स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (5 मई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
आलमबाजार मठ, कलकत्ता,
५ मई, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
तुम्हारे अत्यन्त स्नेहयुक्त तथा उत्साहपूर्ण पत्र ने मेरे हृदय में जो शक्ति-संचार किया है, वह तुम स्वयं भी नहीं जानती हो।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन को पूर्ण निराशा में डुबो देने वाले ऐसे अनेक क्षण जीवन में आते हैं, खासकर उस समय जब किसी उद्देश्य को सफल बनाने के लिए जीवनभर प्रयास करने के बाद सफलता का क्षीण प्रकाश दिखायी देने लगा हो, ठीक उसी समय कोई प्रचण्ड सर्वस्वनाशकारी आघात उपस्थित हो जाय। दैहिक अस्वस्थता की ओर मैं विशेष ध्यान नहीं देता, मुझे तो दुःख इस बात का है कि मेरी योजनाओं को कार्य में परिणत करने का कुछ भी अवसर मुझे प्राप्त नहीं हुआ। और तुम्हें यह विदित है कि इसका मूल कारण धन का अभाव है।
हिन्दू लोग जुलूस निकाल रहे हैं तथा और भी न जाने क्या क्या कर रहे हैं; किन्तु वे आर्थिक सहायता नहीं कर सकते। जहाँ तक आर्थिक सहायता का प्रश्न है, वह तो मुझे दुनिया में एकमात्र इंग्लैड़ की कुमारी स – तथा श्री स – से ही मिली है।… जब मैं वहाँ था, तब मेरी यह धारणा थी कि एक हजार पौंड प्राप्त होने पर ही कम से कम कलकत्ते में प्रधान केन्द्र स्थापित किया जा सकेगा; किन्तु यह अनुमान मैंने दस-बारह वर्ष पहले की अपनी कलकत्ता सम्बन्धी धारणा के आधार पर किया था। परन्तु इस अरसे में महंगाई तीन-चार गुनी बढ़ चुकी है।
जो भी कुछ हो, कार्य प्रारम्भ हो चुका है। एक टूटा-फुटा पुराना छोटा मकान छः-सात शिलिंग किराये पर लिया गया है। जिसमें लगभग चौबीस युवक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। स्वास्थ्य सुधार के लिए मुझे एक माह तक दार्जिलिंग रहना पड़ा था। तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि मैं पहले की अपेक्षा बहुत कुछ स्वस्थ हूँ। और, क्या तुम्हें विश्वास होगा, बिना किसी प्रकार की औषधि सेवन किए केवल इच्छा-शक्ति के प्रयोग द्वारा ही? कल मैं फिर एक पहाड़ी स्थान की ओर रवाना हो रहा हूँ, क्योंकि इस समय यहाँ पर अत्यन्त गर्मी है। मेरा विश्वास है कि तुम लोगों की ‘समिति’ अब भी चालू होगी। यहाँ के कार्यों का विवरण मैं प्रायः प्रतिमास तुम्हें भेजता रहूँगा। ऐसा सुना जा रहा है कि लन्दन का कार्य ठीक-ठीक नहीं चल रहा है और इसीलिए मैं इस समय लन्दन जाना नहीं चाहता, हालाँकि ‘जयंती’ उत्सव के उपलक्ष्य में लन्दन जाने वाले हमारे कुछ-एक राजाओं ने मुझे अपना साथी बनाने के लिए प्रयत्न किया था, किन्तु वहाँ जाने पर वेदान्त की ओर लोगों की रुचि बढ़ाने के लिए मुझे पुनः अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता और उसका असर मेरे स्वास्थ्य के लिए विशेष हानिकर होता।
फिर भी निकट भविष्य में एकाध महीने के लिए मैं वहाँ जा सकता हूँ। बस, यहाँ के कार्यों को शुरू होते हुए मैं देख सकता तो कितने आनन्द और स्वतंत्रता से बाहर भ्रमण करने निकल पड़ता!
यहाँ तक तो कार्यों की चर्चा हुई। अब मुझे तुम्हारे बारे में कुछ कहना है। प्रिय कुमारी नोबल, तुम्हारे अन्दर जो ममता, निष्ठा, भक्ति तथा गुणज्ञता विद्यमान है, यदि वह किसी को प्राप्त हो तो वह जीवनभर चाहे जितना भी परिश्रम क्यों न करें, इन गुणों के द्वारा ही उसे उसका सौगुना प्रतिदान मिल जाता है। तुम्हारा सर्वांगीण मंगल हो! मेरी मातृभाषा में जैसा कहा जाता है, मैं यह कहना चाहूँगा कि ‘मेरा सारा जीवन तुम्हारे सेवार्थ प्रस्तुत है।’
तुम्हारे तथा इंग्लैण्ड स्थित अन्यान्य मित्रों के पत्रों के लिए मैं सदैव अत्यन्त उत्सुक रहता हूँ और भविष्य में भी ऐसा ही उत्सुक रहूँगा। श्री तथा श्रीमती हैमण्ड के अत्यन्त सुन्दर तथा स्नेहपूर्ण जो पत्र मुझे प्राप्त हुए हैं और इसके अलावा श्री हैमण्ड ने ‘ब्रह्मवादिन्’ पत्रिका में मेरे लिए एक सुन्दर कविता भी लिखी है, यद्यपि मैं कतई उसके योग्य नहीं हूँ। हिमालय से पुनः मैं तुम्हें पत्र लिखूँगा; उत्तप्त मैदानों की अपेक्षा वहाँ पर हिमशिखरों के सम्मुख विचार स्पष्ट एवं स्नायु अधिक शान्त होंगे। कुमारी मूलर इसी बीच अल्मोड़ा पहुँच चुकी हैं। श्री तथा श्रीमती सेवियर शिमला जा रहे हैं। अब तक वे दार्जिलिंग में थे। देखो मित्र, इसी तरह से जागतिक घटनाओं का परिवर्तन हो रहा है – एकमात्र प्रभु ही निर्विकार तथा प्रेमस्वरूप हैं। तुम्हारे हृदयसिंहासन पर वे चिराधिष्ठित हों – विवेकानन्द की यही निरन्तर प्रार्थना है।