स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (10 अक्टूबर, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
मरी,
१० अक्टूबर, १८९७
अभिन्नहृदय,
परसों सायं काल काश्मीर से मरी पहुँच चुका हूँ। सभी लोग बहुत आनन्दपूर्वक थे। केवल कृष्णलाल तथा गुप्त को बीच-बीच में ज्वर हो आया था – किन्तु विशेष नहीं। इस अभिनन्दन-पत्र को खेतड़ी के राजा साहब के लिए भेजना होगा – सुनहरे रंग में छपवाकर। राजा साहब २१-२२ अक्टूबर तक बम्बई पहुँच जाएँगे। इस समय हम लोगों में से कोई भी बम्बई में नहीं है। यदि कोई हो तो उसे एक ‘प्रति’ भेज देना – जिससे कि वह जहाज में ही राजा साहब को उक्त अभिनन्दन-पत्र प्रदान करे अथवा बम्बई शहर के किसी स्थान में। जो ‘प्रति’ सबसे उत्तम हो उसे खेतड़ी भेज देना। किसी सभा में उसे पढ़ लेना। यदि किसी अंश को बदलने की इच्छा हो तो कोई हानि नहीं है। इसके बाद सभी लोग हस्ताक्षर कर देना; केवल मेरे नाम की जगह खाली छोड़ देना – मैं खेतड़ी पहुँचकर हस्ताक्षर कर दूँगा। इस बारे में कोई त्रुटि न हो। पत्र के देखते ही योगेन कैसा है, लिखना; लाला राजहंस सोहनी, वकील, रावलपिण्डी – इस पते पर। राजा विनयकृष्ण की ओर से जो अभिनन्दन-पत्र दिया जायगा, उसमें भले ही दो दिन की देरी हो – हम लोगों को पहुँच जाना चाहिए।
अभी-अभी तुम्हारा ५ तारीख का पत्र मिला। योगेन के समाचार से मुझे विशेष आनन्द प्राप्त हुआ; मेरे इस पत्र के पहुँचने से पूर्व ही हरिप्रसन्न सम्भवतः अम्बाला पहुँच जायगा। मैं वहाँ पर उन लोगों को ठीक-ठीक निर्देश भेज दूँगा। परमाराध्या माताजी के लिए दो सौ रुपये भेज रहा हूँ – प्राप्ति का समाचार देना।… तुमने भवनाथ की पत्नी के बारे में कुछ भी क्यों नहीं लिखा है? क्या तुम उसे देखने गए थे?
कैप्टन सेवियर कह रहे हैं कि जगह के लिए वे अत्यन्त अधीर हो उठे हैं। मसूरी के समीप अथवा अन्य कोई केन्द्रीय जगह पर एक स्थान शीघ्र होना चाहिए – यह उनकी अभिलाषा है। वे चाहते हैं कि मठ से दो-तीन व्यक्ति आकर स्थान को पसन्द करें। उनके द्वारा पसन्द होते ही मरी से जाकर वे उसे खरीद लेंगे तथा मकान बनाने का कार्य शुरू कर देंगे। इसके लिए जो कुछ खर्च होगा उसकी व्यवस्था वे स्वयं ही करेंगे। बात यह है कि स्थान ऐसा होना चाहिए, जो कि न तो अधिक ठण्डा ही हो और न अधिक गरम। देहरादून गर्मी के दिनों में असह्य है, किन्तु जाड़े में अनुकूल है। मैं कह सकता हूँ कि मसूरी भी जाड़े में सम्भवतः सबके लिए उपयुक्त न होगा। उससे आगे अथवा पीछे – अर्थात् ब्रिटिश या गढ़वाल राज्य में उपयुक्त स्थान अवश्य प्राप्त हो सकेगा। साथ ही स्थान ऐसा होना चाहिए जहाँ कि बारह महीने नहाने-धोने तथा पीने के लिए जल प्राप्त हो सके। इसके लिए श्री सेवियर तुम्हें खर्च भेज रहे हैं तथा पत्र भी लिख रहे हैं। उनके साथ इस विषय में सब कुछ ठीक-ठाक करना। इस समय मेरी योजना इस प्रकार है – निरंजन, लाटू तथा कृष्णलाल को मैं जयपुर भेजना चाहता हूँ; मेरे साथ केवल अच्युतानन्द तथा गुप्त रहेंगे। मरी से रावलपिण्डी, वहाँ से जम्मू तथा जम्मू से लाहौर और वहाँ से एकदम कराची जाना है। मठ के लिए धन-संग्रह करना मैंने यहीं से प्रारम्भ कर दिया है। चाहे जहाँ से भी तुम्हारे नाम रुपये क्यों न आवें, तुम उन्हें मठ के ‘फण्ड’ में जमा करते रहना तथा ठीक-ठीक हिसाब रखना। दो ‘फण्ड’ पृथक्-पृथक् हों – एक कलकत्ते के मठ के लिए और दूसरा दुर्भिक्ष कार्य इत्यादि के लिए। आज सारदा तथा गंगाधर का पत्र मिला। कल उनको पत्र लिखूँगा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि सारदा को वहाँ न भेजकर मध्यप्रदेश में भेजना अच्छा था। वहाँ पर सागर तथा नागपुर में मेरे अपने परिचित व्यक्ति हैं – जो कि धनी हैं तथा आर्थिक सहायता भी कर सकते हैं। अस्तु, अगले नवम्बर में इसकी व्यवस्था की जायगी। मैं बहुत व्यस्त हूँ। यहाँ ही इस पत्र को समाप्त करता हूँ।
शशि बाबू से मेरा विशेष आशीर्वाद तथा प्यार कहना। इतने दिनों के बाद अब यह पता चल रहा है कि मास्टर साहब भी कमर कसकर खड़े हो गए हैं। उनसे मेरा विशेष स्नेहालिंगन कहना। अब वे जाग्रत हो उठे हैं – यह देखकर मेरा साहस बहुत कुछ बढ़ गया है। मैं कल ही उन्हें पत्र लिख रहा हूँ। अलमिति – वाह गरु का फतह। कार्य में जुट जाओ, कार्य में जुट जाओ! तुम्हारे भेजे हुए सभी पत्र मुझे प्राप्त हुए हैं।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द