धर्मस्वामी विवेकानंद

स्वामी जी में अद्भुत शक्ति का विकास – विवेकानंद जी के संग में

विषय – स्वामी जी में अद्भुत शक्ति का विकास – स्वामीजी के दर्शनके निमित्त कलकत्ते के अन्तर्गत बड़े बाजार के हिन्दुस्तानी पण्डितों का आगमन – पण्डितों के साथ संस्कृत भाषा में स्वामीजी का शास्त्रालाप – स्वामीजी केसम्बन्ध में पण्डितों की धारणा – स्वामीजी से उनके गुरुभाइयों की प्रीति -सभ्यता किसे कहते हैं – भारत की प्राचीन सभ्यता का विशेषत्व –श्रीरामकृष्णदेव के आगमन से प्राच्य तथा पाश्चात्य सभ्यता के सम्मेलन से एकनवीन युग का आविर्भाव – पाश्चात्य देश में धार्मिक लोगों के बाह्य चालचलनके सम्बन्ध में विचार – भावसमाधि तथा निर्विकल्प समाधि की विभिन्नता श्रीरामकृष्ण भावराज्य के अधिराज – ब्रह्मज्ञ पुरुष ही यथार्थ में लोकगुरु – कुलगुरु प्रथा की अपकारिता – धर्म की ग्लानि दूर करने को ही श्रीरामकृष्णका आगमन – पाश्चात्य जगत् में स्वामीजी ने श्रीरामकृष्ण का किस प्रकार से प्रचार किया।

स्थान – काशीपुर, स्व. गोपाललाल शील का उद्यान

वर्ष – १८९७ ईसवी

स्वामीजी विलायत से प्रथम बार लौटकर कुछ दिन तक काशीपुर में स्व. गोपाललाल शील के उद्यान में विराजे। शिष्य का उस समय वहाँ प्रतिदिन आना-जाना रहता था। स्वामीजी के दर्शन के निमित केवल शिष्य ही नहीं वरन् और बहुतसे उत्साही युवकों की वहाँ भीड़ रहती थी। कुमारी मूलर ने स्वामीजी के साथ आकर प्रथम वहीं अवस्थान किया था। शिष्य के गुरुभाई गुडविन साहब भी इसी उद्यान-वाटिका में स्वामीजी के साथ रहते थे।

उससमय स्वामीजी का यश भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल रहा था। इसी कारण कोई कौतुकाविष्ट होकर, कोई धर्मतत्त्व पूछने के निमित्त और कोई स्वामीजी के ज्ञान की परीक्षा लेने को उनके पास आता था।

शिष्य ने देखा कि प्रश्न करनेवाले लोग स्वामीजी के शास्त्रव्याख्यानों को सुनकर मोहित हो जाते थे और उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा से बड़े बड़े दार्शनिक और विश्वविद्यालयों के प्रसिद्ध पण्डितगण विस्मित हो जाते थे; मानो स्वामीजी के कण्ठ में स्वयं सरस्वती माता ही विराजमान हैं। इसी उद्यान में रहते समय उनकी अलौकिक योगदृष्टि का परिचय समय समय पर होता रहता था।1

कलकत्ते के बड़े बाजार में बहुतसे पण्डित लोग रहते हैं, जिनका प्रतिपालन मारवाडियों के अन्न से ही होता है। इन सब वेदज्ञ एवं दार्शनिक पण्डितों ने भी स्वामीजी की कीर्ति सुनी थी। इनमें से कुछ प्रसिद्ध पण्डित लोग स्वामीजी से शास्त्रार्थ करने के निमित्त एक दिन इस बाग में आ पहुँचे। शिष्य उस दिन वहाँ उपस्थित था। आये हुए पण्डितों में से प्रत्येक धाराप्रवाह संस्कृत भाषा में वार्तालाप कर सकता था। उन्होंने आते ही मण्डलीवेष्टित स्वामीजी का सत्कार कर संस्कृत भाषा में उनसे वार्तालाप आरम्भ किया। स्वामीजी ने भी संस्कृत ही में उत्तर दिया। उस दिन कौनसे विषय पर पण्डितों का वाद-विवाद हुआ था यह अब शिष्य को स्मरण नहीं है, परन्तु यह जान पड़ता है कि लगभग सभी पण्डितों ने एक स्वर से चिल्लाकर संस्कृत में दर्शनशास्त्रों के कूट प्रश्न किये और स्वामीजी ने शान्ति तथा गम्भीरता के साथ धीरे धीरे उन सभी विषयों पर अपने सिद्धान्तों को कहा। यह भी अनुमान होता है कि स्वामीजी की संस्कृत भाषा पण्डितों की भाषा से सुनने में अधिक मधुर तथा सरस थी। पण्डितों ने भी बाद में इस बात को स्वीकार किया।

उस दिन संस्कृत भाषा में स्वामीजी का ऐसा धाराप्रवाह वार्तालाप सुनकर उनके सब गुरुभाई भी मुग्ध हो गये थे, क्योंकि वे जानते थे कि छः वर्ष यूरोप और अमरीका में रहने से स्वामीजी को संस्कृत भाषा की आलोचना करने का कोई अवसर नहीं मिला। शास्त्रदर्शी पण्डितों के साथ उस दिन स्वामीजी के ऐसे विचार सुनकर उन्होंने समझा कि स्वामीजी में अद्भुत शक्ति प्रकट हुई है। उसी सभा में श्री रामकृष्णानन्द, योगानन्द, निर्मलानन्द, तुरीयानन्द और शिवानन्द स्वामी भी उपस्थित थे।

इस विचार में स्वामीजी ने सिद्धान्तपक्ष को ग्रहण किया था और पण्डितों ने पूर्वपक्ष को लिया था। शिष्य को स्मरण है कि स्वामीजी ने एक स्थान पर ‘अस्ति’ के बदले ‘स्वस्ति’ का प्रयोग कर दिया था, इस पर पण्डित लोग हँस पड़े। पर स्वामीजी ने तत्क्षण कहा, “पण्डितानां दासोऽहं क्षन्तव्यमेतत् स्खलनम्” अर्थात् मैं पण्डितों का दास हूँ, व्याकरण की इस त्रुटि को क्षमा कीजिये। स्वामी की ऐसी नम्रता से पण्डित लोग मुग्ध हो गये। बहुत वादानुवाद के पश्चात् पण्डितों ने सिद्धान्तपक्ष की मीमांसा को ही यथेष्ट कहकर स्वीकार किया और स्वामीजी से प्रीतिपूर्वक सम्भाषण करके वापस जाना निश्चित किया। उपस्थित लोगों में से दो चार लोग पण्डितों के पीछे पीछे गये और उनसे पूछा, “महाराज, आपने स्वामीजी को कैसा समझा?” उनमें से जो एक वृद्ध पण्डित थे उन्होंने उत्तर दिया, “व्याकरण में गम्भीर बोध न होने पर भी स्वामीजी शास्त्रों के गूढ़ अर्थ समझनेवाले हैं; मीमांसा करने में उनके समान दूसरा कोई नहीं है और अपनी प्रतिभा से वादखण्डन में उन्होंने अद्भुत पाण्डित्य दिखलाया।”

स्वामीजी पर उनके गुरुभाइयों का सर्वदा कैसा अद्भुत प्रेम पाया जाता था! जब पण्डितों से स्वामीजी का वादानुवाद हो रहा था तब शिष्य ने स्वामी रामकृष्णानन्दजी को एकान्त में बैठे जप करते हुए पाया। पण्डितों के चले जाने पर शिष्य ने इसका कारण पूछने से उत्तर पाया कि स्वामीजी की विजय के लिए वे श्रीरामकृष्ण से प्रार्थना कर रहे थे।

पण्डितों के जाने के बाद शिष्य ने स्वामीजी से सुना था कि वे पण्डित पूर्वमीमांसा-शास्त्र में निष्णात थे। स्वामीजी ने उत्तरमीमांसा का अवलम्बन कर ज्ञानकाण्ड की श्रेष्ठता प्रतिपादन की थी – और पण्डित लोग भी स्वामीजी के सिद्धान्त को स्वीकार करने को बाध्य हुए थे।

व्याकरण की छोटी छोटी त्रुटियों के कारण पण्डितों ने स्वामीजी की जो हँसी की थी, उस पर स्वामीजी ने कहा था कि कई वर्ष संस्कृत भाषा में वार्तालाप न करने से ऐसी भूल हुई थी, इस कारण स्वामीजी ने पण्डितों पर कुछ भी दोष नहीं लगाया। परन्तु उन्होंने यह भी कहा था – “पाश्चात्य देश में वाद – तर्क – के मूल विषयों को छोड़कर भाषा की छोटी-मोटी भूलों पर ध्यान देना बड़ी असभ्यता समझी जाती है। सभ्य समाज मूल विषय का ही ध्यान रखते हैं – भाषा का नहीं। परन्तु तेरे देश के सब लोग छिलके पर चिपटे रहते हैं और सार वस्तु का सन्धान ही नहीं लेते।” इतना कहकर स्वामीजी ने उस दिन शिष्य से संस्कृत में वार्तालाप आरम्भ किया, शिष्य ने भी येनकेनप्रकारेण संस्कृत में ही उत्तर दिया। शिष्य का भाषाप्रयोग ठीक न होने पर भी उसको उत्साहित करने के लिए स्वामीजी ने उसकी प्रशंसा की। तब से शिष्य स्वामीजी की इच्छानुसार उनसे बीचबीच में देवभाषा में ही वार्तालाप करता था।

‘सभ्यता’ किसे कहते हैं? – इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा कि जो समाज या जो जाति आध्यात्मिक विषय में जितनी आगे बढ़ी है, वह समाज या वह जाति उतनी ही सभ्य कही जाती है। भाँति भाँति के अस्त्र-शस्त्र तथा शिल्पगृह निर्माण करके इस जीवन के सुख तथा समृद्धि को बढ़ानेवाली जाति को ही सभ्य नहीं कह सकते। आजकल की पाश्चात्य सभ्यता लोगों में दिन प्रतिदिन अभाव और ‘हाय हाय’ को ही बढ़ा रही है। भारत की प्राचीन सभ्यता सर्वसाधारण को आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखलाकर यद्यपि उनके इस जीवन के अभाव को पूर्ण रूप से नष्ट न कर सकी तो भी उसको बहुत कम करने में निःसन्देह समर्थ हुई थी। इस युग में इन दोनों सभ्यताओं का संयोग कराने के लिए भगवान श्रीरामकृष्ण ने जन्म लिया है। आजकल जैसे लोग कर्मतत्पर बनेंगे वैसा ही उनको गम्भीर आध्यात्मिक ज्ञान का भी लाभ करना होगा। इसी प्रकार से भारतीय और पाश्चात्य सभ्यताओं का मेल होने से संसार में नये युग का उदय होगा। इन बातों को उस दिन स्वामीजी ने विशेष रूप से समझाया। बातों बातों में ही पाश्चात्य देश के एक विषय का स्वामीजी ने उल्लेख किया था। वहाँ के लोग विचार करते हैं कि जो मनुष्य जितना धर्मपरायण होगा वह बाहरी चालचलन में उतना ही गम्भीर बनेगा; मुख से दूसरी बातों का प्रसंग भी न करेगा। परन्तु मेरे मुँह से उदार धर्मव्याख्यान सुनकर उस देश के धर्मप्रचारक जैसे विस्मित होते थे वैसे ही वक्तृता के अन्त में मुझको अपने मित्रों से हास्यकौतुक करते देखकर भी आश्चर्यचकित होते थे। कभी ऐसा भी हुआ है कि उन्होंने मुझसे स्पष्ट कहा, “स्वामीजी, धर्मप्रचारक बनकर साधारण जन के समान ऐसा हास्य-कौतुक करना उचित नहीं है। आपमें ऐसी चपलता कुछ शोभा नहीं देती।” इसके उत्तर में मैं कहा करता था कि हम आनन्द की सन्तान हैं, हम क्यों उदास और दुःखी बने रहें? इस उत्तर को सुनकर वे इसके मर्म को समझते थे या नहीं इसकी मुझे शंका है।

उस दिन स्वामीजी ने भावसमाधि और निर्विकल्प समाधि के विषय को भी नाना प्रकार से समझाया था। जहाँ तक सम्भव हो सका उसका पुनः वर्णन करने की चेष्टा की जा रही है।

अनुमान करो कि कोई ईश्वर की साधना कर रहा है और हनुमान जी का जैसा भगवान पर भक्तिभाव था, वैसे ही भक्तिभाव को उसने ग्रहण किया है। अब जितना यह भाव गाढ़ा होता है, उस साधक के चाल-ढंग में भी, यहाँ तक कि शरीर की गठन में भी उतना ही वह भाव प्रकट होता है। ‘जात्यन्तर परिणाम’ इसी प्रकार से होता है। किसी एक भाव को ग्रहण करके साधना करने के साथ ही साधक उसी प्रकार आकार में बदल जाता है। किसी भाव की चरम अवस्था भावसमाधि कही जाती है। और ‘मैं शरीर नहीं हूँ’, ‘मन नहीं हूँ’, ‘बुद्धि भी नहीं हूँ’ इस प्रकार से ‘नेति नेति’ करते हुए ज्ञानी साधक जब अपनी चिन्मात्र सत्ता में अवस्थान करते हैं, तब उस अवस्था को निर्विकल्प समाधि कहा जाता है। इस प्रकार के किसी एक भाव को ग्रहण कर उसकी सिद्धि होने में या उसकी चरम अवस्था पर पहुँचने में कितने ही जन्मों की चेष्टा की आवश्यकता होती है। भावराज्य के अधिराज श्रीरामकृष्ण कोई अठारह भिन्न भिन्न भावों से सिद्धिलाभ कर चुके थे। वे यह भी कहा करते थे कि यदि वे भावमुखी न रहते तो उनका शरीर न रहता।

भारतवर्ष में किस प्रणाली से कार्य करेंगे इसके सम्बन्ध में स्वामीजी ने कहा कि मद्रास और कलकत्ते में दो केन्द्र बनाकर सब प्रकार के लोककल्याण के लिए नये ढंग के साधु-संन्यासी बनायेंगे और यह भी कहा कि प्राचीन रीतियों के वृथा खण्डन से समाज तथा देश की उन्नति होना सम्भव नहीं है।

सभी कालों में प्राचीन रीतियों को नये ढंग में परिवर्तित करने से ही उन्नति हुई है। भारत में प्राचीन युग में भी धर्मप्रचारकों ने इसी प्रकार कार्य किया था। केवल बुद्धदेव के धर्म ने ही प्राचीन रीति और नीतियों का विध्वंस किया था। भारत से उसके निर्मूल हो जाने का यही कारण है।

शिष्य की स्मरण है कि स्वामीजी वार्तालाप करते हुए कहने लगे कि यदि किसी एक भी जीव में ब्रह्म का विकास हो तो सहस्त्रों मनुष्य उसी ज्योति से मार्ग देखकर आगे बढ़ते हैं। जो पुरुष ब्रह्मज्ञ होते हैं वे ही केवल लोकगुरु बन सकते हैं; यह बात शास्त्रों और युक्ति से प्रमाणित होती है। स्वार्थयुक्त ब्राह्मणों ने जो कुलगुरु प्रथा का प्रचार किया है वह वेद और शास्त्रों के विरुद्ध है। इसलिए साधना करने पर भी लोग अब सिद्ध या ब्रह्मज्ञ नहीं होते। भगवान श्रीरामकृष्ण धर्म की यह सब ग्लानि दूर करने के लिए शरीर धारण करके वर्तमान युग में इस संसार में अवतीर्ण हुए थे! उनके प्रदर्शित सार्वभौमिक मत का प्रचार होने से ही जीव और जगत् का मंगल होगा। इनसे पूर्व सभी धर्मों को समन्वय करनेवाले ऐसे अद्भुत आचार्य ने कई शताब्दियों से भारतवर्ष में जन्म नहीं लिया था।

इस बात पर स्वामीजी के एक गुरुभाई ने उनसे पूछा, “महाराज, पाश्चात्य देशों में आपने सब के सामने श्रीरामकृष्ण को अवतार कहकर क्यों नहीं प्रचार किया?”

स्वामीजी – वे दर्शन और विज्ञान शास्त्रों पर बहुत ही अभिमान करते हैं। इसी कारण युक्ति, विचार, दर्शन, और विज्ञान की सहायता से जब तक उनके ज्ञान का अहंकार न तोड़ा जाय, तब तक किसी विषय की वहाँ प्रतिष्ठा नहीं होती। तर्कविचार से कुछ पता न लगने पर तत्त्व जानने के निमित्त सचमुच उत्सुक होकर जब वे मेरे पास आते थे, तब मैं उनसे श्रीरामकृष्ण की बात किया करता था। यदि पहले से ही उनसे अवतार-वाद का प्रसंग करता तो वे बोल उठते, “तुम नयी बात क्या सिखाते हो – हमारे प्रभु ईसा मसीह भी तो हैं।”

तीन चार घण्टे तक ऐसे आनन्द से समय बिताकर अन्यान्य लोगों के साथ शिष्य कलकत्ते को लौटा।


  1. इस बगीचे में रहते समय स्वामीजी ने एक छिन्नमुण्ड प्रेत देखा था। वह मानो करुण स्वर से उस दारुण यन्त्रणा से मुक्त करने के लिये प्रार्थना करता था। अनुसन्धान से स्वामीजी को मालूम हुआ कि वास्तव में उसी बगीचे में किसी आकस्मिक घटना से एक ब्राह्मण की मृत्यु हुई थी। स्वामीजी ने यह घटना बाद में अपने गुरुभाईयों को बतलायी थी।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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