स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी अखण्डानन्द को लिखित (10 अक्टूबर, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी अखण्डानन्द को लिखा गया पत्र)
मरी,
१० अक्टूबर, १८९७
प्रिय अखण्डानन्द,
तुम्हारा पत्र पाकर मुझे हर्ष हुआ। इस समय तुम्हें बड़े-बड़े कामों का विचार करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु जो वर्तमान परिस्थिति में सम्भव है उतना ही करो। धीरे-धीरे तुम्हारे लिए मार्ग खुल जायगा। अनाथालय अवश्य होना चाहिए, इसमें कोई सोच-विचार की बात नहीं है। बालिकाओं को भी हम आपत्ति में नहीं छोड़ सकते। परन्तु बालिका-अनाथालय के लिए हमें एक स्त्री पदाधिकारी की आवश्यकता होगी। मैं समझता हूँ कि माँ – उसके लिए सुयोग्य होगी। या गाँव की किसी सन्तानहीन विधवा को इस काम में लगाओ और लड़के-लड़कियों के रहने का स्थान पृथक् होना चाहिए। कैप्टन सेवियर इस काम की सहायता के लिए धन भेजने को तैयार हैं। नेडोस होटल, लाहौर – यह उनका पता है। यदि तुम उन्हें लिखो तो ये शब्द भी पत्र के ऊपर लिख देना, ‘आने की प्रतीक्षा की जाय।’ मैं शीघ्र ही रावलपिण्डी जाने वाला हूँ, कल या परसों। तब मैं जम्मू होता हुआ लाहौर तथा दूसरे स्थानों को देखता हुआ कराची होकर राजपूताना लौटूँगा। मैं अच्छा हूँ।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च – तुम्हें मुसलमान लड़कों को भी ले लेना चाहिए; परन्तु उनके धर्म को कभी दूषित न करना। तुम्हें केवल यही करना होगा कि उनके भोजन आदि का प्रबन्ध अलग कर दो ओर उन्हें शुद्धाचरण, पुरुषार्थ और परहित में श्रद्धापूर्वक तत्परता की शिक्षा दो। यह निश्चय ही धर्म है।
अपने उलझने वाले दार्शनिक विचारों को कुछ समय के लिए अलग रख दो।
इस समय हमारे देश में पुरुषार्थ और दया की आवश्यकता है। स ईशः अनिर्वचनीयप्रेमस्वरूपः – ‘ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेम का स्वरूप है।’ परन्तु प्रकाश्यते क्वापि पात्रे – ‘विशेष पात्रों में उसका प्रकाश होता है;’ यह कहने के बदले, ‘स प्रत्यक्ष एव सर्वेषां प्रेमरूपः’ – ‘वह सब जीवों में प्रेमरूप से सतत अभिव्यक्त है,’ यह कहना चाहिए। इसे छोड और किस ईश्वर की – जिसे कि तुम्हारे मन ने ही निर्माण किया है – तुम पूजा करोगे? वेद, कुरान, पुराण और सब शास्त्रों को कुछ समय के लिए विश्राम करने दो – मूर्तिमान ईश्वर जो प्रेम और दया स्वरूप है, उसकी उपासना देश में होने दो। भेद के सब भाव बंधन हैं और अभेद के मुक्ति। विषयों के मद से मतवाले संसारी जीवों के शब्दों से मत डरो। अभीरभीः – ‘निर्भय बनो।’ ‘मनुष्य नहीं, कीड़े!’ सब धर्मों के लड़कों को लेना – हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या कुछ भी हों, परन्तु धीरे-धीरे आरम्भ करना – अर्थात् यह ध्यान रखना कि उनका खान-पान अलग हो, तथा धर्म की सार्वभौमिकता का ही केवल उन्हें उपदेश देना।
इस भाव में पागल हो जाओ, तथा औरों को भी बना दो! इस जीवन का और कुछ उद्देश्य नहीं है। प्रभु के नाम का प्रचार करो, संसार की रग-रग में उनकी शिक्षा को भिद जाने दो। कभी न भूलो। अपने दैनिक कार्य करते हुए, अन्तरात्मा में निरन्तर इस मन्त्र का जप करते रहो।
तुम्हारा,
वि.