा निःस्वार्थ भाव का चेहरा लगाकर उपस्थित होती है; किन्तु सब प्रकार के अन्याय के सम्मुख नतमस्तक होकर अन्त में वह दूसरों का अनिष्ट ही करती है। अपने निःस्वार्थ भाव से दूसरों को स्वार्थी बनाने का हमारा कोई अधिकार नहीं है – क्या ऐसा अधिकार हमें प्राप्त है?
तुम्हारा,
विवेकानन्द