स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (20 मई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
२० मई, १८९७
अभिन्नहृदय,
तुम्हारे पत्र से सभी विशेष समाचार प्राप्त हुए। सुधीर का भी एक पत्र मिला तथा मास्टर महाशय ने भी एक पत्र भेजा है। नित्यानन्द (योगेन चटर्जी) के दो पत्र दुर्भिक्ष-स्थल से प्राप्त हुए हैं।
रुपये-पैसे का अभी भी कोई ठीक-ठिकाना नहीं है… पर होगा अवश्य। धन होने पर मकान, जमीन तथा स्थायी कोष आदि की व्यवस्था ठीक-ठीक हो जायगी। किन्तु जब तक नहीं मिलता है, तब तक कोई आसरा नहीं रखना चाहिए; और मैं भी अभी दो-तीन माह तक गरम स्थान में लौटना नहीं चाहता। इसके बाद मैं एक दौरा करूँगा और निश्चय ही धन संग्रह कर लूँगा। इसलिए यदि तुम यह समझते हो कि वह सामने की आठ ‘काठा’ खुली जमीन न मिल रही हो तो ऐसा करना… दलाल को बयाना देने में कोई हरज नहीं, समझ लो कि तुम कुछ भी नहीं खो रहे हो। इन कार्यों को तुम खुद ही सोच-समझकर करना, मैं और अधिक क्या लिख सकता हूँ? शीघ्रता करने से भूल होने की खास सम्भावना है।… मास्टर महाशय से कहना कि उन्होंने जो मन्तव्य प्रकट किया है, उससे मैं पूर्ण सहमत हूँ।
गंगाधर को लिखना कि यदि वहाँ पर भिक्षादि दुष्प्राप्य हो तो गाँठ से पैसा खर्च कर अपने भोजनादि की व्यवस्था करे तथा प्रति सप्ताह उपेन की पत्रिका (बसुमती) में समाचार प्रकाशित करता रहे। ऐसा करने पर अन्य लोगों से भी सहायता मिल सकती है।
शशि के एक पत्र से पता चला कि… उसे निर्भयानन्द की आवश्यकता है। यदि तुम उचित समझो तो निर्भयानन्द को मद्रास भेजकर गुप्त को बुला लेना… मठ की नियमावली की बंगला प्रति या उसका अंग्रेजी अनुवाद शशि को भेज देना और वहाँ पर उसी के अनुसार कार्य करने को उसे लिख देना।
यह जानकर खुशी हुई कि कलकत्ते की संस्था अच्छी तरह चल रही है। यदि एक- दो व्यक्ति उसमें सम्मिलित न हों तो कोई बात नहीं। धीरे-धीरे सभी आने लगेंगे। सबके साथ सद्व्यवहार करना। मीठी बात का असर बहुत होता है जिससे नये लोग सम्मिलित हों, ऐसा प्रयास करना अत्यन्त आवश्यक है। हमें नये नये सदस्यों की आवश्यकता है।
योगेन अच्छी तरह से है। अल्मोड़ा में अत्यधिक गर्मी होने की वजह से वहाँ से २० मील की दूरी पर मैं एक सुन्दर बगीचे में रह रहा हूँ; यह स्थान वहाँ से ठण्डा अवश्य है, किन्तु गर्मी भी है। जहाँ तक गर्मी का सवाल है, कलकत्ते से यहाँ पर ऐसा कोई विशेष अन्तर नहीं है।…
मुझे अब बुखार नहीं आता। और भी ठण्डे स्थान में जाने की चेष्टा कर रहा हूँ। मैं अनुभव करता हूँ कि गर्मी तथा चलने के श्रम से ‘लीवर’ की क्रिया में तुरन्त गड़बड़ी होने लगती है। यहाँ पर इतनी सूखी हवा चलती है कि दिन-रात नाक में जलन होती रहती है और जीभ भी लकड़ी जैसी सूखी बनी रहती है। तुम लोग नुक्ताचीनी न करना; नहीं तो अब तक मजे से मैं किसी ठण्डे स्थान में पहुँच गया होता। “स्वामीजी पथ्य सम्बन्धी नियमों की सदा उपेक्षा करते हैं,” क्या व्यर्थ की बात बकते हो? क्या तुम सचमुच उन मूर्खों की बातों पर ध्यान देते हो? यह वैसे ही है, जैसे कि तुम्हारा मुझे उड़द की दाल न खाने देना, क्योंकि उसमें स्टार्च (श्वेतसार) होता है। और यह भी कि चावल और रोटी तलकर खाने से स्टार्च (श्वेतसार) नहीं रहता है! भाई वाह! यह तो अद्भुत विद्या है! असली बात यह है कि मेरी पुरानी आदत लौट रही है।…यह मैं स्पष्ट देख रहा हूँ। देश के इस भाग में बीमारी, यहाँ के रंग-ढंग अपना लेती है और देश के उस भाग में वहाँ के। रात में अल्प भोजन करने की सोच रहा हूँ; सुबह तथा दोपहर में पेट भर भोजन करूँगा तथा रात में दूध, फल इत्यादि लूँगा। इसीलिए तो भाई फलों के बगीचे में ‘फल-प्राप्ति’ की आशा में पड़ा हुआ हूँ। क्या इतना भी नहीं समझते?
तुम डरते क्यों हो? क्या दानव की मृत्यु इतनी शीघ्र हो सकती है? अभी तो केवल सांध्य दीप ही जलाया गया है, और अभी तो सारी रात गायन-वादन करना है। आजकल मेरा मिजाज भी ठीक है, बुखार भी केवल ‘लीवर’ के कारण ही है। मुझे यह अच्छी तरह से पता है। उसे भी मैं दुरुस्त कर दूँगा – डर किस बात का है?… साहस के साथ कार्य में जुट जाओ; हमें एक बार तूफान पैदा कर देना है। किमधिकमिति।
मठ के सब लोगों को मेरा प्यार कहना तथा समिति की आगामी बैठक में सबको मेरा सादर नमस्कार कहना और कहना कि यद्यपि मैं सशरीर उपस्थित नहीं हूँ, फिर भी मेरी आत्मा उस जगह विद्यमान है, जहाँ कि प्रभु का नाम कीर्तन होता है। यावत्तव कथा राम संचरिष्यति मेदिनीम्, अर्थात् हे राम, जहाँ भी संसार में तुम्हारी कथा होती है, वहीं पर मैं विद्यमान रहता हूँ। क्योंकि आत्मा तो सर्वव्यापी है न!
सस्नेह,
विवेकानन्द