धर्मस्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद की संस्कृत रचना

स्थान – बेलुड़ – किराये का मठ

वर्ष – १८९८ ईसवी (नवम्बर)

विषय – स्वामीजी की संस्कृत रचना – श्रीरामकृष्णदेव के आगमन सेभाव व भाषा में प्राण का संचार – भाषा में किस प्रकार से ओजस्विता लानीहोगी – भय को त्याग देना होगा – भय से ही दुर्बलता व पाप की वृद्धि -सब अवस्थाओं में अविचल रहना – शास्त्रपाठ करने की उपकारिता – स्वामीजीका पाणिनि की अष्टाध्यायी का पठन – ज्ञान के उदय से किसी विषय का अद्भुत प्रतीत न होना।

मठ अभी तक बेलुड़ में नीलाम्बर बाबू के बगीचे में ही है! अब अगहन महीने का अन्त है। इस समय स्वामीजी बहुधा संस्कृत शास्त्रादि की आलोचना में तत्पर हैं। उन्होंने ‘आचण्डालाप्रतिहतरयः’1 इत्यादि श्लोकों की रचना इसी समय की थी। आज स्वामीजी ने “ॐ ह्रीं ऋतम्” इत्यादि स्तोत्र की रचना की और शिष्य को देकर कहा, ‘देखना इसमें छन्दोभंगादि कोई दोष तो नहीं है?” शिष्य ने उसे ले लिया और उसकी एक नकल उतार ली।

जिस दिन स्वामीजी ने इस स्तोत्र की रचना की थी उस दिन मानो स्वामीजी की जिह्वा पर सरस्वती विराजमान थीं। लगभग दो घण्टे तक स्वामीजी ने शिष्य से सुन्दर और सुललित संस्कृत भाषा में वार्तालाप किया। ऐसा सुन्दर वाक्यविन्यास, शिष्य ने बड़े बड़े पण्डितों के मुँह से भी कभी नहीं सुना था।

जो हो, शिष्य के स्तोत्र की नकल उतार लेने पर स्वामीजी उससे बोले, “देखो, किसी भाव में तन्मय होकर लिखते लिखते कभी कभी मेरी व्याकरण की भूल होती है, इसलिये तुम लोगों से देख लेने को कहता हूँ।”

शिष्य – वे भाषादोष नहीं हैं, वे आर्ष प्रयोग हैं।

स्वामीजी – तुमने तो ऐसा कह दिया, परन्तु साधारण लोग ऐसा क्यों समझेंगे? उस दिन मैंने ‘हिन्दू धर्म क्या है’ इस विषय पर बंगला भाषा में एक लेख लिखा, तो तुम्हीं में से किसी किसी ने कहा कि इसकी भाषा तो टूटी-फूटी है। मेरा अनुमान है कि सब वस्तुओं की तरह कुछ समय के बाद भाषा और भाव भी फीके पड़ जाते हैं। आजकल इस देश में यही हुआ है, ऐसा जान पड़ता है। श्रीगुरुदेव के आगमन से भाव और भाषा में फिर नवीन प्रवाह आया है। अब सब को नवीन साँचे में ढालना है, नवीन प्रतिमा की मुहर लगाकर सब विषयों का प्रचार करना पड़ेगा। देखो न, प्राचीन समय के संन्यासियों की चाल ढाल टूटकर अब कैसी एक नवीन परिपाटी बन रही है। इसके विरुद्ध समाज में भी बहुत कुछ प्रतिवाद हो रहा है; परन्तु इससे क्या हुआ और क्या हम ही उससे डरें? आजकल इन संन्यासियों को प्रचार कार्य के निमित्त दूर दूर जाना है। यदि प्राचीन संन्यासियों का वेश धारण कर अर्थात् भस्म लगाकर और अर्धनग्न होकर वे कहीं विदेश को जाना चाहें, तो पहले तो जहाज पर ही उनको सवार नहीं होने देंगे। और यदि किसी प्रकार विदेश पहुँच भी जायँ, तो उनको कारागृह में अवस्थान करना होगा। देश, सभ्यता और समयोपयोगी कुछ कुछ परिवर्तन सभी विषयों में कर लेना पड़ेगा। अब मैं बंगला भाषा में लेख लिखने की सोच रहा हूँ। सम्भव है कि साहित्यसेवक उसको पढ़कर निन्दा करें। करने दो – मैं बंगला भाषा को नवीन साँचे में ढालने का प्रयत्न अवश्य करूँगा। आजकल के लेखक जब लिखने बैठते हैं, तब क्रियापद का बहुत प्रयोग करते हैं। इससे भाषा में शक्ति नहीं आती। विशेषण द्वारा क्रियापदों का भाव प्रकट करने से भाषा की ओजस्विता अधिक बढ़ती है। अब से इस प्रकार लिखने की चेष्टा करो तो। ‘उद्बोधन’ में ऐसी ही भाषा में लेख लिखने का प्रयत्न करना। भाषा में क्रियापद प्रयोग करने का क्या तात्पर्य है जानते हो? इस प्रकार से भावों को विराम मिलता है। इसलिए अधिक क्रियापदों का प्रयोग करना शीघ्र शीघ्र स्वास लेने के समान दुर्बलता का चिह्न मात्र है। यही कारण है कि बंगला भाषा में अच्छी वक्तृताएँ नहीं दी जा सकतीं। जिनका किसी भाषा पर अच्छा अधिकार है, वे शीघ्रता से भावों को रोक नहीं देते। दाल भात का भोजन करके तेरा शरीर जैसे दुर्बल हो गया है, भाषा भी ठीक वैसी ही हो गयी है। खान-पान, चाल-चलन, भाव भाषा सब में तेजस्विता लानी होगी। चारों ओर प्राण का संचार करना होगा। नस नस में रक्त्त का प्रवाह प्रेरित करना होगा, जिससे सब विषयों में एक प्राण का स्पन्दन अनुभव हो; तभी इस घोर जीवन-संग्राम में देश के लोग बच सकेंगे। नहीं तो शीघ्र ही यह देश और जाति मृत्यु की छाया में लय हो जायेंगे।

शिष्य – महाराज, बहुत दिनों से इस देश के लोगों का स्वभाव एक विशेष प्रकार का हो गया है। क्या उसके शीघ्र परिवर्तन की सम्भावना है?

स्वामीजी – यदि तुम प्राचीन चाल को बुरी समझते हो, तो मैंने जैसा बतलाया उस नवीन भाव को सीख क्यों नहीं लेते? तुम्हें देखकर और भी दस-पांच लोग वैसा ही करेंगे। फिर उनसे और पचास लोग सीखेंगे। इस प्रकार आगे चलकर जाति में वह नवीन भाव जाग उठेगा। यदि तुम जान बुझ कर भी ऐसा कार्य न करो तो मैं समझूँगा कि तुम केवल बातों में ही पण्डित हो और कार्य में मूर्ख।

शिष्य – आपके वचन से तो बड़े साहस का संचार होता है। उत्साह, बल और तेज से हृदय पूर्ण होता है।

स्वामीजी – हृदय में धीरे धीरे बल को लाना होगा। यदि एक भी यथार्थ ‘मनुष्य’ बन जाय तो लाख वत्तृताओं का फल होगा। मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।’ सब विषयों में व्यावहारिक बनना होगा अर्थात् अपने अपने कार्य द्वारा मत या भाव का विकास करना होगा। केवल मतों के प्रादुर्भाव से ही देश दबा पड़ा है। श्रीरामकृष्ण के जो यथार्थ सन्तान होंगे, वे सब धर्मभावों को कार्यरूप में परिणत करने का उपाय दिखायेंगे। लोग या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे। तुलसीदसजी के दोहे में जो है, सो क्या तूने नहीं सुना?

हाथी चले बजार में, कुत्ता भुके हजार।
साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार॥

इसी भाव से चलना है। जनसाधारण को सामान्य कीड़ामकोड़ा समझना होगा। उसकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर में कोई किसी प्रकार का महत्-कार्य नहीं कर सकता। ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’ अर्थात् शरीर और मन में दृढ़ता न रहने से कोई भी इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। प्रथम पुष्टिकर उत्तम भोजन से शरीर को बलिष्ठ करना होगा तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और मुख में खूब दृढ़ता होनी चाहिए। ‘मैं हीन हूँ’ ‘मैं दीन हूँ’ ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है –

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किंवदन्तीति सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥

(अष्टावक्र संहिता –१।११)

जिसके हृदय में मुक्ताभिमान सर्वदा जागृत है वह मुक्त हो जाता है और जो ‘मैं बद्ध हूँ’ ऐसी भावना रखता है, समझ लो कि उसकी जन्मजन्मान्तर तक बद्ध दशा ही रहेगी। ऐहिक और पारमार्थिक दोनों पक्षों में ही इस बात को सत्य जानना। इस जीवन में जो सर्वदा हताशचित्त रहते हैं, उनसे कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वे जन्म जन्म ‘हाय, हाय’ करते हुए चले आते हैं और चले जाते हैं। ‘वीरभोग्या वसुन्धरा’, अर्थात् वीर लोग ही वसुन्धरा का भोग करते हैं – यह वचन नितान्त सत्य है। वीर बनो, सर्वदा कहो ‘अभीः’ ‘अभीः’ – मैं भयशून्य हूँ, मैं भयशून्य हूँ। सब को सुनाओ, ‘माभैः’ ‘माभैः’ भय न करो, भय न करो। भय ही मृत्यु है, भय ही पाप, भय ही नरक, भय ही अधर्म तथा भय ही व्यभिचार है। जगत् में जो कुछ असत् या मिथ्याभाव (negative thoughts) है, वह सब इस भयरूप शैतान से उत्पन्न हुआ है। इस भय ने ही सूर्य के सूर्यत्व को, वायु के वायुत्व को, यम के यमत्व को अपने अपने स्थान पर रख छोड़ा है, अपनी अपनी सीमा से किसी को बाहर नहीं जाने देता। इसलिए श्रुति कहती है –

भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः॥

(कठोपनिषद् – २।३।३)

जिस दिन इन्द्र, चन्द्र, वायु, वरुण भयशून्य होंगे, उसी दिन सब ब्रह्म में लीन हो जायेंगे -सृष्टिरूप अध्यास का लय साधित होगा। इसीलिए कहता हूँ, ‘अभीः’ ‘अभीः’।

बोलते बोलते स्वामीजी के वे नीलोत्पल नेत्र मानो अरुण रंग से रंजित हो गये। मानो “अभीः” मूर्तिमान होकर स्वामीरूप से शिष्य के सामने सदेह अवस्थान कर रहा था। शिष्य उस अभयमूर्ति का दर्शन कर मन में सोचने लगा, “आश्चर्य! इन महापुरुष के पास रहने से और इनकी बातें सुनने से मानो मृत्युभय भी कहीं भाग जाता है।”

स्वामीजी फिर कहने लगे, “यह शरीर धारण कर तुम कितने ही सुख-दुःख तथा सम्पद-विपद की तरंगों में हिलाये जाओ, परन्तु ध्यान रखना वे सब केवल मुहूर्तस्थायी हैं। इन सब को अपने ध्यान में भी नहीं लाना। मैं अजर, अमर, चिन्मय आत्मा हूँ, इस भाव को दृढ़ता के साथ धारण कर जीवन बिताना होगा। ‘मेरा जन्म नहीं है, मेरी मृत्यु नहीं है, मैं निर्लेप आत्मा हूँ’ ऐसी धारणा में एकदम तन्मय हो जाओ। एक बार लीन हो जाने से दुःख या कष्ट के समय यह भाव अपने आप ही में उदय होगा, इसके लिए फिर चेष्टा करने की कुछ आवश्यकता नहीं रहेगी। कुछ ही दिन हुए मैं वैद्यनाथ देवघर में प्रियनाथ मुकर्जी के घर गया था। वहाँ ऐसी साँस उठी कि दम निकलने ही लगा परन्तु प्रत्येक श्वास के साथ भीतर से “सोऽहं सोऽहं” गम्भीर ध्वनि उठने लगी। तकिये का सहारा लेकर प्राणवायु निकलने की अपेक्षा कर रहा था और सुन रहा था कि भीतर केवल “सोऽहं सोऽहं” ध्वनि हो रही है; केवल यह सुनने लगा, “एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन।”

शिष्य स्तम्भित होकर बोला, “आपके साथ वार्तालाप करने से और आपकी सब अनुभूतियों को सुनने से शास्त्र पढ़ने की फिर आवश्यकता नहीं रहती।”

स्वामीजी – अरे नहीं, शास्त्रों को पढ़ना बहुत ही आवश्यक है। ज्ञान लाभ करने के लिए शास्त्र पढ़ने की बहुत जरूरत है। मैं मठ में शीघ्र ही शास्त्रादि पढ़ाने का आयोजन करूँगा। वेद, उपनिषद, गीता, भागवत पढ़ायी जायगी। अष्टाध्यायी पढ़ाऊँगा।

शिष्य – क्या आपने पाणिनि की अष्टाध्यायी पढ़ी है?

स्वामीजी – जब जयपुर में था, तब एक बड़े भारी वैयाकरण के साथ साक्षात्कार हुआ। फिर उनसे व्याकरण पढ़ने की इच्छा हुई। व्याकरण के बड़े विद्वान होने पर भी, उनमें पढ़ाने की शक्ति बहुत नहीं थी। उन्होंने मुझे तीन दिन तक प्रथम सूत्र का भाष्य समझाया, फिर भी मैं उसकी धारणा नहीं कर सका। चौथे दिन अध्यापकजी विरक्त्त होकर बोले, ‘स्वामीजी, जब तीन दिन में भी मैं प्रथम सूत्र का मर्म आपको नहीं समझा सका, तो अनुमान होता है कि मेरे पढ़ाने से आपको कोई लाभ नहीं होगा।’ यह सुनकर मेरे मन में बड़ी भर्त्सना उठी। भोजन और निद्रा को त्यागकर प्रथम सूत्र का भाष्य अपने आप ही पढ़ने लगा। तीन घण्टे में उस सूत्रभाष्य का अर्थ मानो ‘करामलकवत्’ प्रत्यक्ष हो गया। तत्पश्चात् अध्यापकजी के पास जाकर सब व्याख्याओं का तात्पर्य बातों मे समझा दिया। अध्यापकजी सुनकर बोले, ‘मैं तीन दिन से समझाकर जो न कर सका उसकी आपने तीन घण्टे में ऐसी चमत्कारपूर्ण व्याख्या कैसे सीख ली?’ उस दिन से प्रतिदिन शीघ्र गति से अध्याय पर अध्याय पढ़ता चला गया। मन की एकाग्रता होने से सब सिद्ध हो जाता है – सुमेरु पर्वत को भी चूर्ण करना सम्भव है।

शिष्य – आपकी सभी बातें अद्भुत है।

स्वामीजी – ‘अद्भुत’ स्वयं कोई विशेष बात नहीं है, अज्ञता ही अन्धकार है। इसमें सब कुछ ढके रहने के कारण अद्भुत जान पड़ता है। ज्ञानालोक से प्रकाशित होने पर फिर किसी में अद्भुतता नहीं रहती। अघटनघटन-पटीयसी जो माया है, वह भी छिप जाती है। जिसको जानने से सब कुछ जाना जाता है, उसको जानो; उसके विषय पर चिन्तन करो। उस आत्मा के प्रत्यक्ष होने से शास्त्रों के अर्थ ‘करामलकवत्’ प्रत्यक्ष होंगे। जब प्राचीन ऋषियों को ऐसा हुआ था, तब हम लोगों को क्यों न होगा? हम भी तो मनुष्य हैं। एक व्यक्ति के जीवन में जो एक बार हुआ है, चेष्टा करने से वह अवश्य ही औरों के जीवन में फिर सिद्ध होगा। History repeats itself अर्थात् जो एक बार हुआ है, वही बार बार होता है। यह आत्मा सर्व भूत में समान है, केवल प्रत्येक भूत में उसके विकास का तारतम्य मात्र है। इस आत्मा का विकास करने की चेष्टा करो। देखोगे कि बुद्धि सब विषयों में प्रवेश करेगी। अनात्मज्ञ पुरुषों की बुद्धि एकदेश-दर्शिनी होती है। आत्मज्ञ पुरुषों की बुद्धि सर्वग्रासिनी होती है। आत्मप्रकाश होने से, देखोगे कि दर्शन, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जायेंगे। सिंहगर्जन से आत्मा की महिमा की घोषणा करो। जीव को अभय देकर कहो, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’

‘Arise, awake and stop not till the goal is reached.’


  1. स्वामीजी कृत ‘कवितावली’ देखिये।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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