स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित (1895)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखा गया पत्र)

संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९५

कल्याणीय,

तुम लोगों के एक पत्र में बहुत समाचार ज्ञात हुए। किन्तु उसमें सब लोगों का विशेष समाचार नहीं है। निरंजन के पत्र से पता चला कि वह लंका जा रहा है। सारदा जो कुछ कर रहा है, वही मेरा अभिमत है; परन्तु श्रीरामकृष्ण परमहंस अवतार हैं, इत्यादि प्रचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जगत् के हित के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, अपने ख्याति-विस्तार के लिए नहीं; तुम्हें इसे हमेशा स्मरण रखना चाहिए। शिष्यवर्ग गुरु की ख्याति करते हैं, किन्तु जिस बात की शिक्षा देने के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, उसे वे एकदम त्याग देते हैं और उसका फल होता है दलबन्दी इत्यादि। आलासिंगा ने चारू के विषय में लिखा है। लेकिन मुझे उसका स्मरण नहीं। उसके विषय में सब कुछ लिखो और उसे मेरा धन्यवाद दो। सभी के विषय में विस्तारपूर्वक लिखो; मेरे पास बेकार की बातों के लिए समय नहीं है।… कर्मकांड को त्यागने का प्रयास करना, वह संन्यासी के लिए नहीं है। जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तभी तक कर्म आवश्यक है। दलबंदी, गुटबन्दी, कूपमण्डूकता में मै नहीं हूँ, चाहे और कुछ भी मैं क्यों न करूँ। रामकृष्ण परमहंस के सार्वलौकिक विचारों का उपदेश तथा उसी समय संप्रदाय का निर्माण असम्भव है। एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकी सब कुकर्म है। इसीलिए मैं भगवान् की शरण लेता हूँ। मैं वेदान्ती हूँ, मेरी अपनी आत्मा का महान् रूप सच्चिदानन्द है, उसके अतिरिक्त और कोई दूसरा ईश्वर मेरी दृष्टि में प्रायः नहीं दिखायी दे रहा है। अवतार का अर्थ है, जीवन्मुक्त अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त किया है। अवतारविषयक और कोई विशेषता मेरी दृष्टि में नहीं है। ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त सभी प्राणी समय आने पर जीवन्मुक्ति को प्राप्त करेंगे। उस अवस्थाविशेष की प्राप्ति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहायता का नाम धर्म है, बाकी अधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है, शेष कुकर्म है; मुझे और कुछ नहीं दिखायी दे रहा है। विभिन्न प्रकार के तांत्रिक अथवा वैदिक कर्मों के द्वारा भी फल की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु उससे केवल मात्र व्यर्थ में ही जीवन नष्ट हो जाता है – क्योंकि पवित्रतारूप कर्म-फल की प्राप्ति एकमात्र परोपकार से ही सम्भव है। यज्ञादि कर्मों से भोगादि की प्राप्ति सम्भव है, किन्तु आत्मा की पवित्रता असम्भव है। संन्यास लेकर जीव की उच्च गति की शिक्षा न देकर निरर्थक कर्मकांड में रत रहना, मेरी राय में दूषणीय है।…प्राणिमात्र की आत्मा में सब कुछ विद्यमान है। जो अपने को मुक्त कहता है, वही मुक्त होगा जो यह कहता है कि मैं बद्ध हूँ, वह बद्ध ही रहेगा। मेरे मतानुसार अपने को दीन-हीन समझना पाप तथा अज्ञता है। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।1 अस्ति ब्रह्म वदसि चेदस्ति भविष्यसि, नास्ति ब्रह्म वदसि चेन्नास्त्येव भविष्यसि।2 जो सदा अपने को दुर्बल समझता है, वह कभी भी शक्तिशाली नहीं बन सकता; और जो अपने को सिंह समझता है, वह निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी।3 दूसरी बात यह है कि श्रीरामकृष्ण परमहंस किसी नवीन तत्त्व को प्रचार करने के लिए आविर्भूत नहीं हुए थे, किन्तु उसे प्रकाश में लाना उनका उद्देश्य था। अर्थात् He was the embodiment of all past religious thoughts of India. His life alone made me udnerstand what the Shastras really meant and the whole plan and scope of the old Shastras.4

मिशनरियों का उद्धेश्य इस देश में सफल न हो सका। भगवदिच्छा से यहाँ के लोग मुझसे स्नेहभाव रखते हैं, ये किसीकी बातों में आनेवाले नहीं हैं। मेरे ideas (विचारों) को ये लोग जितना अधिक समझते हैं, उतना मेरे देशवासी भी नहीं समझ पाते, साथ ही ये लोग अत्यन्त स्वार्थी भी नहीं हैं। यानी जब कोई कार्य करना होता है, तब ये लोग jealousy (ईर्ष्या) तथा बड़प्पन आदि भावनाओं को अपने पास नहीं फटकने देते। इस समय सब लोग मिल-जुलकर किसी योग्य अनुभवी व्यक्ति के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। इसीसे ये लोग इतने उन्नत हैं। किन्तु ये लोग ‘धनदेवता’ के उपासक हैं, हर बात में पैसे का ही प्राधान्य है; हमारे देश के लोग धन के विषय में अत्यन्त उदार हैं, किन्तु इन लोगों में उस प्रकार की उदारता नहीं है। सर्वत्र कंजूसी है और इसे धर्म माना जाता है। किन्तु अनुचित आचरण करने पर उन्हें पादरियों के चक्कर में आना पड़ता हैं, तब धन देकर स्वर्ग पहुँचते हैं! ऐसी घटनाएँ प्रायः सभी देशों में समान हैं, इसीका नाम है – priest-craft (पुरोहित-प्रपंच)। मैं कब तक भारत लौटूँगा अथवा नहीं – इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। मेरे लिए तो यहाँ भी भ्रमण करना है और वहाँ भी। किन्तु यहाँ पर हजारों व्यक्ति मेरी बातें सुनते हैं, समझते हैं – हजारों व्यक्तियों का भला होता है; मगर क्या यही चीज भारत के विषय में कही जा सकती है? मैं सारदा के कार्यों से पूर्णतया सहमत हूँ। उसे शतशः धन्यवाद! मद्रास तथा बम्बई में मेरे मनोनुकूल अनेक व्यक्ति हैं। वे विद्वान् हैं तथा सभी बातों को समझते हैं, साथ ही दयालु भी हैं ; अतः परहितचिकीर्षा क्या वस्तु है – यह भली भाँति समझ सकते हैं।… मेरे जीवन की अतीत घटनाओं की पर्यालोचना से मुझे किसी प्रकार का अनुताप नहीं होता। लोगों को कुछ न कुछ शिक्षा देते हुए मैंने विभिन्न देशों का पर्यटन किया है और उसके बदले रोटियों के टुकड़ों से अपनी उदर-पूर्ति की है। यदि मैं यह देखता कि लोगों को ठगने के सिवाय मैंने और कुछ भी कार्य नहीं किया है, तो आज स्वयं अपने गले में फाँसी लगाकर मैं मर जाता। लोगों को शिक्षा देने में जो अपने को अयोग्य समझते हैं, ऐसे लोग शिक्षकों का चोग़ा पहनकर क्यों दूसरों को ठगकर अपना पेट भरते हैं? क्या यह महापाप नहीं है?…इति।

तुम्हारा,
नरेन्द्र


  1. दुर्बल व्यक्ति इस आत्म-तत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता।
  2. यदि कहो कि ब्रह्म – आत्मा – है, तो अस्तिस्वरूप हो जाओगे और यदि कहो कि ब्रह्म – आत्मा – नहीं है, तो नास्तिस्वरूप हो जाओगे।
  3. पिंजरे के सिंह की तरह वह इस जगद्रूपी जाल को भेदकर निकल जाता है।
  4. वे भारत की समग्र अतीत धार्मिक भावनाओं के मूर्त विग्रहस्वरूप थे। प्राचीन शास्त्रों का यथार्थ तात्पर्य क्या है और उसकी रचना किस प्रणाली के अनुसार तथा किस उद्देश्य से हुई, इन तत्त्वों को केवल मात्र उनके जीवन से ही है हृदयंगम कर सका हूँ।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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