स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र (1895)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय

१८९५

प्राणाधिक,

समाचारपत्र आदि अब बहुत कुछ इकट्ठे हो चुके हैं, और भेजने की आवश्यकता नहीं है। अब भारत में ही आन्दोलन चलने दो।…

प्रत्येक दिन सनसनी फैलाना कोई विशेष लाभकारक नहीं है। किन्तु यह जो सारे देश में उत्तेजना फैल रही है, इसीके आधार पर तुम लोग चारों ओर फैल जाओ अर्थात् जगह जगह शाखाएँ स्थापित करने का प्रयत्न करो। मौका ख़ाली न जाने पाये। मद्रासियों से मिलकर जगह जगह समिति आदि की स्थापना करनी होगी। उस पत्रिका के विषय में क्या हुआ, जो मैंने सुना था कि प्रकाशित होने जा रही है। इसको चलाने में तुम लोग क्यों घबड़ा रहे हो?…आगे बढ़ो। अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति नहीं मिली, तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े, तो हानि ही क्या है? क्या यह बात असत्य है?

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

परगुणपरमाणुं पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तःसन्ति सन्तःकियन्तः॥1

भले ही न हो तुम्हारी मुक्ति। यह कैसी बच्चों की सी बकवास? राम राम! ‘नहीं है’, ‘नहीं है’, कहने से साँप का जहर भी उतर जाता है। क्या यह सत्य नहीं है? ‘मैं कुछ नहीं जानता’, ‘मैं कुछ भी नहीं हूँ’ – ये किस प्रकार के वैराग्य और विनय हैं भाई? यह तो मिथ्या वैराग्य एवं व्यंग्यपूर्ण विनय है। इस प्रकार के दीन-हीन भावों को दूर करना होगा। यदि मैं नहीं जानता हूँ, तो और कौन जानता है? यदि तुम नहीं जानते हो, तो अब तक तुमने क्या किया? ये सब नास्तिकों की बात है, अभागे आवारों की विनयशीलता है। हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठकर म्याऊँ म्याऊँ करते रहेंगे। एक महापुरुष लिखते हैं कि ‘आन्दोलन बहुत कुछ हो चुका है, और अधिक की क्या आवश्यकता है, अब घर लौटना चाहिए।’ मैं तो उनको मर्द तब जानता, जब मेरे रहने के लिए कोई मठ बनवाकर वे मुझे बुलाते। मेरे दस वर्ष के अनुभव ने मुझे पक्का बना दिया है। केवल मात्र बातों से कुछ होने-जाने का नहीं है। जिसके मन में साहस तथा हृदय में प्यार है, वही मेरा साथी बने – मुझे और किसीकी आवश्यकता नहीं है। जगन्माता की कृपा से मैं अकेला ही एक लाख के बराबर हूँ तथा स्वयं ही बीस लाख बन जाऊँगा। अब एक कार्य समाप्त होने से मैं निश्चिन्त हो जाता। भाई राखाल, तुम उत्साहपूर्वक उसे कर दो। वह है माता जी के लिए जमीन ख़रीदना। मेरे पास रुपये-पैसे मौजूद हैं। सिर्फ़ तुम उद्यम के साथ जमीन को देखकर ख़रीद लेना। जमीन के लिए ३-४ या ५ हजार तक लग जाय, तो कोई हर्ज नहीं है।… मेरा भारत लौटना अभी अनिश्चित है। मेरे लिए जैसे वहाँ भ्रमण करना, वैसे यहाँ भी है, भेद केवल मात्र इतना ही है कि यहाँ पर पण्डितों का संग है, वहाँ मूर्खों का – यही स्वर्ग-नरक का भेद है। यहाँ के लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं और हम लोगों के तमाम कार्यों में तथाकथित वैराग्य यानी आलस्य है, ईर्ष्या आदि के कारण सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।

हरमोहन बीच बीच में बहुत ही लम्बा-चौड़ा पत्र लिखते हैं, उसका आधा भी मैं नहीं समझ पाता, हालाँकि यह मेरे लिए परम लाभजनक ही है। क्योंकि उसमें अधिकांश समाचार इस प्रकार के होते हैं, कि अमुक व्यक्ति अमुक की दूकान पर बैठकर मेरे विरूद्ध इस प्रकार के बातें बना रहा था, जो उनके लिए असहनीय हो गया एवं इस बात पर उससे उनका झगड़ा हो गया आदि। मेरे पक्ष के समर्थन के लिए उनको अनेक धन्यवाद। कितु मुझे कौन क्या कह रहा है, उसे ध्यानपूर्वक सुनने में मुख्य बाधा यही है कि स्वल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः। – ‘समय अत्यन्त कम है और विघ्न अनेक हैं।’…

एक organised society (संगठित समिति) की आवश्यकता है। शशि घरेलू कार्यों की व्यवस्था करे, रूपया-पैसा तथा बाजार आदि का भार सान्याल सम्हाले तथा शरत् secretary (मंत्री) बने, अर्थात् पत्र-व्यवहार आदि कार्य वह करता रहे। एक स्थायी केन्द्र स्थापित करो, क्यों व्यर्थ के झगड़े में पड़े हुए हो, समझे न? अख़बारी प्रकाशन बहुत कुछ हो चुका है, अब तो कुछ करके दिखलाओ। यदि कोई मठ बना सको, तब मैं समझूँगा कि तुम बहादुर हो, नहीं तो कुछ नहीं। मद्रासियों से परामर्श कर कार्य करना, उनमें कार्य करने की बड़ी भारी शक्ति है। इस वर्ष श्रीरामकृष्णोत्सव को इस शान के साथ सम्पन्न करो कि एक उदाहरण प्रस्तुत हो सके। भोजनादि का प्रचार जितना ही कम हो सके, उतना ही अच्छा। हाथोंहाथ प्रसाद का वितरण भी हो जाय, तो अच्छा ही है।

श्रीरामकृष्ण देव की एक अत्यन्त संक्षिप्त जीवनी अंग्रेजी में लिखकर मैं भेज रहा हूँ। उसके बंगानुवाद के साथ उसे छपवाकर महोत्सव में बेचना; मुफ्त वितरण की हुई पुस्तकों को लोग प्रायः नहीं पढ़ते हैं, इसलिए कुछ मूल्य अवश्य रखना चाहिए। खूब धूम-धाम के साथ महोत्सव करना।…

बुद्धि प्रशस्त होनी चाहिए, तब कहीं कार्य होता है। गाँव अथवा शहर में जहाँ कहीं भी जाओ, श्री परमहंस देव के प्रति श्रद्धासम्पन्न दस व्यक्ति भी जहाँ मिलें, वहीं एक सभा स्थापित करो। गाँवों में जाकर अब तक तुमने क्या किया? हरि-सभा इत्यादि को धीरे धीरे स्वाहा करना होगा। क्या कहूँ, यदि मुझ जैसा एक भूत और मुझे मिलता! समय आने पर प्रभु सब कुछ जुटा देंगे।… यदि शक्ति विद्यमान है, तो उसका विकास अवश्य दिखाना होगा।… मुक्ति-भक्ति की भावना को दूर कर दो। परोपकाराय हि सतां जीवितं, परार्थ प्राज्ञ उत्सृजेत् – ‘साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियोंं को दूसरों के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए।’ संसार में यही एकमात्र रास्ता है। तुम्हारी भलाई करने से मेरी भी भलाई है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, बिल्कुल नहीं है।… तुम भगवान् हो, मैं भगवान् हूँ और मनुष्य भगवान् है। यह वही भगवान् है, जो मानवता के रूप में अभिव्यक्त होकर दुनिया में सब कुछ कर रहा है, फिर क्या भगवान् कहीं अन्यत्र बैठा हुआ है? अतः कार्य में संलग्न हो जाओ। शशि (सान्याल) द्वारा लिखित एक पुस्तक विमला ने मुझे भेजी है। उस ग्रंथ का अध्ययन कर विमला को यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि इस दुनिया में जितने भी लोग हैं, सभी अपवित्र हैं, तथा उन लोगों के संस्कार ही इस प्रकार के हैं कि उनसे धर्म का अनुष्ठान हो ही नहीं सकता, केवल मात्र कुछ भारतीय ब्राह्मण लोग ही धर्मानुष्ठान कर सकते हैं। उनमें भी शशि (सान्याल) और विमला चन्द्र-सूर्य-स्वरूप हैं। शाबाश, कितना शक्तिशाली धर्म है! खासकर बंगाल में इस प्रकार का धर्मानुष्ठान अत्यन्त ही सहज है। ऐसा कोई दूसरा मार्ग ही नहीं है। यही तो तप-जप आदि का सार सिद्धान्त है कि मैं पवित्र हूँ और बाकी सब लोग अपवित्र। यह कितना पैशाचिक, राक्षसी तथा नारकीय धर्म है। यदि अमेरिका के लोग धर्मानुष्ठान नहीं कर सकते, यदि इस देश में धर्म का प्रचार उचित नहीं है, तो फिर इन लोगों से सहायता माँगने की क्या आवश्यकता है? एक ओर अयाचित-वृत्ति का गुणगान और दूसरी ओर पोथी में ऐसे आक्षेपों की भरमार कि मुझे कोई भी कुछ नहीं देता है। विमला तो इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि यदि भारत के लोग शशि (सान्याल) तथा विमला के चरणों पर धनराशि अर्पित नहीं करते, तो इसका अर्थ यह है कि भारत का सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं है। क्योंकि शशि बाबू को सूक्ष्म व्याख्या मालूम है और उसे पढ़कर विमला को यह निश्चित रूप से विदित हो चुका है कि उनके सिवाय इस दुनिया में और कोई भी पवित्र नहीं है। इस रोग की दवा क्या है? शशि बाबू से कहना कि वे मलाबार चले जायँ। वहाँ के राजा ने प्रजा से जमीन छीनकर ब्राह्मणों के चरणों में अर्पित की है, गाँव गाँव में बड़े बड़े मठ हैं उत्तम भोजन की व्यवस्था है, साथ में दक्षिणा भी।… भोग करते समय ब्राह्मणेतर जाति के स्पर्श से कोई दोष नहीं होता – भोग समाप्त होते ही स्नान आवश्यक है, क्योंकि ब्राह्मणेतर जाति तो अपवित्र है, अन्य समय में उसे स्पर्श करने की आवश्यकता भी नहीं है। साधु-संन्यासी तथा ब्राह्मण दुष्टों ने देश को रसातल पहुँचाया है। ‘देहि, देहि’ की रट लगाना तथा चोरी-बदमाशी करना – किन्तु हैं धर्म के प्रचारक। धन कमायेंगे, सर्वनाश करेंगे, साथ ही यह भी कहेंगे कि हमें न छूना। कितने महान् कार्यों को वे लोग सम्पन्न करते रहें हैं! – यदि आलू से बैगन का स्पर्श हो जाय, तो कितने समय के अन्दर यह ब्रह्माण्ड रसातल को पहुँच जायगा? चौदह बार हाथ मिट्टी न करने से पूर्वजों के चौदह पुश्त नरकगामी होते हैं अथवा चौबीस, इन उलझनपूर्ण प्रश्नों की मीमांसा में ये लोग आज दो हजार वषोँ से लगे हुए हैं, जब कि दूसरी ओर one fourth of the people are starving (जनता का एक-चौथाई भाग भूखा मर रहा है)। आठ वर्ष की कन्या के साथ तीस वर्ष के पुरूष का विवाह करके कन्या के पिता-माताओं के आनन्द की सीमा नहीं रहती!… फिर इस काम में बाधा पहुँचने से वे कहते हैंं कि हमारा धर्म ही चला जायगा! आठ वर्ष की लड़की के गर्भाधान की जो लोग वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं, उनका धर्म कहाँ का धर्म है? बहुत से लोग इस प्रथा के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराते हैं। वास्तव में क्या, मुसलमान इसके लिए दोषी हैं? सम्पूर्ण गृह्यसूत्रों को तो एक बार पढकर देखो, हस्तात् योनिं न गूहति – दशा जब तक है, तभी तक कन्या मानी जाती है, इसके पहले ही उसका विवाह कर देना चाहिए। तमाम गृह्यसूत्रों का यही आदेश हैं।

वैदिक अश्वमेध यज्ञानुष्ठान की ओर ध्यान दो – तदनन्तरं महिषीं अश्वसन्निधौ पातयेत् – आदि वाक्य देखने को मिलेंगे। होता, ब्रह्मा, उद्गाता इत्यादि नशे में चूर होकर कितना घृणित आचरण करते थे। अच्छा हुआ कि जानकी के वन-गमन के बाद राम ने अकेले ही अश्वमेध यज्ञ किया, इससे चित्त को बड़ी शन्ति मिली।

समस्त ब्राह्मण ग्रन्थों में इनका उल्लेख विद्यमान है तथा सभी टीकाकारों ने माना है, फिर कैसे अस्वीकार किया जा सकता है।

तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल में बहुत सी चीजें अच्छी भी थीं और बुरी भी। उत्तम वस्तुओं की रक्षा करनी होगी, किन्तुर् Ancient India (प्राचीन भारत) से Future India (भावी भारत) अधिक महत्त्वपूर्ण होगा। जिस दिन श्रीरामकृष्ण देव ने जन्म लिया है, उसी दिन से Modern India (वर्तमान भारत) तथा सत्ययुग का आविर्भाव हुआ है। तुम लोग सत्ययुग का उद्घाटन करो और इसी विश्वास को लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हो।

एक ओर तो तुम श्रीरामकृष्ण देव को अवतार कहते हो और उसके साथ ही साथ अपने को अज्ञ भी बतलाते हो, यही कारण है कि मैं बिना किसी संकोच के तुम लोगों को त्गी (झूठा) कहता हूँ। यदि श्रीरामकृष्ण देव सत्य हैं, तो तुम भी सत्य हो। किन्तु तुमको यह प्रमाणित कर दिखाना होगा।… तुम्हारे अन्दर महाशक्ति विद्यमान है, नास्तिकों में कुछ भी नहीं है। आस्तिक लोग वीर होते हैं। जो महाशक्ति उनमें विद्यमान है, उसका विकास अवश्य होगा और उससे जगत् परिप्लावित हो जायगा। ‘गरीबों का उपकार करना ही दया है’; ‘मुनष्य भगवान् है, नारायण है’; ‘आत्मा में स्त्री-पुरूष-नपुंसक तथा ब्राह्मण, क्षत्रियादि भेद नहीं है’; ‘ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त सब कुछ नारायण है।’ कीट स्वल्प अभिव्यक्त (less manifested) तिथा ब्रह्म अधिक अभिव्यक्त (more manifested) है।

‘धीरे धीरे ब्रह्मभाव की अभिव्यक्ति के लिए जिन कार्यों से जीव को सहायता मिलती है, वे ही अच्छे हैं और जिनके द्वारा उसमें बाधा पहुँचती है, वे बुरे हैं।’

‘अपने में ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।’

‘यदि स्वभाव में समता न भी हो, तो भी सबको समान सुविधा मिलनी चाहिए। फिर भी यदि किसीको अधिक तथा किसीको कम सुविधा देनी हो, तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करनी आवश्यक है ’।

अर्थात् चाण्डाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है, उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं। यदि किसी ब्राह्मण के पुत्र के लिए एक शिक्षक आवश्यक हो, तो चाण्डाल के लड़के के लिए दस शिक्षक चाहिए। कारण यह है कि जिस की बुद्धि की स्वाभाविक प्रखरता प्रकृति के द्वारा नहीं हुई है, उसके लिए अधिक सहायता करनी होगी। चिकने- चुपड़े पर तेल लगाना पागलों का काम है। The poor, the downtrodden, the ignorant, let these be your God ‘दरिद्र, पददलित तथा अज्ञ तुम्हारे ईश्वर बनें।’

तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है – उससे सावधान रहना; सब कोई उस दलदल में फँसकर ख़त्म हो जाते हैं। वर्तमान हिन्दुओं का धर्म न तो वेद में है और न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में – धर्म तो भात की हाँड़ी में समा चुका है – यही वह दलदल है। वर्तमान हिन्दू धर्म न तो विचार-प्रधान ही है और न ज्ञानप्रधान,‘मुझे न छूना, मुझे न छूना’, इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एकमात्र अवलम्ब है, बस इतना ही। इस घोर वामाचाररूप अस्पृश्यता में फँसकर तुम अपने प्राणों से हाथ न धो लेना। आत्मवत् सर्वभूतेषु, क्या यह वाक्य केवल मात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिए है? जो लोग ग़रीबों को रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकते, वे फिर मुक्ति क्या दे सकते हैं? दूसरों के श्वास प्रश्वासों से जो अपवित्र बन जाते हैं, वे फिर दूसरों को क्या पवित्र बना सकते हैं? अस्पृश्यता is a form of mental disease. (एक प्रकार की मानसिक व्याधि है); उससे सावधान रहना। ‘सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। जहाँ प्रेम है, वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है, वहीं संकोच। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है। जो प्रेम करता है, वही जीवित है; जो स्वार्थी, वह मृतक है। अतःप्रेम प्रेम के निमित्त, क्येंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है।’… यदि हो सके, तो शशि (सान्याल) की कुछ भलाई का प्रयत्न करना। वह अत्यन्त उदार तथा निष्ठावान है, किन्तु उसका हृदय संकीर्ण है। दुसरों के दुःख में दुःखी होना सबके लिए सम्भव नहीं है। हे प्रभो, सब अवतारों में श्री चैतन्य महाप्रभु श्रेष्ठ हैं, किन्तु उनमें प्रेम की तुलना में ज्ञान का अभाव था, श्रीरामकृष्णवतार में ज्ञान, भक्ति तथा प्रेम – तीनों ही विद्यमान हैं। उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त कर्म तथा प्राणियों के लिए अनन्त दया है। अभी तक तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ है। श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् – ‘इनके बारे में सुनकर भी कोई कोई इनको जान नहीं पाते हैं।’ ‘युग-युगान्त से समग्र हिन्दू जाति के लिए जो चिन्तन का विषय रहा, उन्होंने अपने एक ही जीवन में उसकी उपलब्धि की। उनका जीवन सब जातियों के शास्त्रों का सजीव भाष्यस्वरूप है।’ लोगों को धीरे धीरे इसका पता लगेगा। मेरी तो यही पुरानी वाणी है – Struggle, struggle up to light! Onward! (अपनी पूरी शक्ति के साथ ज्योति की ओर अग्रसर हो।) इति।

दास,
नरेन्द्र


  1. ऐसे साधु कितने हैं, जिनके कार्य, मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य अर्थात् अत्यन्त स्वल्प गुण को भी पर्वतप्रमाण बढ़ाकर अपने हृदयों का विकास साधन करते हैं॥ भर्तृहरि॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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