स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (1894)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)

नमो भगवते श्रीरामकृष्णाय
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९४

प्राणाधिकेषु,

तारक दादा और हरि का पहला पत्र अब मिला। उससे मालूम हुआ कि वे लोग कलकत्ता आ रहे हैं। मेरे पूर्व पत्र से सभी ज्ञात हुए हो। रामदयाल बाबू का भी पत्र मिला, तदनुसार फोटो भेजूँगा। माता जी के लिए जमीन खरीदना होगा। फिलहाल मिट्टी का ही मकान हो, बाद में देखा जायगा। लेकिन जमीन बड़ी होनी चाहिए। किस तरह किसको रुपया भेजूँगा, लिखना। तुममें से कोई विषय कर्म का भार सँभालो।… विमला (कालीकृष्ण ठाकुर के दामाद) ने एक लम्बी चिट्ठी भेजी है कि उन्हें हिन्दू धर्म में बहुत ज्ञान प्राप्त हो गया है। प्रतिष्ठा से बचने के लिए मुझे बहुत सारे सुन्दर उपदेश दिये हैं और अपने गुरु शशि बाबू की लिखी एक पुस्तक भेजी है; उसमें सूक्ष्म तत्व की वैज्ञानिक व्याख्या की गयी है। विमला की इच्छा है कि इस देश से पुस्तक छपाने की सहायता मिल जाय। इसका मेरे पास कोई उपाय नहीं। क्योंकि ये लोग बंगला बिल्कुल नहीं जानते। फिर ईसाई लोग हिन्दु धर्म की सहायता क्यों करेंगे? अब विमला को सहज ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ है : पृथ्वी में हिन्दू श्रेष्ठ हैं और उनमें भी ब्राह्मण! और इन ब्राह्मणों में भी विमला और शशि – इन दोनों के अलावा दूसरे कोई धर्म-लाभ नहीं कर सकते। धर्म क्या अभी भारत में रह गया है, भाई? ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, सबका पलायन। और अब बचा है केवल छुआछूत-मार्ग – ‘मुझे मत छुओ’, ‘मुझे मत छुओ।’ सारा संसार अपवित्र है, मैं ही केवल शुद्ध हूँ! सहज ब्रह्मज्ञान! वाह! हे भगवन्! आजकल ब्रह्म न तो हृदय-कन्दर में है, न गोलोक में और न सब जीवों में – अब वह भात की हाँड़ी में है! पहले महत् का लक्षण था – त्रिभुवन-मुपकारश्रेणिभिः प्रीयमाणः – ‘सेवा के अनेक कामों से तीनों लोकों को प्रसन्न रखना’, परन्तु अब है – मैं पवित्र हूँ और सब संसार अपवित्र, – रुपये लाओ, धरो मेरे पैरों के नीचे।… जिन महापुरुष ने मुझसे अपने कर्मकोलाहल बन्द करके घर लौटने के लिए लिखा है उनसे कहना कि कुत्ते की तरह किसी के पैर चाटना मेरा स्वभाव नहीं है। उससे कहो कि अगर वह मर्द है, तो मठ बनाकर फिर मुझे बुलाये। अन्यथा मैं किसके घर में लौट आऊँ? यह देश ही मेरा घर है – भारत में क्या रखा है? वहाँ धर्म का आदर कौन करता है? विद्या का सम्मान कौन करता है? घर वापस आओ!!! घर कहाँ है?

इस बार ऐसे महोत्सव करो कि जैसे पहले कभी न हुआ हो। मैं एक ‘परमहंस महाशय का जीवन चरित’ लिख भेजूँगा। उसे छपवा कर तथा अनुवाद कराकर बेचोगे। मुफ्त वितरण करने पर लोग पढ़ते नहीं हैं, कुछ दाम लेना। कोलाहल का अन्त!!! अभी तो आरम्भ ही हुआ है। मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः – (‘वसन्त की तरह लोक का हित करते हुए’) – यही मेरा धर्म है। मैं आलसी, निष्ठुर, निर्दय और स्वार्थी मनुष्यों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। जिसके भाग्य में होगा, वह इस महाकार्य में सहायता कर सकता है।… सावधान! सावधान! यह सब क्या बच्चों का खेल है? सपना है?… भाई, एक बार कमर कसके काम में जुट जाओ।… तुम लोग मनुष्य बनो।… समाचार-पत्र भेजने की अब आवश्यकता नहीं। यही ढेर लग गया है। तुममें से किसी में संगठन-शक्ति नहीं है। बड़े दुःख की बात है। सबको मेरा प्यार कहना, मैं सबकी सहायता चाहता हूँ, खबरदार! किसी से झगड़ा न करना। याद रखो कि न धन का कोई मूल्य है, न नाम का, न यश का, न विद्या का-केवल चरित्र ही कठिनाइयों के दुर्भेद्य पत्थर की दीवारों में से गुजर सकता है। लोगों के मतामत की अवहेलना न करना उससे वे बड़े ही क्रुद्ध हो जाते हैं। स्थान स्थान पर केन्द्र स्थापित करना होगा। यह तो बड़ा आसान है। जहाँ-जहाँ तुम लोग जाओगे, वहीं वहीं एक केन्द्र स्थापित कर दोगे। इसी तरह काम होगा। जहाँ भी पाँच लोग उन्हें मानते हों, वहीं एक डेरा बनाओ। ऐसे ही करते रहो और सभी से पत्र-व्यवहार बनाये रखो।

सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!
Exit mobile version