गुरु गोविंद सिंह जी शिष्यों को किस प्रकार की दीक्षा देते थे
स्थान – कलकत्ता, स्व. बलराम बसु का भवन
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – गुरु गोविंदसिंहजी शिष्यों को किस प्रकार की दीक्षा देते थे -उस समय पंजाब के सर्वसाधारण के मन में उन्होंने एक ही प्रकार की प्रेरणाको जगाया था – सिद्धाई लाभ करने की अपकारिता – स्वामीजी के जीवन के परिदृष्ट दो अद्भुत घटनाएँ – शिष्य को उपदेश – भूत-प्रेत के ध्यान सेभूत, और ‘मैं नित्यशुद्धबुद्धमुक्त आत्मा हूँ’ ऐसा ध्यान सर्वदा करने से ब्रह्मज्ञ बनता है।
स्वामीजी आज दो दिन से बागबाजार में स्व. बलराम बसु के भवन में ठहरे हैं। इसलिए शिष्य को विशेष सुभीता होने से वह प्रतिदिन वहाँ आता जाता रहता है। आज सायंकाल से कुछ पहले स्वामीजी छत पर टहल रहे हैं। उनके साथ शिष्य और अन्य चार-पाँच लोग भी हैं। आज बड़ी गरमी है; स्वामीजी के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है। मन्द मन्द दक्षिणी वायु चल रही है। टहलते टहलते स्वामीजी ने गुरु गोविन्दसिंह का प्रसंग आरम्भ किया और ओजस्विनी भाषा में कुछ कुछ वर्णन करते हुए बतलाने लगे कि किस प्रकार उनके त्याग, तपस्या, तितिक्षा और प्राणनाशक परिश्रम के फल से ही सिक्खों का पुनरुत्थान हुआ था, उन्होंने किस प्रकार मुसलमान धर्म में दीक्षित लोगों को भी दीक्षा दी और हिन्दू बनाकर सिक्ख जाति में मिला लिया तथा किस प्रकार उन्होंने नर्मदा के तट पर अपनी मानवलीला समाप्त की। गुरु गोविन्दसिंह द्वारा दीक्षित जनों में उस समय कैसी एक महान् शक्ति का संचार होता था, उसका उल्लेख कर स्वामीजी ने सिक्ख जातियों में प्रचलित एक दोहा सुनाया –
सवा लाख पर एक चढ़ाऊँ। जब गुरु गोविन्द नाम सुनाऊँ॥
अर्थात् गुरु गोविन्दसिंह से नाम (दीक्षा) सुनकर प्रत्येक मनुष्य में सवा लाख मनुष्य से अधिक शक्ति संचारित होती थी। अर्थात् उनसे दीक्षाग्रहण करने पर उनकी शक्ति से यथार्थ धर्मप्राणता उपस्थित होती थी और प्रत्येक शिष्य का हृदय ऐसे वीरभाव से पूरित हो जाता था कि वह उस समय सवा लाख विधर्मियों को पराजित कर सकता था। धर्म की महिमा बखानेवाली बातों को कहते कहते उनके उत्साहपूर्ण नेत्रों से मानो तेज निकल रहा था। श्रोतागण निःस्तब्ध होकर स्वामीजी के मुख की ओर टकटकी लगाकर देखने लगे। स्वामीजी में कैसा अद्भुत उत्साह और शक्ति थी। जब जिस विषय का प्रसंग करते थे, तब उसी में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि यह अनुमान होता था मानो उन्होंने उसी विषय को अन्य सब विषयों से बड़ा निश्चित किया है और उसे लाभ करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।
कुछ देर बाद शिष्य ने कहा, “महाराज, गुरु गोविन्दसिंहजी ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को अपने धर्म में दीक्षित करके एक ही उद्देश्य पर चलाया था, वह बड़ी अद्भुत घटना है। भारत के इतिहास में ऐसा दूसरा दृष्टान्त नहीं पाया जाता।”
स्वामीजी – जब तक लोग अपने में एक ही प्रकार के ध्येय का अनुभव नहीं करेंगे, तब तक कभी एक सूत्र से आबद्ध नहीं हो सकते। जब तक उनका ध्येय एक न हो, तब तक सभा, समिति और वक्तृता से साधारण लोगों को एक नहीं किया जा सकता। गुरु गोविन्दसिंहजी ने उस समय क्या हिन्दू क्या मुसलमान सभी को समझा दिया था कि वे सब लोग कैसे घोर अत्याचार तथा अविचार के राज्य में बस रहे हैं। गुरु गोविन्दसिंहजी ने किसी प्रकार के नये ध्येय की सृष्टि नहीं की। केवल सर्वसाधारण जनता में इसे समझा ही दिया था। इसीलिए हिन्दू-मुसलमान सब उनको मानते हैं। वे शक्ति के साधक थे। भारत-इतिहास में उनके समान बिरला ही दृष्टान्त मिलेगा।
इसके बाद रात्रि होने पर स्वामीजी सब के साथ नीचे की बैठक में उतर आये। उनके आसन ग्रहण करने पर सब उन्हें फिर घेरकर बैठ गये। अब सिद्धाई के विषय पर प्रसंग आरम्भ हुआ। स्वामीजी बोले, “सिद्धाई या विभूति मन के थोड़े ही संयम से प्राप्त हो जाती है।” शिष्य को लक्ष्य करके बोले, “क्या तू औरों के मन की बात जानने की विद्या सीखेगा? चार पाँच ही दिन में तुझे यह सिखला सकता हूँ।”
शिष्य – इससे क्या उपकार होगा?
स्वामीजी – क्यों? औरों के मन की बात जान सकेगा।
शिष्य – क्या इससे ब्रह्मविद्या लाभ करने में कोई सहायता मिलेगी?
स्वामीजी – कुछ भी नहीं।
शिष्य – तब वह विद्या सीखने से मेरा कोई प्रयोजन नहीं। परन्तु आपने सिद्धाई के विषय में जो कुछ प्रत्यक्ष किया है या देखा है, उसको सुनने की इच्छा है।
स्वामीजी – एक बार मैं हिमालय में भ्रमण करते समय किसी पहाड़ी गाँव में एक रात्रि के लिए ठहर गया था। सायंकाल होने पर गाँव में ढोल का शब्द सुना तो घरवाले से पूछने पर मालूम हुआ कि गाँव में किसी मनुष्य पर ‘देवता चढ़ा’ है। घरवाले के आग्रह से और अपना कौतुक निवारण करने के लिए मैं देखने को गया। जाकर देखा कि बड़ी भीड़ लगी है। उसने लम्बे घूंघर बाल वाले एक पहाड़ी को दिखाकर कहा कि इसी पर देवता चढ़ा है। मैंने देखा कि उसके पास ही एक कुल्हाडी को आग में लाल कर रहे थे; फिर देखा कि उस लाल कुल्हाड़ी से उस देवताविष्ट मनुष्य के शरीर को स्थान स्थान पर जला रहे हैं तथा बालों पर भी उसे छुआ रहे हैं। परन्तु आश्चर्य यह था कि न तो उसका कोई अंग या बाल जलता था, न उसके चेहरे से कोई कष्ट का चिह्न प्रकट होता था। मैं तो देखते ही निर्वाक् रह गया। इसी समय गाँव के मुखिया ने मेरे पास आकर हाथ जोड़कर कहा, ‘महाराज, आप कृपया इसका भूत उतार दीजिये।’ मैं तो यह बात सुनकर घबड़ा गया। पर क्या करता, सब के कहने पर मुझे उस देवताविष्ट मनुष्य के पास जाना पड़ा। परन्तु जाकर उस कुल्हाड़ी की परीक्षा करने की इच्छा हुई। उसमें हाथ लगाते ही मेरा हाथ झुलस गया। तब तो कुल्हाड़ी तनिक काली भी पड़ गयी थी तो भी मारे जलन के मैं बेचैन हो गया। जो कुछ मेरी तर्क युक्ति थी वह सब लोप हो गयी। क्या करूं, जलन के मारे व्याकुल होकर भी उस मनुष्य के सिर पर अपना हाथ रखकर कुछ देर जप किया। परन्तु आश्चर्य यह कि ऐसा करने से दस-बारह मिनट में ही वह अच्छा हो गया। तब गाँववालों की मेरे प्रति भक्ति का क्या ठिकाना था! वे तो मुझे भगवान् ही समझने लगे! परन्तु मैं इस घटना को कुछ भी नहीं समझ सका। बाद में भी कुछ नहीं जान सका। अन्त में और कुछ न कहकर घरवाले के साथ झोपड़ी में लौट आया। तब रात के कोई बारह बजे होंगे। आते ही लेट गया, परन्तु जलन के मारे और इस घटना का कोई भेद न निकाल सकने के कारण नींद नहीं आयी। जलती हुई कुल्हाड़ी से मनुष्य का शरीर दग्ध नहीं हुआ यह सोचकर चिन्ता करने लगा, “There are more things in heaven and earth than dreamt of in your philosophy” – पृथ्वी और स्वर्ग में ऐसी अनेक घटनाएँ हैं, जिनका सन्धान दर्शनशास्त्रों ने स्वप्न में भी नहीं पाया।
शिष्य – बाद में क्या आप इस विषय का रहस्य जान सके थे?
स्वामीजी – नहीं, आज ही बातों बातों में वह घटना स्मरण हो आयी, इसलिए तुझसे कह दिया।
फिर स्वामीजी कहने लगे, “श्रीरामकृष्ण सिद्धाइयों की बड़ी निन्दा किया करते थे। वे कहा करते थे कि इन शक्तियों के प्रकाश की ओर मन लगाये रखने से कोई परमार्थ-तत्त्वों को नहीं पहुँचता; परन्तु मनुष्य का मन ऐसा दुर्बल है कि गृहस्थों का तो कहना ही क्या है, साधुओं में भी चौदह आने लोग सिद्धाई के उपासक होते हैं। पाश्चात्य देशों में लोग इन जादुओं को देखकर निर्वाक् हो जाते हैं। सिद्धाई लाभ करना बुरा है और वह धर्मपथ में विघ्न डालता है। यह बात श्रीरामकृष्ण के कृपा कर समझाने के कारण ही मैं समझ सका हूँ। इसी हेतु क्या तुमने देखा नहीं कि श्रीगुरुदेव की सन्तानों में से कोई उधर ध्यान नहीं देता?”
इतने में स्वामी योगानन्दजी ने स्वामीजी से कहा, “मद्रास में एक ओझा से जो तुम्हारी भेंट हुई थी वह कहानी इस गँवार को सुनाओ।”
शिष्य ने इस विषय को पहले नहीं सुना था। इसलिए उसे कहने के लिए स्वामीजी से आग्रह करने लगा; तब स्वामीजी ने उससे कहा, “मद्रास मे मैं जब मन्मथबाबू के भवन में था, तब एक दिन रात में स्वप्न में देखा कि हमारी माताजी का देहान्त हो गया है। मन में बड़ा दुःख हुआ। उस समय मठ को ही बहुत कम पत्र आदि भेजा करता था, तो घर की तो बात दूर रही। स्वप्न की बात मन्मथबाबू से कहने पर उन्होंने उसकी जाँच करने के लिए कलकत्ते को तार भेजा; क्योंकि स्वप्न देखकर मन बहुत ही घबड़ा रहा था। इधर मद्रास के मित्रगण मेरे अमरीका जाने का सब प्रबन्ध करके जल्दी मचा रहे थे। परन्तु माताजी की कुशल क्षेम का संवाद न मिलने से मेरा मन जाने को नहीं चाहता था। मेरे मन की अवस्था देखकर मन्मथबाबू मुझसे बोले, ‘देखो, नगर से कुछ दूर पर एक पिशाच-सिद्ध मनुष्य है, वह जीव के भूत-भविष्यत्, शुभ-अशुभ सब संवाद बतला सकता है।’ मन्मथबाबू की प्रार्थना से और अपने मानसिक उद्वेग को दूर करने के निमित्त मैं उसके पास जाने को राजी हुआ। मन्मथबाबू, मैं, आलासिंगा तथा एक और सज्जन कुछ दूर तक रेल से गये; फिर पैदल चलकर वहाँ पहुँचे। पहुँचकर क्या देखा कि श्मशान के पास विकट आकार का मृतक-सा, सूखा, बहुत काले रंग का एक मनुष्य बैठा है। उसके अनुचरगण ने ‘किडीं-मिडीं’ कर मद्रासी भाषा में समझा दिया कि वही पिशाचसिद्ध पुरुष है। प्रथम तो उसने हम लोगों पर कोई ध्यान नहीं दिया। फिर जब हम लौटने को हुए, तब हम लोगों से ठहरने के लिये विनय की। हमारे साथी आलासिंगा ने ही उसकी भाषा हमें, तथा हमारी भाषा उसे समझाने का कार्य किया। उससे ही हम लोगों से ठहरने को कहा। फिर एक पेंसिल लेकर वह पिशाच-सिद्ध मनुष्य कुछ समय तक न जाने क्या लिखता रहा। फिर देखा कि वह मन को एकाग्र करके बिलकुल स्थिर हो गया, उसके बाद मेरा नाम, गोत्र इत्यादि चौदह पीढ़ी तक की बातें बतलायीं और कहा कि श्रीरामकृष्णजी मेरे साथ सर्वदा फिर रहे हैं। माताजी का मंगल समाचार भी बतलाया। और यह भी कहा कि धर्मप्रचार के लिए मुझे शीघ्र ही बहुत दूर जाना पड़ेगा। इस प्रकार माताजी का कुशल मंगल मिल जाने पर मन्मथबाबू के साथ शहर लौटा। यहाँ पहुँचकर कलकत्ते से तार के जवाब में भी माताजी का कुशल मंगल मिल गया।”
स्वामी योगानन्द को लक्ष्य करके स्वामीजी बोले, “परन्तु उस पुरुष ने जो कुछ बतलाया था वह सब पूरा हुआ। यह ‘काकतालीय’ के समान ही हो या और किसी प्रकार से हो गया हो।”
इसके उत्तर में स्वामी योगानन्द बोले, “तुम पहले इन सब बातों पर विश्वास नहीं करते थे, इसलिए तुम्हे यह सब दिखलाने की आवश्यकता उत्पन्न हुई थी।”
स्वामीजी – मैं क्या बिना देखे-भाले किसी पर विश्वास करता? मैं तो ऐसा मनुष्य ही नहीं हूँ। महामाया के राज्य में आकर जगत्रूपी जादू के साथ साथ और कितने ही जादू देखने में आये। माया! माया!! अब राम कहो, राम कहो! आज कैसा फजूल बातें हुई। भूत प्रेत की चिन्ता करने से लोग भूत प्रेत ही बन जाते हैं, और जो रात-दिन जानकर या न जानकर भी कहते हैं, ‘मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा हूँ’ वे ही ब्रह्मज्ञ होते हैं।
यह कहकर स्वामीजी शिष्य को स्नेह से लक्ष्य करके बोले, “इन सब व्यर्थ की बातों को मन में तिल मात्र भी स्थान न दो। सदैव सत् और असत् का ही विचार करो; आत्मा को प्रत्यक्ष करने के निमित्त प्राणपण से यत्न करो। आत्मज्ञान से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। और जो कुछ है वह सभी माया है – जादू है। एक प्रत्यगात्मा ही अबाधित सत्य है। इस बात की यथार्थता में ठीक ठीक समझ गया हूँ, इसीलिए तुम सब को समझाने की चेष्टा भी करता हूँ। ‘ऐकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन।’ ”
बात करते करते रात के ग्यारह बज गये। इसके बाद स्वामीजी भोजन कर विश्राम करने चले। शिष्य भी स्वामीजी के चरणकमलों में दण्डवत् कर बिदा हुआ। स्वामीजी ने पूछा, “कल फिर आयगा न?”
शिष्य – जी महाराज, अवश्य आऊँगा। प्रतिदिन आपके दर्शन न होने से चित्त व्याकुल हो जाता है।
स्वामीजी – अच्छा तो जाओ। रात अधिक हो गयी है।
शिष्य स्वामीजी की बातों पर विचार करता हुआ रात के बारह बजे घर लौटा।