स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी तुरीयानन्द को लिखित (अगस्त, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी तुरीयानन्द को लिखा गया पत्र)
६ प्लेस द एतात युनि,
पेरिस,
अगस्त, 1900
भाई हरि,
मैं अब फ़्रान्स में समुद्र के किनारे रह रहा हूँ। धर्मेतिहास सम्मेलन समाप्त हो चुका है। सम्मेलन कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं था। लगभग बीस पण्डित मिलकर शालग्राम की उत्पत्ति, जिहोवा की उत्पत्ति आदि विषयों पर व्यर्थ का बकवाद करते रहे। मैंने भी अवसर के अनुकूल कुछ कह दिया।
मेरे शरीर एवं मन भग्न हो चुके हैं। विश्राम की आवश्यकता है। फिर भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिस पर निर्भर रहा जा सके, और इधर जब तक मैं जीवित रहूँगा, मुझ पर भरोसा रखकर सब कोई नितान्त स्वार्थी बन जायँग़े।
…लोगों के साथ व्यवहार करने में दिन-रात मानसिक कष्ट का अनुभव होता है। इसलिए… लिख-पढ़कर मैं पृथक् हो चुका हूँ। अब मैं यह लिखे दे रहा हूँ कि किसीका भी एकाधिपत्य न रहेगा। सभी कार्य बहुमत से सम्पन्न होंगे… जितने शीघ्र इस प्रकार के न्यास-संलेख (trust deed) का सम्पादन हो, उतना ही अच्छा है, तभी मुझे कहीं शान्ति मिलेगी।… अस्तु, स्मारं स्मारं स्वगृहचरितं मुरारि काष्ठस्वरूप हो गये।1 काठ बनने के डर से मैं भाग रहा हूँ, इसमें दोष ही क्या है?
इस बात को यहीं तक रहने दो। अब तुम लोगों की जैसी इच्छा हो करो। अपना कार्य मैं समाप्त कर चुका हूँ, बस! गुरू महाराज का मैं ऋणी था – प्राणों की बाजी लगाकर मैं ने उस ऋण को चुकाया है। यह बात तुम्हें कहाँ तक बतलाऊँ? समस्त कर्तृत्व का दस्तावेज बनाकर मुझे भेजा गया है। कर्तृत्व को छोड़कर बाकी सभी स्थलों पर मैने हस्ताक्षर कर दिया है!…
तुमको एवं गंगाधर को और काली, शशि तथा नवीन बालकों को पृथक् रखकर राखाल एवं बाबूराम को मैं कर्तृत्व सौंप रहा हूँ। गुरूदेव उन्हें ही श्रेष्ठ मानते थे। यह उनका ही कार्य है।… मैंने हस्ताक्षर कर दिये हैं। अब जो कुछ मैं करूँगा, वह मेरा निजी कार्य होगा।…
अब मैं अपना कार्य करने के लिए जा रहा हूँ। गुरू महाराज के ऋण को2 अपने प्राणों की बाजी लगाकर मैंने चुकाया है। अब मेरे लिए उनका कोई कर्ज चुकाना शेष नहीं है और न उनका ही मुझ पर कोई दावा है।…
तुम लोग जो कुछ कर रहो हो, वह गुरू महाराज का कार्य है, उसे करते रहो। मुझे जो कुछ करने का था, मैं कर चुका हूँ, बस। मुझे उस बारे में और कुछ न लिखना और न बतलाना, उसमें मेरा कोई भी अभिमत नहीं है।… अब सब कुछ भिन्न प्रकार से होगा।… इति।
नरेन्द्र
पुनश्च – सबसे मेरा प्यार कहना। इति
- २६ मई, १८९० ई० को श्री प्रमदादास मित्र महोदय के लिए लिखित पत्र को देखिए।
- २६ मई, १८९० ई० को श्री प्रमदादास मित्र महोदय के लिए लिखित पत्र को देखिए।