धर्मस्वामी विवेकानंद

स्वामीजी का शिष्य को ऋग्वेद पढ़ाना – विवेकानंद जी के संग में

विषय – स्वामीजी का शिष्य को ऋग्वेद पढ़ाना – पण्डित मैक्समूलर के सम्बन्ध में स्वामीजी का अद्भुत विश्वास – ईश्वर ने वेदमन्त्र का आश्रय लेकर सृष्टि रची है; इस वैदिक मत का अर्थ – वेद शब्दात्मक – ‘शब्द’ पद का प्राचीन अर्थ – नाद से शब्द का और शब्द से स्थूल जगत् के विकास का समाधि-अवस्था में प्रत्यक्ष होना – समाधि-अवस्था में अवतारी पुरुषों को यह विषय कैसा प्रतिभाद होता है – स्वामीजी की सहृदयता – ज्ञान और प्रेम केअविच्छेद्य सम्बन्ध के विषय में गिरीश बाबू से शिष्य का वार्तालाप – गिरीश बाबू के सिद्धान्त शास्त्र के विरोधी नहीं – गुरुभक्तिरूप शक्ति से गिरीश बाबू ने सत्यसिद्धान्तों को प्रत्यक्ष किया – बिना समझे ही दूसरों का अनुकरण करने लगना अनुचित है – भक्त तथा ज्ञानी भिन्न भिन्न स्थानों से निरीक्षण करके कहते हैं, इसीसे उनके कथन में कुछ भिन्नता का आभास होना – सेवाश्रम स्थापन करने के निमित स्वामीजी का विचार।

स्थान – कलकत्ता

वर्ष – १८९७ ईसवी

आज दस दिन से शिष्य स्वामी विवेकानंद जी से ऋग्वेद का सायण-भाष्य पढ़ता है। स्वामीजी बागबाजार में स्व. बलराम बसुजी के भवन में ही ठहरे हुए हैं। किसी धनी के घर से मैक्समूलर के प्रकाशित किये हुए ऋग्वेद ग्रन्थ के सब भाग लाये गये हैं। प्रथम तो ग्रन्थ नया, तिस पर वैदिक भाषा कठिन होने के कारण अनेक स्थानों पर शिष्य अटक जाता था। यह देखकर स्वामी विवेकानंद उसको स्नेह से गँवार कहकर कभी कभी उसकी हँसी उड़ाते थे और उन स्थानों का उच्चारण तथा पाठ बतलाते थे। वेद के अनादित्व को प्रमाणित करने के निमित्त सायनाचार्य ने जो अद्भुत युक्तिकौशल प्रकट किया है उसकी व्याख्या करते समय स्वामीजी ने भाष्यकार की बहुत प्रशंसा की और कहीं कहीं प्रमाण देकर उन पदों के गूढ़ार्थ पर अपना भिन्न मत प्रकट कर सायन की ओर कटाक्ष भी किया।

इसी प्रकार कुछ देर तक पठन-पाठन होने पर स्वामीजी ने मैक्समूलर के सम्बन्ध में कहा, “मुझे कभी कभी ऐसा अनुमान होता है कि स्वयं सायनाचार्य ने अपने भाष्य का अपने ही आप उद्धार करने के निमित मैक्समूलर के रूप में पुनः जन्म लिया है। ऐसा सिद्धान्त मेरा बहुत दिनों से था, पर मैक्समूलर को देखकर मेरा सिद्धान्त और भी दृढ़ हो गया है। ऐसा परिश्रमी और ऐसा वेदवेदान्तसिद्ध पण्डित हमारे देश में भी नहीं पाया जाता। इसके अतिरिक्त श्रीरामकृष्ण पर भी उनकी कैसी गम्भीर भक्ति थी! उनके अवतारत्व पर भी उनका विश्वास है। मैं उनके ही भवन में अतिथि रहा था – कैसी देखभाल और सत्कार किया दोनों वृद्ध पति-पत्नी को देखकर ऐसा अनुमान होता था कि मानो श्री वशिष्ठ देव और देवी अरुन्धती संसार में वास कर रहे हैं। मुझे विदा करते समय वृद्ध की आँखों से आँसू टपकने लगे।”

शिष्य – अच्छा महाराज, यदि सायन ही मैक्समूलर हुए हैं, तो पवित्र भूमि भारत को छोड़कर उन्होंने म्लेच्छ बन कर क्यों जन्म लिया?

स्वामीजी – ‘मैं आर्य हूँ’, ‘वे म्लेच्छ हैं’ आदि विचार अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं। जो वेद के भाष्यकार हैं, जो ज्ञान की तेजस्वी मूर्ति हैं उनके लिए वर्णाश्रम या जातिविभाग कैसा? उनके सम्मुख यह सब अर्थहीन है। जीव के उपकारार्थ वे जहाँ चाहें, जन्म ले सकते हैं। विशेषकर जिस देश में विद्या और धन दोनों हैं, वहाँ यदि जन्म न लेते, तो ऐसा बड़ा ग्रन्थ छापने का व्यय कहाँ से आता? क्या तुमने नहीं सुना कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस ऋग्वेद के छपवाने के लिए नौ लाख रुपये नगद दिये थे, परन्तु उससे भी काम पूरा नहीं हुआ। यहाँ के (भारत के) सैकड़ो वैदिक पण्डितों को मासिक वेतन देकर इस कार्य में नियुक्त्त किया गया था। विद्या और ज्ञान के निमित्त इतना व्यय और ऐसी प्रबल ज्ञान की तृष्णा वर्तमान समय में क्या किसी ने इस देश में देखी हैं? मैक्समूलर ने स्वयं ही भूमिका में लिखा है कि वे पच्चीस वर्ष तक तो केवल इसके लिखने में ही लगे रहे और फिर छपवाने में बीस वर्ष और लगे। पैंतालिस वर्ष तक एक ही पुस्तक में लगे रहना क्या साधारण मनुष्य का कार्य है? इसीसे समझ लो कि मैं क्यों उनको स्वयं सायन कहता हूँ।

मैक्समूलर के विषय में ऐसा वार्तालाप होने के पश्चात् फिर ग्रन्थ पाठ होने लगा। वेद का आश्रय लेकर ही सृष्टि का विकास हुआ है, यह जो सायन का मत है, स्वामीजी ने नाना प्रकार से इसका समर्थन किया और कहा, “वेद का अर्थ अनादि सत्यों का समूह है। वेदज्ञ ऋषियों ने इन सत्यों को प्रत्यक्ष किया था। बिना अतीन्द्रिय दृष्टि के साधारण दृष्टि से ये सत्य प्रत्यक्ष नहीं होते। इसीसे वेद में ऋषि का अर्थ मन्त्रार्थदर्शी है, यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मणादि जातिविभाग वेद के बाद हुआ था। वेद शब्दात्मक अर्थात् भावात्मक हैं – अथवा अनन्त भावराशि की समष्टि को ही वेद कहते हैं। ‘शब्द’ इस पद का वैदिक प्राचीन अर्थ सूक्ष्म भाव है, जो फिर आगे स्थूल रूप से अपने को व्यक्त्त करता है। इसलिए प्रलयकाल में भावी सृष्टि का सूक्ष्म बीजसमूह वेद में ही सम्पुटित रहता है। इसीसे पुराण में पहले पहल मीनावतार से वेद का उद्धार दिखायी देता है। प्रथमावतार से ही वेद का उद्धार हुआ। फिर उसी वेद से क्रमशः सृष्टि का विकास होने लगा। अर्थात् वेदनिहित शब्दों का आश्रय लेकर विश्व के सब स्थूल पदार्थ एक एक करके बनने लगे, क्योंकि शब्द या भाव सब स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म रूप हैं। पूर्व कल्पों में भी इसी प्रकार सृष्टि हुई थी, यह बात वैदिक सन्ध्या के मन्त्र में ही है, ‘सूर्या चन्द्रम सौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवश्च पृथिवीं चान्तरीक्षमथो स्वः।’ समझे?”

शिष्य – परन्तु महाराज, यदि कोई वस्तु ही न हो, तो शब्द किसके लिए प्रयोग होगा? और पदार्थों के नाम भी कैसे बनेंगे?”

स्वामीजी – वर्तमान अवस्था में ऐसा ही अनुमान होता है। परन्तु देखो यह जो घट है, इसके टूट जाने पर क्या घटत्व का नाश हो जायगा? क्योंकि यह घट स्थूल है और घटत्व घट की सूक्ष्म या शब्दावस्था है। इसी प्रकार सब पदार्थों की शब्दावस्था ही उनकी सूक्ष्मावस्था है और जिन वस्तुओं को हम देखते हैं, स्पर्श करते हैं, वे ऐसी शब्दावस्था में अवस्थित पदार्थों के स्थूल विकास मात्र हैं, जैसे कार्य और उसका कारण। जगत् के नाश होने पर भी जगत्बोधात्मक शब्द अर्थात् सब स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म स्वरूप, ब्रह्म में कारणरूप से वर्तमान रहते हैं। जगद्विकास होने के पूर्व ही प्रथम इन पदार्थों की सूक्ष्मस्वरूपसमष्टि लहराने लगती है और उसीका प्रकृतिस्वरूप शब्दगर्भात्मक अनादि नाद ओंकार अपने आप ही उठता है। उसके बाद उसी समष्टि से विशेष विशेष पदार्थों की प्रथम सूक्ष्म प्रतिकृति अर्थात् शाब्दिक रूप और तत्पश्चात् उनका स्थूल रूप प्रकट होता है। यह शब्द ही वेद है। यही सायन का अभिप्राय है, समझे?

शिष्य – महाराज, ठीक समझ में नहीं आया।

स्वामीजी – यहाँ तक तो समझ गये कि जगत् में जितने घट हैं उन सब के नष्ट होने पर भी ‘घट’ शब्द रह सकता है। फिर जगत् नाश हो जाने पर अर्थात् जिन वस्तुओं को समष्टि को जगत् कहते हैं, उनके नाश होने पर भी उन पदार्थों के बोध करानेवाले शब्द क्यों नहीं रह सकते हैं? और उनसे सृष्टि फिर क्यों नहीं प्रकट हो सकती?

शिष्य – परन्तु महाराज, ‘घट घट’ चिल्लाने से तो घट नहीं बनता है।

स्वामीजी – तेरे या मेरे इस प्रकार चिल्लाने से नहीं बनते किन्तु सिद्ध संकल्प ब्रह्म में घट की स्मृति होते ही घट का प्रकाश हो जाता है। जब साधारण साधकों की इच्छा से अघटन घटित हो जाता है, तब सिद्धसंकल्प ब्रह्म का कहना ही क्या है। सृष्टि से पूर्व ब्रह्म प्रथम शब्दात्मक बनते हैं, फिर ओंकारात्मक या नादात्मक होते हैं। तत्पश्चात् पहले कल्पों के विशेष विशेष शब्द जैसे भूः, भुवः, स्वः अथवा गो, मानव, घट, पट इत्यादि का प्रकाश उसी ओंकार से होता है। सिद्धसंकल्प ब्रह्म में क्रमशः एक एक शब्द के होते ही उसी क्षण उन उन पदार्थों का भी प्रकाश हो जाता है और इस विचित्र जगत का विकास हो उठता है। अब समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है?

शिष्य – हाँ महाराज, समझ में तो आया, किन्तु ठीक धारणा नहीं होती।

स्वामीजी – अरे बच्चा! प्रत्यक्षरूप से अनुभूति होना क्या ऐसा सुगम समझा है? जब मन ब्रह्मावगाही होता है, तभी वह एक एक करके ऐसी अवस्थाओं में से होकर निर्विकल्प अवस्था में पहुँचता है। समाधि के पूर्वकाल में पहले अनुभव होता है कि जगत् शब्दमय है, फिर वह शब्द गम्भीर ओंकार-ध्वनि में लीन हो जाता है। तत्पश्चात् वह भी सुनायी नहीं पड़ता और जो भी सुनने में आता है, उसके वास्तविक अस्तित्व पर सन्देह होने लगता है। इसी को अनादि नाद कहते हैं। इस अवस्था से आगे ही मन प्रत्यक्ब्रह्म में लीन हो जाता है। बस, यहाँ सब निर्वाक् और स्थिर हो जाता है।

स्वामीजी की बातों से शिष्य को स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि स्वामीजी स्वयं इन अवस्थाओं में से होकर समाधि-भूमि पर अनेक बार गमनागमन कर चुके हैं। यदि ऐसा न होता तो ऐसे विशद रूप से वे इन सब बातों को समझा कैसे रहे थे? शिष्य ने निर्वाक् होकर सुना और विचार किया कि स्वयं इन अवस्थाओं की अनुभूति न करने से कोई दूसरों को ऐसी सुगमता से इन बातों को समझा नहीं सकता।

स्वामीजी ने फिर कहा, “अवतारतुल्य महापुरुष लोग समाधि अवस्था से जब ‘मैं’ और ‘मेरा’ राज्य में लौट आते हैं, तब वे प्रथम ही अव्यक्त्त नाद का अनुभव करते हैं। फिर नाद के स्पष्ट होने पर ओंकार का अनुभव करते हैं। ओंकार के पश्चात् शब्दमय जगत् का अनुभव कर अन्त में स्थूल पंचभौतिक जगत् को प्रत्यक्ष देखते हैं। किन्तु साधारण साधक लोग अनेक कष्ट सहकर यदि किसी प्रकार से नाद के परे पहुँचकर ब्रह्म की साक्षात उपलब्धि करें भी, तो फिर जिस अवस्था में स्थूल जगत् का अनुभव होता है वहाँ वे उतर नहीं सकते – ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं – ‘क्षीरे नीरवत्’।”

यह वार्तालाप हो ही रहा था कि इसी समय महाकवि गिरीशचन्द्र घोष वहाँ आ पहुँचे। स्वामीजी उनका अभिवादन कर तथा कुशल प्रश्नादि पूछकर पुनः शिष्य को पढ़ाने लगे। गिरीश बाबू भी एकाग्रचित्त हो उसे सुनने लगे और स्वामीजी की इस प्रकार अपूर्व विशद रूप से वेदव्याख्या सुन मुग्ध होकर बैठे रहे।

पूर्व विषय का अनुसरण करके स्वामीजी फिर कहने लगे, “वैदिक और लौकिक भेद से शब्द दो अंशों में विभक्त हैं। ‘शब्दशक्तिप्रकाशिका’* में इसका विचार मैंने देखा है। इन विचारों से गम्भीर ध्यान का परिचय मिलता है, किन्तु पारिभाषिक शब्दों के मारे सिर में चक्कर आ जाता है।”

अब गिरीश बाबू की ओर मुँह करके स्वामीजी बोले, “क्या गिरीश बाबू, तुमने यह सब तो नहीं पढ़ा; केवल कृष्ण और विष्णु का नाम लेकर ही अपनी आयु बितायी है न?”

गिरीश बाबू – और क्या पढूँ भाई! इतना अवसर भी नहीं और बुद्धि भी नहीं कि वह सब समझ सकूँ। परन्तु श्रीगुरुदेव की कृपा से उन सब वेद-वेदान्तों को नमस्कार करके इस जन्म में ही पार उतर जाऊँगा। वे तुमसे अनेक कार्य करायेंगे, इसी निमित्त यह सब पढ़ा रहे हैं, उससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।

इतना ही कहकर गिरीश बाबू ने उस बृहत् ऋग्वेद को बारम्बार प्रणाम किया और कहा, “जय वेदरूपी रामकृष्णजी की जय!”

पाठकों से हम अन्यत्र कह चुके हैं कि स्वामीजी जब जिस विषय का उपदेश करते थे, तब सुननेवालों के मन में वह विषय ऐसी गम्भीरता से अंकित हो जाता था कि उस समय वे उस विषय को ही सब से श्रेष्ठ अनुमान करते थे। जब ब्रह्मज्ञान के विषय में कहा करते थे तब सुननेवाले उसको प्राप्त करना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझते थे। फिर जब भक्ति या कर्म या जातीय उन्नति आदि अन्यान्य विषयों का प्रसंग चलाते थे, तब श्रोता लोग उन विषयों को ही अपने मन में सबसे ऊंचा स्थान दिया करते थे और उन्हीं का अनुष्ठान करने को तत्पर हो जाया करते थे। अब स्वामीजी ने वेद के प्रसंग में शिष्य आदि को वेदोक्त्त ज्ञान की महिमा से इतना मोहित किया कि वे (शिष्य आदि) अब यह नहीं समझ सकते थे कि इससे भी और कोई श्रेष्ठ वस्तु हो सकती है। गिरीश बाबू ने इस बात को ताड़ लिया। स्वामीजी के महान् उदार भाव तथा शिक्षा देने की ऐसी सुन्दर रीति को वे पहले से ही जानते थे। अब गिरीश बाबू ने मन ही मन में एक नयी युक्ति सोची कि जिससे स्वामीजी अपने शिष्य को ज्ञान, भक्ति और कर्म का समान महत्त्व समझा दें।

स्वामीजी अन्यमनस्क होकर और ही कुछ विचार कर रहे थे। इसी समय गिरीश बाबू ने कहा, “हाँ जी नरेन्द्र, तुम्हें एक बात सुनाऊँ? वेद वेदान्त को तुमने पढ़ लिया, परन्तु देश में जो घोर हाहाकार, अन्नाभाव, व्यभिचार, भ्रूणहत्या तथा अन्य महापातकादि आँखों के सामने रात-दिन हो रहे हैं उनके दूर करने का भी कोई उपाय क्या तुम्हारे वेद में बतलाया है? आज तीन दिन से उस मकान की स्वामिनी के पास, जिसके घर में पहले प्रति दिन पचास पत्तल पड़ती थीं, रसोई पकाने की भी कोई सामग्री नहीं है। उस मकान की कुलस्त्रियों को गुण्डों ने अत्याचार करके मार डाला, कहीं भ्रूणहत्या हुई, कहीं विधवाओं का सारा धन कपट से लूट लिया गया। इन सब अत्याचारों के रोकने का कोई उपाय क्या तुम्हारे वेद में है?” इस प्रकार जब गिरीश बाबू सामाजिक भीषण चित्रों को सामने लाने लगे तो स्वामीजी निःस्तब्ध होकर बैठ गये। जगत् के दुःख और कष्ट को सोचते सोचते स्वामीजी की आँखों से आँसू टपकने लगे और इसके बाद वे उठकर बाहर चले गये, मानो वे हमसे अपने मन की अवस्था छिपाना चाहते हों।

इस अवसर पर गिरीश बाबू ने शिष्य को लक्ष्य करके कहा, “देखो, स्वामीजी कैसे उदार हृदय के हैं। मैं तुम्हारे स्वामीजी का केवल इसी कारण आदर नहीं करता कि वे वेद-वेदान्त के जाननेवाले एक बड़े पण्डित हैं; वरन् यह कि जीवों के दुःख से वे रो जो पड़े और रोते रोते बाहर चले गये, मैं उनके इसी सच्चे हृदय के कारण उनका सम्मान करता हूँ। तुमने तो सामने ही देखा कि मनुष्यों के दुःख और कष्ट की बातों को सुनकर उनका हृदय दया से पूर्ण हो गया और वेद-वेदान्त के सब विचार न जाने कहाँ भाग गये।”

शिष्य – महाशय, हम कितने प्रेम से वेद पढ़ रहे थे! आपने मायाधीन जगत् की क्या ऐसी-वैसी बातों को सुनाकर स्वामीजी का मन दुखा दिया।

गिरीश बाबू – क्या जगत् में ऐसे दुःख और कष्ट के रहते हुए भी स्वामीजी उधर न देखकर एकान्त में केवल वेद ही पढ़ते रहेंगे! उठाकर रख दो अपने वेद-वेदान्त को।

शिष्य – आप स्वयं हृदयवान हैं, इसी से केवल हृदय की भाषा को सुनने में आप की प्रीति है, परन्तु इन सब शास्त्रों में, जिनके अध्ययन से लोग जगत् को भूल जाते हैं, आपकी प्रीति नहीं है। नहीं तो आपने ऐसा रसभंग न किया होता।

गिरीश बाबू – अच्छा, ज्ञान और प्रेम में भेद कहाँ है, यह मुझे समझा तो दो। देखो तुम्हारे गुरु (स्वामीजी) जैसे पण्डित हैं, वैसे ही प्रेमी भी हैं। तुम्हारा वेद भी तो कहता है कि ‘सत्-चित्-आनन्द’ ये तीनों एक ही वस्तु हैं। देखो, स्वामीजी अभी कितना पाण्डित्य प्रकाश कर रहे थे, परन्तु जगत् के दुःख को सुनते ही और उन क्लेशों का स्मरण आते ही वे जीवों के दुःख से रोने लगे। यदि वेद-वेदान्त में ज्ञान और प्रेम में भेद दिखलाया गया है, तो मैं ऐसे शास्त्रों को दूर से ही दण्डवत् करता हूँ।

शिष्य निर्वाक् होकर सोचने लगा, “बिलकुल ठीक, गिरीश बाबू के सब सिद्धान्त यथार्थ में वेदों के अनुकूल ही हैं।”

इतने में स्वामीजी फिर आये और शिष्य को संबोधित करके कहा, “कहो, क्या बातचीत हो रही थी?” शिष्य ने उत्तर दिया, “वेदों का ही प्रसंग हो रहा था। गिरीश बाबू ने इन ग्रन्थों को नहीं पढ़ा है, परन्तु इनके सिद्धान्तों का ठीक ठीक अनुभव कर लिया है। यह बड़े ही विस्मय की बात है।”

स्वामीजी – गुरुभक्ति से सब सिद्धान्त प्रत्यक्ष हो जाते हैं, फिर पढ़ने या सुनने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, परन्तु ऐसी भक्ति और विश्वास जगत् में दुर्लभ हैं। जिनकी गिरीश बाबू के समान भक्ति और विश्वास हैं, उन्हें शास्त्रों को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं; परन्तु गिरीश बाबू का अनुकरण करना औरों के लिए हानिकारक है। उनकी बातों को मानो, पर उनके आचरण देखकर कोई कार्य न करो।

शिष्य – जी महाराज।

स्वामीजी – केवल ‘जी’ कहने से काम नहीं चलता। मैं जो कहता हूँ उसको ठीक ठीक समझ लो; मूर्ख के समान सब बातों पर ‘जी’ न कहा करो। मेरे कहने पर भी किसी बात पर विश्वास न किया करो। जब ठीक समझ जाओ तभी उसको ग्रहण करो। श्रीगुरुदेव ने अपनी सब बातों को समझकर ग्रहण करने को मुझसे कहा था, सद्युक्ति, तर्क और शास्त्र जो कहते हैं, उन सब को सदा अपने पास रखो। सत् विचार से बुद्धि निर्मल होती है और फिर उसी बुद्धि में ब्रह्म का प्रकाश होता है। अब समझे न?

शिष्य – जी हाँ; परन्तु भिन्न भिन्न लोगों की भिन्न भिन्न बातों से मस्तिष्क ठीक नहीं रहता। अब गिरीश बाबू ने कहा, ‘क्या होगा यह सब वेद-वेदान्त को पढ़कर?’ फिर आप कहते हैं, ‘विचार करो’। अब मुझे क्या करना चाहिए?

स्वामीजी – हमारी और उनकी दोनों की बातें सत्य हैं; परन्तु दोनों की उक्ति दो विभिन्न ओर से आयी हैं – बस। एक अवस्था ऐसी है, जहाँ युक्ति या तर्क का अन्त हो जाता है – ‘मूकास्वादनवत्’ और एक अवस्था है, जहाँ वेदादि शास्त्रों की आलोचना या पठनपाठन करते करते सत्य वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। तुम्हें इन सब को पढ़ना होगा, तभी तुमको यह बात प्रत्यक्ष होगी। निर्बोध शिष्य ने स्वामीजी के ऐसे आदेश को सुनकर और यह समझकर कि गिरीश बाबू परास्त हुए, उनकी ओर देखकर कहा, “महाशय, आपने तो सुना कि स्वामीजी ने मुझे वेद-वेदान्त का पठनपाठन और विचार करने का ही आदेश दिया है।”

गिरीश बाबू – तुम ऐसा ही करते जाओ। स्वामीजी के आशीर्वाद से तुम्हारा सब काम इसीसे ठीक हो जायगा।

अब स्वामी सदानन्द वहाँ आ पहुँचे। उनको देखते ही स्वामीजी ने कहा, “अरे, जी. सी. से देश की दुर्दशाओं को सुनकर मेरे प्राण बड़े व्याकुल हो रहे हैं। देश के लिए क्या तुम कुछ कर सकते हो?”

सदानन्द – महाराज, आदेश कीजिये, दास प्रस्तुत है।

स्वामीजी – पहले एक छोटा-सा सेवाश्रम स्थापित करो, जहाँ से सब दीन-दुखियों को सहायता मिला करे और जहाँ पर रोगियों तथा असहाय लोगों की बिना जाति-भेद के सेवा हुआ करे। समझे?

सदानन्द – जो महाराज की आज्ञा।

स्वामीजी – जीव सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। सेवाधर्म का यथार्थ अनुष्ठान करने से संसार का बन्धन सुगमता से छिन्न हो जाता है – ‘मुक्ति करफलायते।’

अब गिरीश बाबू से स्वामीजी बोले, “देखो गिरीश बाबू, मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत् के दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्रों बार जन्म लेना पड़े तो भी मैं तैयार हूँ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो, तो वह मैं करूँगा। और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा। सब को साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। क्या तुम कह सकते हो कि ऐसे भाव मन में क्यों उदय हो रहे हैं?”

गिरीश बाबू – यदि ऐसा न होता तो श्रीगुरुदेव तुम्हीं को सब से ऊँचा आधार क्यों कहा करते?

यह कहकर गिरीश बाबू अन्य कार्य के लिए चले गये।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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