स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (1 अगस्त, 1898)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द लिखा गया पत्र)
श्रीनगर,
१ अगस्त, १८९८
अभिन्नहृदय,
तुम्हारी समझ में सदा एक भ्रम है एवं दूसरों की प्रबल वृद्धि के दोष अथवा गुण से वह दूर नहीं हो पाता। वह यह है कि जब मैं हिसाब-किताब की बातें कहता हूँ, तब तुम यह समझने लगते हो कि तुम लोगों पर मेरा विश्वास नहीं है।… बात यह है कि इस समय तो कार्य चालू कर दिया गया; बाद में हमारे चले जाने पर कार्य जिससे चलता रहे, एवं दिनोंदिन बढ़ता रहे, मैं दिन-रात उसी चिन्ता में मग्न रहता हूँ। चाहे हजार गुना तात्त्विक ज्ञान क्यों न रहे – प्रत्यक्ष रूप से किए बिना कोई कार्य सीखा नहीं जाता। निर्वाचन एवं रुपये-पैसे के हिसाब की चर्चा करने को इसलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि जिससे और लोग भी कार्य करने के लिए तैयार रहें। एक की मृत्यु हो जाने से अन्य कोई व्यक्ति, दूसरा एक ही क्यों आवश्यकता पड़ने पर दस व्यक्ति कार्य करने को प्रस्तुत रहे। दूसरी बात यह है कि कोई भी व्यक्ति तब तक अपनी पूरी शक्ति के साथ कार्य नहीं करता है, जब तक उसमें उसकी रुचि न पैदा की जाय; सभी को यह बतलाना उचित है कि कार्य तथा संपत्ति में प्रत्येक का ही हिस्सा है एवं कार्य-प्रणाली में अपना मत प्रकट करने का सभी को अधिकार है एवं अवसर रहते ही यह हो जाना चाहिए। एक के बाद एक प्रत्येक व्यक्ति को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य देना, परन्तु हमेशा एक कड़ी नजर रखना जिससे आवश्यकता पड़ने पर तुम नियंत्रण कर सको; तब कहीं कार्य के लिए व्यक्ति का निर्माण हो सकता है। ऐसा यन्त्र खड़ा करो जो कि अपने आप चलता रहे, चाहे कोई मरे अथवा जीवित रहे। हमारे भारत का यह एक महान् दोष है कि हम कोई स्थायी संस्था नहीं बना सकते हैं और उसका कारण यह है कि दूसरों के साथ हम कभी अपने उत्तरदायित्व का बँटवारा नहीं करना चाहते और हमारे बाद क्या होगा – यह भी नहीं सोचते।
प्लेग के बारे में मैं सब कुछ लिख चुका हूँ। श्रीमती बुल एवं कुमारी मूलर आदि का यह मत है कि जब प्रत्येक मुहल्ले में अस्पताल स्थापित हो गया है, फिर रुपये व्यर्थ खर्च करना वांछनीय नहीं है। सेवक आदि के रूप में हम लोग अपनी सेवाएँ अर्पित करते हैं। जो पैसा देगा उसके आदेशानुसार वादक को धुनें बजानी पड़ती है।
काश्मीर के राजा साहब जमीन देने के लिए सहमत हैं। मैंने जमीन भी देख ली है। यदि प्रभु की इच्छा होगी तो अब दो-चार दिन में कार्य हो जायगा। अबकी बार यहाँ पर एक छोटा सा मकान बनवाना है। जाते समय न्यायाधीश मुकर्जी की देख-रेख में छोड़ जाऊँगा अथवा तुम यहाँ और किसी के साथ आकर जाड़े भर रह जाओ। स्वास्थ्य भी ठीक हो जायगा तथा एक कार्य भी सम्पन्न हो जायगा। प्रकाशनार्थ जो पैसे मैंने अलग कर रखे हैं वे तदर्थ समुचित हैं, परन्तु यह सब तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है। इस समय पश्चिमोत्तर प्रदेश, राजपूताना आदि स्थानों में निश्चित ही कुछ धन मिलेगा। ठीक है, कुछ लोगों को… इस प्रकार से रुपये देना। ये रुपये मठ से मैं कर्ज ले रहा हूँ तथा तुमको ब्याज सहित चुका दूँगा।
मेरा स्वास्थ्य एक प्रकार से ठीक ही है। मकान का कार्य प्रारम्भ हो गया है – यह अच्छी बात है! सबसे मेरा प्यार कहना। इति।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द