स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी अखण्डानन्द को लिखित (1894)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी अखण्डानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
१८९४
प्रिय अखण्डानन्द,
तुम्हारा पत्र पाकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। मेरे लिए यह बड़े हर्ष की बात हैं कि खेतड़ी में रहकर तुमने अपने स्वास्थ्य को बहुत कुछ ठीक कर लिया है।
तारक दादा ने मद्रास में बहुत काम किया है। निश्चय ही यह बड़ा आनन्ददायक समाचार है। मैंने मद्रास के लोगों से उनकी बड़ी प्रशंसा सुनी है। लखनऊ से राखाल और हरि का पत्र मिला, वे सकुशल हैं। शशि के पत्र से मठ के सब समाचार मालूम हुए।…
राजपूताने के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले ठाकुरों में आध्यात्मिकता और परोपकार के भाव जाग्रत करने का प्रयत्न करो। हमें काम करना है और काम आलस्य में बैठे-बैठे नहीं हो सकता। मलसिसर, अलसिसर और वहाँ के जो दूसरे ‘सर’ हैं, उनके यहाँ हो आया करो। और मन लगाकर संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन करो। मैं अनुमान करता हूँ कि गुणनिधि पंजाब में होगा। उसे मेरा विशेष प्रेम लिख भेजना और उसे खेतड़ी बुला लेना। उसकी सहायता से तुम संस्कृत पढ़ो और उसे अंग्रेजी पढ़ाओ। जैसे भी हो, उसका पता मुझे अवश्य लिखना। गुणनिधि है अच्युतानन्द सरस्वती।…
खेतड़ी नगर की गरीब और नीच जातियों के घर-घर जाओ और उन्हें धर्म का उपदेश दो। उन्हें भूगोल तथा अन्य इसी प्रकार के विषयों की मौखिक शिक्षा भी दो। निठल्ले बैठे रहने और राजभोग उड़ाने तथा ‘हे प्रभु रामकृष्ण’ कहने से कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक कि गरीबों का कुछ कल्याण न करो। बीच बीच में दूसरे गाँवों में भी जाकर धर्मोपदेश करो, तथा जीवन-यापन की शिक्षा दो। कर्म उपासना और ज्ञान – पहले कर्म, उससे तुम्हारा मन शुद्ध हो जाएगा, नहीं तो सब चीजें निष्फल होंगी, जैसे कि यज्ञ की अग्नि में आहुति देने के बदले राख के ढेर पर देने से होती है। जब गुणनिधि आ जाए, तब राजपूताने के प्रत्येक गाँव में गरीबों और कंगालों के दरवाजे दरवाजे घूमो। जिस प्रकार का भोजन तुम लोग करते हो, उसमें यदि लोगों को आपत्ति हो, तो उसे तुरन्त त्याग दो। लोक-हित के लिए घास खाना भी अच्छा है। गेरुआ वस्त्र भोग के लिए नहीं है, यह वीर कार्य का झंडा है। अपने तन, मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो। तुमने पढ़ा है, मातृदेवो भव, पितृदेवो भव – ‘अपनी माता को ईश्वर समझो, अपने पिता को ईश्वर समझो’ – परन्तु मैं कहता हूँ दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव – गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुःखी, इन्हें अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम धर्म समझो। किमधिकमिति।
आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द