स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (1895)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
१८९५
प्रिय राखाल,
… मेरे भारत लौट आने का तुम्हारा सुझाव निस्सन्देह ठीक है। किन्तु इस देश में एक बीज बोया जा चुका है और मेरे अचानक यहाँ से चले जाने पर सम्भव है, उसका अंकुर पनप ही न पाये। इसलिए मुझे कुछ समय प्रतीक्षा करनी है। इसके अतिरिक्त तब यहाँ से प्रत्येक कार्य की सुन्दर व्यवस्था करनी सम्भव होगी। प्रत्येक व्यक्ति मुझसे भारत लौटने का आग्रह करता है। यह ठीक है, किन्तु क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढ़तापूर्वक खड़ा होकर कार्य करना चाहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जायगा। अभी तो किसी जमीन का पता लगाते रहना न भूलना। हमें लगभग दस से बीस हजार तक का बड़ा ‘प्लाट’ चाहिए। उसे ठीक गंगा तट पर होना चाहिए। यद्यपि मेरी पूँजी अल्प है, तथापि मैं अत्यधिक साहसी हूँ। भूमि प्राप्त करने की बात ध्यान में रहे। अभी हमें तीन केन्द्र चलाने होंगे – एक न्यूयार्क में, दूसरा कलकत्ता में और तीसरा मद्रास में। फिर धीरे धीरे जैसी कि प्रभु व्यवस्था करेंगे…स्वास्थ्य पर तुम्हें विशेष ध्यान देना है, अन्य सभी बातें इसके अधीन हों।
भाई तारक यात्रा के लिए उत्सुक हैं। यह अच्छी बात है। परन्तु ये देश बड़े मँहगे हैं। एक उपदेशक को यहाँ कम से कम एक हजार रुपये मासिक की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु भाई तारक में साहस है और ईश्वर प्रत्येक चीज की व्यवस्था करता है। यह बिल्कुल सच है, पर उन्हें अपनी अंग्रेजी में कुछ सुधार करना आवश्यक है। सही बात यह है कि मिशनरी विद्वानों के मुँह से अपनी रोटी छीननी पड़ती है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अपनी विद्वत्ता के आधार पर इन लोगों पर हावी होना पड़ता है। अन्यथा व्यक्ति एक ही फूँक में उड़ जायगा। ये लोग न तो साधु समझते हैं और न संन्यासी, और न त्याग का भाव ही। जो बात ये समझते हैं, वह हैं विशाल अध्ययन, वक्तृत्व-शक्ति का प्रदर्शन और अथक क्रियाशीलता। और सर्वोपरि, सारा देश छिद्रान्वेषण की चेष्टा करेगा। पादरी चाहे शक्ति द्वारा, चाहे छल से दिन-रात तुम्हें फटकार बतायेंगे। अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए तुम्हें इन बाधाओं से मुक्ति पाना आवश्यक है। मातृकृपा से सब कुछ सम्भव है। किन्तु मेरी राय में यदि भाई तारक पंजाब और मद्रास में कुछ संस्थाओं का स्थापन करता चले और तुम लोग संघबद्ध हो जाओ, तो यह सबसे अच्छी बात होगी। नये पथ की खोज निस्सन्देह एक बड़ी बात है, किन्तु उस मार्ग को स्वच्छ और प्रशस्त और सुन्दर बनाना उतना ही कठिन कार्य है। यदि तुम उन स्थानों में, जहाँ मैने गुरूदेव के आदर्शों का बीज बोया है, कुछ समय तक रहो और बीजों को पौधों में विकसित करने में सफल होओ, तो तुम मेरी अपेक्षा कहीं अधिक कार्य करोगे। जो लोग एक बनी-बनायी चीज की व्यवस्था नहीं कर सकते, वे उस चीज के प्रति, जो अभी तक नहीं मिली, क्या कर सकेंगे? यदि तुम परोसी हुई थाली में थोड़ा नमक मिलाने में असमर्थ हो, तो मैं कैसे विश्वास करूँ कि तुम सारे व्यंजन प्रस्तुत कर लोगे? इसके बदले भाई तारक अल्मोड़े में एक हिमालय मठ स्थापित करें तथा वहाँ एक पुस्तकालय चलायें, ताकि हम अपने अवकाश का कुछ समय एक ठण्डे स्थान में बितायें और आध्यात्मिक साधना का अभ्यास करें। इतने पर भी किसीके द्वारा अंगीकृत किये गये मार्ग के विरूद्ध मुझे कुछ नहीं कहना है, वरन ईश्वर कल्याण करे – शिवा वः सन्तु पन्थानः – ‘तुम्हारी यात्रा मंगलमय हो!’ उसे किंचित् प्रतीक्षा करने के लिए कहो। शीघ्रता करने से क्या लाभ? तुम सभी सारी दुनिया की यात्रा करोगे। साहस! भाई तारक के भीतर कार्य करने की महान् क्षमता है। अतः मै उनसे बहुत आशा करता हूँ।… तुम्हें याद है कि श्रीरामकृष्ण के निर्वाण के पश्चात् किस प्रकार सभी लोगों ने हमें कुछ निकम्मा और दरिद्र बालक समझकर हमारा परित्याग कर दिया था। केवल बलराम, सुरेश, मास्टर और चुनी बाबू, जैसे लोग ही आवश्यकता के उन क्षणों में हमारे मित्र थे। और, हम उनसे कभी उऋण नहीं हो सकते।… अकेले में चुनी बाबू से कहो कि उनके लिए कोई भय की बात नहीं है, जिनकी रक्षा प्रभु करते हैं, उन्हें भय से परे होना चाहिए। मैं एक छोटा सा आदमी हूँ, परन्तु प्रभु का ऐश्वर्य अनन्त है। माभैः माभैः – भय छोड़ो। तुम्हारा विश्वास न हिले।… जिसे प्रभु ने अपना लिया है, क्या उसके लिए भय में कोई शक्ति है?
सदा तुम्हारा ही,
विवेकानन्द