स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (3 जून, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
३ जून, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
… जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। मैंने बहुत से स्वदेशवासियों को जाग्रत कर दिया है, और यही मैं चाहता था। अब जो कुछ होना है, होने दो; कर्म के नियम को अपनी गति के अनुसार चलने दो। मुझे यहाँ इस लोक में कोई बन्धन नहीं है। मैंने जीवन देखा है और वह सब स्वार्थ के लिए है – जीवन स्वार्थ के लिए, प्रेम स्वार्थ के लिए, मान स्वार्थ के लिए, सभी चीजें स्वार्थ के लिए। मैं पीछे दृष्टि डालता हूँ तो यह नहीं पाता कि मैंने कोई भी कर्म स्वार्थ के लिए किया है। यहाँ तक कि मेरे बुरे कर्म भी स्वार्थ के लिए नहीं थे। अतएव मैं संतुष्ट हूँ; यह बात नहीं कि मैं समझता हूँ कि मैंने कोई विशेष महत्त्वपूर्ण या अच्छा कार्य किया है, परन्तु संसार इतना क्षुद्र है, जीवन इतना तुच्छ और जीवन में इतनी, इतनी विवशता है – कि मैं मन ही मन हँसता हूँ और आश्चर्य करता हूँ कि मनुष्य, जो कि विवेकी जीव है, इस क्षुद्र स्वार्थ के पीछे भागता है – ऐसी कुत्सित एवं घृणित वस्तु के लिए लालायित रहता है।
यही सत्य है। हम एक फन्दे में फँस गए हैं, और जितनी जल्दी उससे निकल सकेगे, उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा। मैंने सत्य का दर्शन कर लिया है – अब यदि यह शरीर ज्वार-भाटे के समान बहता है तो मुझे क्या चिन्ता!
जहाँ मैं अभी रह रहा हूँ, वह एक सुन्दर पहाड़ी उद्यान है। उत्तर में, प्रायः क्षितिज पर्यन्त विस्तृत हिमाच्छादित हिमालय के शिखर पर शिखर दिखायी देते हैं। वे सघन वन से परिपूर्ण हैं। यहाँ न ठंड है, न अधिक गर्मी; प्रातः और सायं अत्यन्त मनोहर है। मैं गर्मी में यहाँ रहूँगा और वर्षा के आरम्भ में काम करने नीचे जाना चाहता हूँ।
मैंने विद्यार्थी जीवन के लिए जन्म लिया था – एकान्त और शान्ति से अध्ययन में लीन होने के लिए। किन्तु जगदम्बा का विधान दूसरा ही है। फिर भी वह प्रवृत्ति अभी भी है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द