धर्मस्वामी विवेकानंद

राज योग पर छः पाठ – प्रस्तावना

स्वामी विवेकानंद कृत योग-विषयक इस पुस्तक के शेष पाठ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – राजयोग के छः पाठ

Raja Yoga Par Chhah Paath: Prastavana

संसार के अन्य विज्ञानों की भांति राजयोग भी एक विज्ञान है। यह विज्ञान मन का विश्लेषण तथा अतीन्द्रिय जगत् के तथ्यों का संकलन करता है और इस प्रकार आध्यात्मिक जगत् का निर्माण करता है। संसार के सभी महान् उपदेष्टाओं ने कहा है, “हमने सत्य देखा और जाना है।” ईसा मसीह, पॉल और पीटर सभी ने जिन सत्यों की शिक्षा दी, उनका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने का दावा किया है।

यह प्रत्यक्ष अनुभव योग द्वारा प्राप्त होता है।

हमारे अस्तित्व की सीमा केवल चेतना अथवा स्मृति नहीं हो सकती। एक अतिचेतन भूमिका भी है। इस अवस्था में और सुषुप्ति में संवेदनाएँ नहीं प्राप्त होतीं। किन्तु इन दोनों के बीच ज्ञान और अज्ञान जैसा आकाश-पाताल का भेद है। यह आलोच्य योगशास्त्र ठीक विज्ञान के ही समान तर्कसंगत है।

मन की एकाग्रता ही समस्त ज्ञान का उद्गम है।

योग हमें जड़-तत्त्व को अपना दास बनाने की शिक्षा देता है, और उसको हमारा दास होना ही चाहिए। योग का अर्थ जोड़ना है अर्थात् जीवात्मा को परमात्मा के साथ जोड़ना, मिलाना।

मन चेतना में और उसके नीचे के स्तर में कार्य करता है। हम लोग जिसे चेतना कहते हैं, वह हमारे स्वरूप की अनन्त शृंखला की एक कड़ी मात्र है।

हमारा यह ‘अहम्’ किंचित् मात्र चेतना और विपुल अचेतना को घेरे रहता है, जब कि उसके परे, और उसकी प्रायः अज्ञात, अतिचेतन की भूमिका है।

श्रद्धाभाव से योगाभ्यास करने पर मन का एक के बाद एक स्तर खुलता जाता है और प्रत्येक स्तर नये तथ्यों को प्रकाशित करता है। हम अपने सम्मुख नये जगतों की सृष्टि होती सी देखते हैं, नयी शक्तियाँ हमारे हाथों में आ जाती हैं, किन्तु हमें मार्ग में ही नहीं रुक जाना चाहिए, और जब हमारे सामने हीरों की खान पड़ी हो, तो काँच के मणियों से हमें चौंधिया नहीं जाना चाहिए।

केवल ईश्वर ही हमारा लक्ष्य है। उसकी प्राप्ति न हो पाना ही हमारी मृत्यु है।

सफलताकांक्षी साधक के लिए तीन बातों की आवश्यकता है।

पहली है ऐहिक और पारलौकिक इन्द्रियभोग-वासना का त्याग और केवल भगवान् और सत्य को लक्ष्य बनाना। हम यहाँ सत्य की उपलब्धि के लिए हैं, भोग के लिए नहीं। भोग पशुओं के लिए छोड़ दो, जिनको हमारी अपेक्षा उसमें कहीं अधिक आनन्द मिलता है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, और मृत्यु पर विजय तथा प्रकाश को प्राप्त कर लेने तक उसे संघर्ष करते ही रहना चाहिए। उसे फिजूल की बातचीत में अपनी शक्ति नष्ट नहीं करनी चाहिए। समाज की पूजा एवं लोकप्रिय जनमत की पूजा मूर्ति-पूजा ही है। आत्मा का लिंग, देश, स्थान या काल नहीं होता।

दूसरी है सत्य और भगवत्प्राप्ति की तीव्र आकांक्षा। जल में डूबता मनुष्य जैसे वायु के लिए व्याकुल होता है, वैसे ही व्याकुल हो जाओ। केवल ईश्वर को ही चाहो, और कुछ भी स्वीकार न करो। जो आभास मात्र है, उससे धोखा न खाओ। सब से विमुख होकर केवल ईश्वर की खोज करो।

तीसरी बात में छह अभ्यास हैं :

  1. मन को बहिर्मुख न होने देना।
  2. इन्द्रिय-निग्रह।
  3. मन को अन्तर्मुख बनाना।
  4. प्रतिकाररहित सहिष्णुता या पूर्ण तितिक्षा।
  5. मन को एक भाव में स्थिर रखना। ध्येय को सम्मुख रखो, और उसका चिन्तन करो। उसे कभी अलग न करो। समय का हिसाब मत करो।
  6. अपने स्वरूप का सतत चिन्तन करो।

अन्धविश्वास का परित्याग कर दो। ‘मै तुच्छ हूँ’ इस तरह सोचते हुए अपने को सम्मोहित न करो। जब तक तुम ईश्वर के साथ एकात्मता की अनुभूति (वास्तविक अनुभूति) न कर लो, तब तक रात-दिन अपने आपको बताते रहो कि तुम यथार्थतः क्या हो।

इन साधनाओं के बिना कोई भी फल प्राप्त नहीं हो सकता।

हम उस सर्वातीत सत्ता या ब्रह्म की धारणा कर सकते हैं, पर उसे भाषा के द्वारा व्यक्त करना असम्भव है। जैसे ही हम उसे अभिव्यक्त करने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही हम उसे सीमित बना डालते हैं और वह ब्रह्म नहीं रह जाता।

हमें इन्द्रिय-जगत् की सीमाओं के परे जाना है और बुद्धि से भी अतीत होना है। और ऐसा करने की शक्ति हममें है भी।

(एक सप्ताह तक प्राणायाम के प्रथम पाठ का अभ्यास करने के पश्चात् शिष्य को चाहिए कि वह गुरु को अपना अनुभव बताए।)

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