स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी शिवानन्द को लिखित (1894)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी शिवानन्द को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका
१८९४
प्रिय शिवानन्द,
तुम्हारा पत्र अभी मिला। तुम्हें मेरे पहले के पत्र मिल चुके होंगे और मालूम हो गया होगा कि अमेरिका में और कुछ भी भेजने की आवश्यकता नहीं है। अति सर्वत्र वर्जयेत्। समाचार-पत्रों के इस हो-हल्ले ने निःसन्देह मुझे प्रसिद्ध कर दिया है, परन्तु इसका प्रभाव यहाँ की अपेक्षा भारत में अधिक है। इसके विपरीत समाचार-पत्रों की निरन्तर गर्मबाजारी से यहाँ के ऊँचे वर्गों के मनुष्यों के मन में एक अरुचि-सी पैदा हो जाती है। अतः जितना हुआ, वही पर्याप्त है। अब तुम लोग भारत में इन सभाओं के ढंग पर अपने आपको संगठित करने की चेष्टा करो। इस देश में तुम्हें और कुछ भेजने की आवश्यकता नहीं। धन के विषय में बात यह है कि मैंने सर्वप्रथम परमपूजनीया माताजी के लिए एक जगह बनाने का संकल्प कर लिया है, क्योंकि महिलाओं को उसकी पहले आवश्यकता है… माँ के स्थान के लिए मैं लगभग ७,००० रुपये भेज सकता हूँ। यदि वह पहले हो जाय, तो फिर मुझे किसी बात की चिन्ता नहीं। मुझे आशा है कि इस देश से जाने के बाद भी मुझे १,६०० रुपये प्रतिवर्ष मिलते रहेंगे। वह रुपया मैं महिलाओं के स्थान के लिए दे दूँगा, और फिर वह बढ़ता जायेगा। मैंने तुम्हें एक जगह ठीक करने के बारे में ही लिखा है…
मैं इससे पहले ही भारत लौट आता, परन्तु भारत में धन नहीं है। सहस्त्रों लोग रामकृष्ण परमहंस का आदर करते हैं, परन्तु कोई एक फूटी कौड़ी भी नहीं देता – यह है भारत! यहाँ लोगों के पास धन है, और वे लोग दान भी करते हैं। अगले जाड़े तक मैं भारत आ जाऊँगा। तब तक तुम लोग मिल-जुलकर रहो।
संसार सिद्धान्तों की कुछ भी परवाह नहीं करता। यहाँ लोग व्यक्तियों को ही मानते हैं। जो व्यक्ति उन्हें प्रिय होगा, उसके वचन वे शान्ति से सुनेंगे, चाहे वे कैसे ही निरर्थक हों – परन्तु जो मनुष्य उन्हें अप्रिय होगा, उसके वचन नहीं सुनेंगे। इस पर विचार करो और अपने आचरण में तदनुसार परिवर्तन करो। सब कुछ ठीक हो जायेगा। यदि तुम शासक बनना चाहते हो, तो सबके दास बनो। यही सच्चा रहस्य है। तुम्हारे वचन यदि कठोर भी होंगे, तब भी तुम्हारा प्रेम अपना प्रभाव दिखायेगा। मनुष्य प्रेम को पहचानता है, चाहे वह किसी भी भाषा में व्यक्त हुआ हो।
मेरे भाई, रामकृष्ण परमहंस ईश्वर के बाप थे, इसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है। परन्तु उनकी शिक्षाओं की सत्यता लोगों को स्वयं देखने दो, – ये चीजें तुम उन पर थोप नहीं सकते – और यही मेरी आपत्ति है।
लोगों को अपना मत प्रकट करने दो। हम इसमें क्यों आपत्ति करें? रामकृष्ण परमहंस का अध्ययन किये बिना वेद-वेदान्त, भागवत और अन्य पुराणों में क्या है यह समझना असम्भव है। उनका जीवन भारतीय धार्मिक विचार-समूह के लिए एक अनन्त शक्ति सम्पन्न सर्चलाइट है। वेदों के और वेदान्त के वे जीवित भाष्य थे। भारत के जातीय धार्मिक जीवन का एक समग्र कल्प उन्होंने एक जीवन में पूरा कर दिया था।
भगवान् श्री कृष्ण का कभी जन्म हुआ था या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम, और बुद्ध, चैतन्य आदि अवतार एकदेशीय हैं; पर रामकृष्ण परमहंस सर्वाधुनिक हैं और सबसे पूर्ण हैं – ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, उदारता और लोकहितचिकीर्षा के मूर्तिमान स्वरूप हैं। किसी दूसरे के साथ क्या उनकी तुलना हो सकती है? जो उन्हें समझ नहीं सकता है, उसका जीवन व्यर्थ है। मैं परम भाग्यवान हूँ कि मैं जन्म-जन्मान्तर से उनका दास रहा हूँ। उनका एक शब्द भी वेद-वेदान्त से अधिक मूल्यवान है। तस्य दासदासदासोऽहम – मैं उनके दासों के दासों का दास हूँ! किन्तु वैचित्र्यहीन कट्टरता उनकी भावधारा का परिपन्थी है, उसीसे मैं चिढ़ता हूँ। उनका नाम भले ही डूब जाय, परन्तु उनकी शिक्षा फलप्रद हो! क्या वे नाम के दास थे? भाई, चंद मछुओं और मल्लाहों ने ईसा समीह को ईश्वर कहा था, परन्तु पण्डितों ने उन्हें मार डाला; बुद्ध को उनके जीवन-काल में बनियों-चरवाहों ने मान लिया था परन्तु रामकृष्ण को उनके जीवन-काल में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में विश्वविद्यालय के भूत ब्रह्मदैत्यों ने ईश्वर कहकर पूजा की… (कृष्ण, बुद्ध, ईसा आदि) के विषय में केवल दो चार ही बातें पोथी-पुराणों में हैं। ‘जिसके साथ हम कभी नहीं रहे हैं, वह अवश्य ही बड़ी घरनी होगी।’ यहाँ तो जन्मावधि रातदिन संग करने के बावजूद वे उन सब ही से अधिक बड़े प्रतीत होते हैं – क्या इस बात का अंदाज लगा सकते हो, भाई?’
‘माँ’ का स्वरूप तत्वतः क्या है तुम लोग अभी नहीं समझ सके हो – तुममें से एक भी नहीं। किन्तु धीर-धीरे तुम जानोगे। भाई, शक्ति के बिना जगत् का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि संसार के सब देशों में हमारा देश ही सबसे अधम है, शक्तिहीन है, पिछड़ा हुआ है? इसका कारण यही है कि वहाँ शक्ति की अवमानना होती है। उस महाशक्ति को भारत में पुनः जाग्रत करने के लिए माँ का आविर्भाव हुआ है, और उन्हें केन्द्र बनाकर फिर से जगत् में गार्गी और मैत्रेयी जैसी नारियों का जन्म होगा। भाई, अभी तुम क्या देख रहे हो, धीरे-धीरे सब समझ जाओगे। इसलिए उनके मठ का होना पहले आवश्यक है… रामकृष्ण परमहंस भले ही न रहें, मैं भीत नहीं हूँ। माँ के न रहने से सर्वनाश हो जायेगा। शक्ति की कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। अमेरिका और यूरोप में क्या देख रहा हूँ? – शक्ति की उपासना। परन्तु वे उसकी उपासना अज्ञानवश करते हैं, इन्द्रिय भोग द्वारा करते हैं। फिर जो पवित्रतापूर्वक सात्त्विक भाव द्वारा उसे पूजेंगे, उनका कितना कल्याण होगा! दिन पर दिन सब समझता जा रहा हूँ। मेरी आँखें खुलती जा रही हैं। इसलिए माँ का मठ पहले बनाना पड़ेगा। पहले माँ और उनकी पुत्रियाँ फिर पिता और उनके पुत्र – क्या तुम यह समझ सकते हो? सभी अच्छे हैं, सबको आशीर्वाद दो। भाई दुनियाभर में एक उनके यहाँ के अलावा हर जगह भावादर्श में तथा उसके निर्वाह में कमी होती है। भाई, नाराज न होना, तुम सब में से किसी ने भी अभी तक माँ को समझ नहीं पाया है। माँ की कृपा मुझ पर बाप की कृपा से लाखगुनी है। माँ की कृपा, माँ का आशीष मेरे लिए सर्वोपरि है।…कृपया मुझे क्षमा करो, मैं माँ के विषय में कुछ कट्टर हूँ। माँ की आज्ञा होने पर वीरभद्र भूतप्रेत कुछ भी काम कर सकते हैं। तारक भाई, अमेरिका के लिए प्रस्थान करने से पहले मैंने माँ को लिखा था कि वे मुझे आशीर्वाद दें। उनका आशीर्वाद आया और एक ही छलाँग में मैंने समुद्र पार कर लिया। इसी से समझलो! इस विकट शीतकाल में मैं स्थान-स्थान में भाषण कर रहा हूँ। और विषम बाधाओं से लड़ रहा हूँ, जिससे कि माँ के मठ के लिए कुछ धन एकत्र हो सके। बुढ़ापे में बाबूराम की माँ का बुद्धिलोप हुआ है। जीती जागती दुर्गा को छोड़कर मिट्टी की दुर्गा पूजने चली है। भाई, विश्वास अनमोल धन है। भाई, जीती जागती दुर्गा की पूजा कर दिखाऊँगा, तब मेरा नाम लेना। जमीन ख़रीद कर जीती जागती दुर्गा हमारी माँ को जब ले जाकर बिठा दोगे, उस दिन मैं दम लूँगा। उसके पहले मैं देश नहीं लौट रहा हूँ। जितनी जल्दी कर सको – । अगर रुपये भेज सकूँ तो दम लेकर सुस्ताऊँ। तुम लोग सात्रो-सामान जुटाकर मेरा यह दुर्गोत्सय सम्पन्न कर दो, मैं देखूँ। गिरीश घोष माँ की खूब पूजा कर रहा है, वह धन्य है, उसका कुल धन्य है। भाई, माँ का स्मरण होने पर समय-समय पर कहता हूँ, ‘को रामः?’ भाई, वही जो कह रहा हूँ, वही मेरी कट्टरता है। निरंजन लट्ठबाजी करता है, परन्तु माँ के लिए उसके मन में बड़ी भक्ति है। लाठी हजम हो जाती है। निरंजन ऐसा कार्य कर रहा है कि तुम सुनोगे तो तुम्हें अचरज होगा। मैं सब ख़बर रखता हूँ। और तुमने भी मद्रासियों के साथ सहयोग करके बहुत अच्छा किया। भाई, मुझे तुम पर बड़ा भरोसा है। सबको साथ लेकर काम करने के लिए संचालित करो। तुमने माँ के लिए जमीन ली और मैं भी सीधा आ ही गया। जमीन बड़ी चाहिए। शुरू में मिट्टी का घर ही ठीक रहेगा, धीरे-धीरे पक्का मकान उठाऊँगा चिन्ता न करो।
मलेरिया का मुख्य कारण पानी है। क्यों नहीं तुम दो तीन फिल्टर बना लेते? पानी को उबाल कर छान लेने से कोई भय नहीं रहता। हरीश के बारे में तो मुझे कुछ भी सुनने को नहीं मिलता। और दक्षराजा कैसा है? सभी का विशेष समाचार भेजना। हमारे मठ की कोई चिन्ता नहीं। मैं स्वदेश लौट कर सब ठीकठाक करूँगा? दो बड़े ‘पस्तूर’ के फिल्टर मोल ले लो, जो कीटाणुओं से सुरक्षित हों। उसी पानी में खाना पकाओ और उसे पीने के काम में लाओ, मलेरिया का कभी नाम भी न सुनायी पड़ेगा।… आगे बढ़ो, आगे बढ़ो; काम, काम, काम – अभी यह तो आरम्भ ही है।
सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द