स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (11 अक्टूबर, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
(सम्भवतः) मरी,
११ अक्टूबर, १८९७
अभिन्नहृदय,
आज तक दस दिन पर्यन्त काश्मीर से जो भी कुछ कार्य किया गया है, मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैंने उसे किसी प्रकार के आवेश में किया है। चाहे उसका सम्बन्ध शरीर से रहा हो अथवा मन से। अब मैं इस सिद्धान्त पर पहुँचा हूँ कि इस समय मैं और किसी कार्य के योग्य नहीं रह गया हूँ।… मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि मैंने तुम लोगों के प्रति अत्यन्त कटु व्यवहार किया है। फिर भी मैं यह जानता हूँ कि तुम मेरी सारी बातों को बर्दाश्त करोगे; मठ में इसको सहन करने वाला और कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। तुम्हारे साथ मैंने अत्यधिक कटु व्यवहार किया है; जो होना था सो हो गया – भाग्य की बात है। मैं इसके लिए पश्चात्ताप क्यों करूँ, उसमें मेरा विश्वास नहीं है – यह भी भाग्य की बात है! ‘माँ’ का कार्य जितना मुझसे हो सकता था, उतना सम्पादन कराकर अन्त में ‘माँ’ ने मेरे शरीर तथा मन को अपहरण कर मुझे त्याग दिया। माँ की जो इच्छा!
अब मैं इन तमाम कार्यों से छुट्टी लेना चाहता हूँ। दो-एक दिन के अन्दर सब… कुछ त्याग कर अकेला ही मैं कहीं चल दूँगा एवं चुपचाप कहीं पर अपना बाकी जीवन व्यतीत करूँगा। तुम लोग यदि चाहो तो मुझे क्षमा कर देना, अथवा जो इच्छा हो करना। श्रीमती बुल ने अधिक धन प्रदान किया है। शरत् पर उनका अधिक विश्वास है। शरत् के परामर्शानुसार समस्त मठों की व्यवस्था करना, अथवा जो चाहो करना। किन्तु यह ध्यान रखना कि मैंने सदा वीर की तरह जीवन बिताया है – मेरा कार्य तड़ित् जैसा क्षिप्र तथा वज्र जैसा अटल होना चाहिए। अन्तिम समय तक मैं इसी तरह बना रहना चाहता हूँ। अतः मेरे कार्य का सम्पादन कर देना – हार-जीत के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं कभी लड़ाई में पीछे नहीं हटा हूँ; अब क्या पीछे हट सकूँगा…? सभी कार्यों में हार-जीत अवश्यम्भावी है; किन्तु मेरा विश्वास है कि कायर मरकर निश्चित ही कृमिकीट बनता है। युग-युग तपस्या करने पर भी कायरों का उद्धार नहीं हो सकता। क्या मुझे अन्त में कृमिकीट होकर जन्म लेना पड़ेगा?… मेरी दृष्टि में यह संसार एक खेल के सिवाय और कुछ नहीं है – और सदैव यह ऐसा ही रहेगा। सांसारिक मान-अपमान, लाभ-हानि को लेकर क्या छः माह तक सोचते रहना पड़ेगा?… मैं काम करना पसन्द करता हूँ। केवल विचार-विमर्श ही हो रहा है, कोई कुछ परामर्श दे रहा है, तो कोई कुछ; कोई आतंकित कर रहा है तो कोई डरा रहा है। मेरी दृष्टि में यह जीवन इतना अधिक मधुर नहीं है कि इस तरह भयभीत होकर सावधानी के साथ इसकी रक्षा करनी होगी। धन, जीवन, बन्धु-बान्धव, मनुष्यों के स्नेह आदि के बारे में यदि कोई सिद्धि-प्राप्ति में निःसन्दिग्ध होकर कार्य करना चाहे, अथवा तदर्थ यदि इतना भयभीत होना पड़े तो उसकी गति वही होती है जैसे श्रीगुरुदेव कहा करते थे कि ‘कौआ अधिक सयाना होता है लेकिन… ’ आदि। चाहे और कुछ भी क्यों न हो, रुपये-पैसे, मठ-मन्दिर, प्रचारादि की सार्थकता ही क्या है? समग्र जीवन का एकमेव उद्देश्य है – शिक्षा। शिक्षा के बिना धन दौलत, स्त्री-पुरुषों की आवश्यकता ही क्या है?
इसलिए रुपयों का नाश हुआ अथवा किसी वस्तु की हानि हुई – मैं इन बातों के लिए न तो चिन्ता कर सकता हूँ और न करूँगा ही। जब मैं लड़ता हूँ, कमर कसकर लड़ता हूँ – इस बात को मैं अच्छी तरह से समझता हूँ और जो यह कहता है कि ‘कुछ परवाह नहीं, वाह बहादुर, मैं साथ में ही हूँ’ उसे मैं मानता हूँ, उस वीर को, उस देवता को मैं मानता हूँ। उस प्रकार के नरदेव के चरणों में मेरे कोटि-कोटि नमस्कार; वे जगत पावन हैं, वे जगत के उद्धार करने वाले हैं! और जो लोग केवल यह कहते हैं कि – ‘अरे आगे न बढ़ना, आगे डर है, आगे डर है’ – ऐसे जो कायर (डिसपेप्टिक) हैं, वे सदा भय से काँपते हैं। किन्तु जगन्माता की कृपा से मुझमें इतना साहस है कि भयानक डिस्पेप्सिया के द्वारा कभी मैं कायर नहीं बन सकता हूँ। कायरों से और क्या कहा जाय, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है। किन्तु जो वीर इस संसार में महान् कार्यों को करते हुए निष्फल हुए हैं, जिन्होंने कभी किसी कार्य से मुँह नहीं मोड़ा हो, जिन लोगों ने भय एवं अहंकार के वशीभूत होकर कभी आदेश की अवहेलना नहीं की है, वे मुझे अपने चरणों में आश्रय प्रदान करें – यह मेरी कामना है। मैं ऐसी दिव्य माँ की सन्तान हूँ, जो सभी शक्तियों की धात्री हैं। मेरी दृष्टि में मैले-कुचैले फटे वस्त्र के सदृश तमोगुण तथा नरक-कुण्ड में कोई भेद नहीं है, दोनों ही बराबर हैं। माँ जगदम्बे, हे गुरुदेव! आप सदा यह कहते थे कि ‘यह वीर है!’ मुझे कायर बनकर मरना न पड़े। – भाई, यही मेरी प्रार्थना है।…उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा – श्रीरामकृष्ण देव के दासानुदासों में से कोई न कोई मुझ जैसा अवश्य बनेगा, जो मुझे समझेगा।
‘हे वीर, स्वप्न को त्यागकर आग्रत हो; मृत्यु सिर पर खड़ी है… वह तुम्हें भयभीत न करे।’ जो मैंने कभी नहीं किया है, रण में पीठ नहीं दिखायी है, क्या आज वही होगा? हारने के भय से क्या मैं युद्धक्षेत्र से पीछे हटूँगा? हार तो वीर के अंग का आभूषण है; किन्तु क्या बिना लड़े ही हार मान लूँ?
तारा! माँ!… ताल देने वाला एक भी व्यक्ति नहीं है; किन्तु मन में यह पूर्ण अहंकार है कि – ‘हम सब कुछ समझते हैं।’… मैं अब जा रहा हूँ… सब कुछ तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ। माँ यदि पुनः ऐसे व्यक्ति प्रदान करें कि जिनके हृदय में साहस, हाथों में शक्ति तथा आँखों में अग्नि हो, जो जगदम्बा की वास्तविक सन्तान हों – ऐसा यदि एक भी व्यक्ति मुझे दें तो मैं काम करूँगा, पुनः वापस लौटूँगा; अन्यथा मैं यह समझूँगा कि माँ की इच्छा केवल इतनी ही थी। मैं अब प्रतीक्षा करना नहीं चाहता, मैं चाहता हूँ कि कार्य में वायु-वेग सी शीघ्रता हो, मुझे निर्भीक हृदय व्यक्ति मिलें।
सारदा बेचारे को मैंने बहुत सी गालियाँ दी हैं। क्या करूँ… मैं गालियाँ देता हूँ, किन्तु मुझे भी तो शिकायत में बहुत कुछ कहना है।… मैंने खड़े होकर हाँफते हुए उसके लिए लेख लिखा है।… सब कुछ ठीक है, अन्यथा वैराग्य कैसे होगा? माँ क्या अन्त में मुझे इन झमेलों में फँसाकर मार डालना चाहती हैं? सभी के समीप मैं विशेष अपराधी हूँ – जो उचित हो करना।
तुम सभी को मेरा हार्दिक आशीर्वाद है। शक्तिरूप से तुम्हारे अन्दर माँ का आविर्भाव हो, अभयं प्रतिष्ठाम् – माँ तुम्हें अभय जो एक मात्र सहारा है, प्रदान करे। मैंने अपने जीवन में यह अनुभव किया कि जो स्वयं सावधान रहना चाहता है, पग-पग पर उसे विपत्ति का सामना करना पड़ता है। जो सम्मान एवं प्रतिष्ठा के खो जाने के भय से पीड़ित रहता है, उसकी अवमानना होती है। जो सदा नुकसान से घबराता है, उसके भाग्य में सदा नुकसान ही उपस्थित है।… तुम लोगों का कल्याण हो। अलमिति।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द