स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (10 जुलाई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
अल्मोड़ा,
१० जुलाई, १८९७
अभिन्नहृदयेषु,
हमारी संस्था के उद्देश्य का पहला प्रूफ मैंने संशोधित करके आज तुम्हारे पास वापस भेजा है। उसके नियम वाले अंश (जो हमारी संस्था के सदस्यों ने पढ़े थे) अशुद्धियों से भरे हैं। उसे सावधानी से ठीक करके छपवाना, नहीं तो लोग हँसेंगे।
… बहरमपुर में जैसा काम हो रहा है वह बहुत ही अच्छा है। इसी प्रकार के कामों की विजय होगी – क्या मात्र मतवाद और सिद्धान्त हृदय को स्पर्श कर सकते हैं? कर्म, कर्म – आदर्श जीवन यापन करो – सिद्धान्तों और मतों का क्या मूल्य? दर्शन, योग और तपस्या – पूजागृह – अक्षत चावल या शाक का भोग – यह सब व्यक्तिगत अथवा देशगत धर्म है। किन्तु दूसरों की भलाई और सेवा करना एक महान् सार्वलौकिक धर्म है। आबालवृद्धवनिता, चाण्डाल – यहाँ तक कि पशु भी इस धर्म को ग्रहण कर सकते हैं। क्या मात्र किसी निषेधात्मक धर्म से काम चल सकता है? पत्थर कभी अनैतिक कर्म नहीं करता, गाय कभी झूठ नहीं बोलती, वृक्ष कभी चोरी या डकैती नहीं करते, परन्तु इससे होता क्या है? माना कि तुम चोरी नहीं करते, न झूठ बोलते हो, न अनैतिक जीवन व्यतीत करते हो, बल्कि चार घंटे प्रतिदिन ध्यान करते हो, और उसके दुगुने घंटे तक भक्तिपूर्वक घंटी बजाते हो – परन्तु अन्त में इसका उपयोग क्या है? वह कार्य यद्यपि थोड़ा ही है, परन्तु सदा के लिए बहरमपुर तुम्हारे चरणों पर नत हो गया है – जैसा तुम चाहते हो वैसा ही लोग करेंगे। अब तुम्हें लोगों से यह तर्क नहीं करना पड़ेगा कि ‘श्रीरामकृष्ण भगवान् हैं।’ काम के बिना केवल व्याख्यान क्या कर सकता है! क्या मीठे शब्दों से रोटी चुपड़ी जा सकती है? यदि तुम दस जिलों में ऐसा कर सको तो वे दसों तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएँगे। इसलिए समझदार लड़के की तरह इस समय अपने कर्मविभाग पर ही सबसे ज्यादा जोर दो और उसकी उपयोगिता को बढ़ाने की प्राण-पण से चेष्टा करो। कुछ लड़कों को द्वारद्वार जाने के लिए संगठित करो और अलखिया साधुओं के समान उन्हें जो मिले वह लाने दो – धन, पुराने वस्त्र, या चावल या खाद्य पदार्थ या और जो कुछ भी मिले। फिर उसे बाँट दो। वास्तव में यही सच्चा कार्य है। इसके बाद लोगों को श्रद्धा होगी और फिर तुम जो कहोगे वे करेंगे।
कलकत्ते की बैठक के खर्च को पूरा करने के बाद जो बचे उसे दुर्भिक्ष-पीड़ितों की सहायता के लिए भेज दो या जो अगणित दरिद्र कलकत्ते की मैली-कुचैली गलियों में रहते हैं, उनकी सहायता में लगा दो – स्मारक-भवन और इस प्रकार के कार्यों का विचार त्याग दो। प्रभु जो अच्छा समझेंगे वह करेंगे। इस समय मेरा स्वास्थ्य अति उत्तम है।
उपयोगी सामग्री तुम क्यों नहीं एकत्र कर रहे हो? – मैं स्वयं वहाँ आकर पत्रिका आरम्भ करूँगा। प्रेम और सहानुभूति से सारा संसार खरीदा जा सकता है; व्याख्यान, पुस्तकें और दर्शन का स्थान इनसे नीचा है।
कृपया शशि को लिखो कि गरीबों की सेवा के लिए इसी प्रकार का एक कर्मविभाग वह भी खोले।
पूजा का खर्च घटाकर एक या दो रुपये महीने पर ले आओ। प्रभु की सन्तानें भूख से मर रही हैं। केवल जल और तुलसी-पत्र से पूजा करो और उसके भोग के निमित्त धन को उस जीवित प्रभु के भोजन में खर्च करो, जो दरिद्रों में वास करता है। तभी प्रभु की सब पर कृपा होगी। योगेन यहाँ अस्वस्थ रहा, इसलिए आज वह कलकत्ते के लिए रवाना हो गया है। मैं कल देवलधार फिर जाऊँगा। तुम सभी को मेरा प्यार।
सस्नेह,
विवेकानन्द