भगिनी निवेदिता आदि के साथ स्वामी विवेकानंद का अलीपुर पशुशालादेखने जाना
स्थान – कलकत्ता
विषय – भगिनी निवेदिता आदि के साथ स्वामीजी का अलीपुर पशुशालादेखने जाना – पशुशाला देखते समय वार्तालाप तथा हँसी – दर्शन के बादपशुशाला के सुपरिण्टेण्डेण्ट रायबहादुर बाबू रामब्रह्म संन्याल के मकान परचाय पीना तथा क्रमविकास के सम्बन्ध में वार्तालाप – क्रमविकास का कारणबताकर पाश्चात्य विद्वानों ने जो कुछ कहा है वह अन्तिम निर्णय नहीं है – उस विषय में कारण के सम्बन्ध में महामुनि पतंजलि का मत – बागबाजार मेंलौटकर स्वामीजी का फिर से क्रमविकास के बारे में वार्तालाप – पाश्चात्यविद्वानों द्वारा बताये हुए क्रमविकास के कारण मानवेतर अन्य प्राणियों में सत्यहोने पर भी मानवजाति में संयम तथा त्याग ही सर्वोच्च परिणति के कारणहैं – स्वामीजी ने सर्वसाधारण को सब से पहले शरीर को सुदृढ़ बनाने के लिए क्यों कहा
आज तीन दिन से स्वामीजी बागबाजार के स्व. बलराम बसु के मकान पर निवास कर रहे हैं। प्रतिदिन अगणित लोगों की भीड़ है। स्वामी योगानन्दजी भी स्वामीजी के साथ ही निवास कर रहे हैं। आज भगिनी निवेदिता को साथ लेकर स्वामीजी अलीपुर का ‘जू’ (पशुशाला) देखने जायँगे। शिष्य के उपस्थित होने पर उससे तथा स्वामी योगानन्दजी से कहा, “तुम लोग पहले चले जाओ – मैं निवेदिता को लेकर गाड़ी पर थोड़ी देर में आ रहा हूँ।”
स्वामी योगानन्दजी शिष्य को साथ लेकर ट्राम द्वारा करीब ढाई बजे रवाना हो गये। उस समय घोड़े की ट्राम चलती थी। दिन के करीब चार बजे पशुशाला में पहुँचकर उन्होंने बगीचे के सुपरिण्टेण्डेण्ट रायबहादुर बाबू रामब्रह्म सन्याल से भेंट की। स्वामीजी आ रहे हैं यह जानकर रामब्रह्म बाबू बहुत ही प्रसन्न हुए और स्वामीजी का स्वागत करने के लिए स्वयं बगीचे के फाटक पर खड़े रहे। करीब साढ़े चार बजे स्वामीजी भगिनी निवेदिता को साथ लेकर वहाँ पहुँचे। रामब्रह्म बाबू भी बड़े आदर सत्कार के साथ स्वामीजी तथा निवेदिता का स्वगत कर उन्हें पशुशाला के भीतर ले गये और करीब डेढ़ घण्टे तक उनके साथ साथ घूमते हुए बगीचे के विभिन्न स्थानों को दिखाते रहे। स्वामी योगानन्दजी भी शिष्य के साथ उनके पीछे पीछे चले।
रामब्रह्म बाबू वनस्पतिशास्त्र के अच्छे पण्डित थे। बगीचे के नाना प्रकार के वृक्षों को दिखाते हुए वनस्पतिशास्त्र के मतानुसार कालक्रम में वृक्षादि की किस प्रकार क्रम-परिणति हुई है, यह बतलाते हुए आगे बढ़ने लगे। तरह तरह के जानवरों को देखते हुए स्वामीजी भी बीच बीच में जीव की क्रम-परिणति के सम्बन्ध में डारविन के मत की आलोचना करने लगे। शिष्य को स्मरण है, साँपों के घर में जाकर उन्होंने बदन पर चक्र जैसे दागवाले एक बृहत् साँप को दिखाकर कहा, “देखो, इसीसे कालक्रम में कछुआ पैदा हुआ है। उसी साँप के बहुत दिनों तक एक स्थान पर बैठने रहने के कारण धीरे धीरे उसकी पीठ कड़ी हो गयी है।” इतना कहकर स्वामीजी ने शिष्य से हँसी हँसी में पूछा, “तुम लोग कछुआ खाते हो न? डारविन के मत में यह साँप ही कालक्रम के अनुसार कछुआ बन गया है; – तो बात यह हुई कि तुम लोग साँप भी खाते हो!” शिष्य ने सुनकर मुँह फेरकर कहा – “महाराज, कोई चीज क्रमविकास के द्वारा दूसरी चीज बन जाने पर जब उसका पहले का आकार और प्रकृति नहीं रहती तो फिर कछुआ खाने से साँप खाना कैसे हुआ? यह आप कैसे कह रहे हैं?”
शिष्य की बात सुनकर स्वामीजी तथा रामब्रह्म बाबू हँस पड़े और भगिनी निवेदिता को यह बात समझा देने पर वे भी हँसने लगीं। धीरे धीरे सभी लोग उस कटघरे की ओर बढ़ने लगे जिसमें शेर, बाघ आदि रहते थे।
रामब्रह्म बाबू की आज्ञानुसार वहाँ के चपरासी लोग शेरों तथा बाघों के लिए अधिक परिमाण में माँस लाकर हमारे सामने ही उन्हें खिलाने लगे। उनकी सानन्द गर्जना सुनकर तथा आग्रहपूर्वक भोजन माँगना देखकर हम लोग बड़े प्रसन्न हुए। इसके थोड़ी देर बाद हम सभी बगीचे में स्थित रामब्रह्म बाबू के मकान में आये। वहाँ पर चाय तथा जलपान आदि की व्यवस्था हुई। स्वामीजी ने थोड़ीसी चाय पी। निवेदिता ने भी चाय पी। एक ही मेज पर बैठकर भगिनी निवेदिता की छुई हुई मिठाई तथा चाय लेने में संकोच होते देख स्वामीजी ने शिष्य से कई बार अनुरोध करके उसे वह खिलायी और स्वयं जल पीकर उसका बाकी बचा हुआ जल शिष्य को पीने के लिए दे दिया। इसके बाद डारविन के क्रमविकासवाद के सम्बन्ध में थोड़ी देर तक चर्चा होती रही।
रामब्रह्म बाबू – डारविन के क्रमविकासवाद तथा उसके कारण को जिस भाव से समझाया है, उसके बारे में आपकी क्या राय है?
स्वामीजी – डारविन का कहना ठीक होने पर भी मैं ऐसा नहीं मान सकता कि क्रमविकास के कारण के सम्बन्ध में वही अन्तिम निर्णय है।
रामब्रह्म बाबू – क्या इस विषय पर हमारे देश के प्राचीन विद्वानों ने किसी प्रकार का विचार नहीं किया?
स्वामीजी सांख्य दर्शन में इस विषय पर पर्याप्त विचार किया गया है। मेरी सम्मति में क्रमविकास के कारण के बारे में भारतवर्ष के प्राचीन दार्शनिकों का सिद्धान्त ही अन्तिम निर्णय है।
रामब्रह्म बाबू – यदि संक्षेप में उस सिद्धान्त को समझाना सम्भव हो तो सुनने की इच्छा है।
स्वामीजी – निम्नजाति को उच्चजाति में परिणत करने में पाश्चात्यों की राय में ‘जीवनसंग्राम’ (struggle for existence), ‘योग्यतम का उद्वर्तन’ (survival of the fittest). ‘प्राकृतिक निर्वाचन’ (natural selection) आदि जिन सब नियमों को कारण माना गया है, आप उन्हें अवश्य ही जानते होंगे। परन्तु पातंजलदर्शन में उनमें से एक को भी उनका कारण नहीं माना गया है। पतंजलि की राय है कि, ‘प्रकृत्यापूरात्’ – अर्थात् प्रकृति की पूर्तिक्रिया द्वारा एक जाति दूसरी जाति में परिणत हो जाती है। विघ्नों के साथ दिनरात संघर्ष करके वैसा नहीं होता है। मैं समझता हूँ कि संघर्ष और प्रतिद्वन्द्विता तो बहुधा जीव की पूर्णता प्राप्ति में रुकावटें बन जाती हैं। यदि हजार जीवों का विनाश करके एक जीव की क्रमोन्नति होती है (जिसका पाश्चात्य दर्शन समर्थन करता है) तो फिर कहना होगा कि क्रमविकास द्वारा जगत् की कोई विशेष उन्नति की बात यदि मान भी ली जाय तो भी यह बात माननी ही पड़ेगी कि आध्यात्मिक विकास के लिए वह विशेष विघ्नकारक है। हमारे दार्शनिकों का कहना है कि सभी जीव पूर्ण आत्मा हैं। इस आत्मा के प्रकाश के कम-ज्यादा होने के कारण ही प्रकृति की अभिव्यक्ति तथा विकास में विभिन्नता दिखायी देती हैं। प्रकृति की अभिव्यक्ति एवं विकास में जो विघ्न हैं, वे जब सम्पूर्ण रूप से दूर हो जाते हैं तब पूर्ण भाव से आत्मप्रकाश होता है। प्रकृति की अभिव्यक्ति के निम्नस्तरों में चाहे जो हो परन्तु उच्चस्तरों में उन्हें दूर करने के लिए इन विघ्नों के साथ दिनरात संघर्ष करना आवश्यक नहीं है। देखा जाता है, वहाँ पर शिक्षा-दीक्षा, ध्यान-धारणा एवं प्रधानतया त्याग के ही द्वारा विघ्न दूर हो जाते हैं अथवा अधिकतर आत्मप्रकाश प्रकट होता है। अत: विघ्नों को आत्मप्रकाश का कार्य न कहकर कारण कहना तथा प्रकृति को इस विचित्र अभिव्यक्ति के सहायक कहना ठीक नहीं है। हजार पापियों के प्राणों का नाश करके जगत् से पाप को दूर करने की चेष्टा करने से जगत् में पाप की वृद्धि ही होती है। परन्तु यदि उपदेश देकर जीव को पाप से निवृत्त किया जा सके तो जगत् में फिर पाप नहीं रहेगा। अब देखिये, पाश्चात्यों के संघर्ष-मतवाद (Struggle Theory) अर्थात् जीवों का आपस में संघर्ष व प्रतिद्वन्द्विता द्वारा उन्नति करने का मतवाद कितना भयानक मालूम होता है।
रामब्रह्म बाबू स्वामीजी की बातों को सुनकर दंग रह गये। अन्त में बोले, “इस समय भारतवर्ष में आप जैसे प्राच्य और पाश्चात्य दर्शनों में पारंगत विद्वानों की ही आवश्यकता है। ऐसे ही विद्वान् व्यक्ति एकदेशदर्शी शिक्षित जनसमुदाय की भूलों को साफ साफ दिखा दे सकते हैं। आपकी क्रमविकासवाद की नवीन व्याख्या सुनकर मैं विशेष आनन्दित हुआ हूँ।”
चलते समय रामब्रह्म बाबू ने बगीचे के फाटक तक आकर स्वामीजी को बिदा किया और वचन दिया कि किसी अन्य दिन उपयुक्त अवसर देखकर फिर एकान्त में स्वामीजी से भेंट करेंगे। मैं कह नहीं सकता कि रामब्रह्म बाबू ने उसके बाद फिर स्वामीजी के पास जाने का अवसर प्राप्त किया या नहीं, क्योंकि इस घटना के थोड़े दिन बाद उनकी मृत्यु हो गयी।
शिष्य स्वामी योगानन्दजी के साथ ट्राम पर सवार होकर रात के करीब आठ बजे बागबाजार लौटा। स्वामीजी उससे करीब पन्द्रह मिनट पहले लौटकर आराम कर रहे थे। लगभग आध घण्टा विश्राम करने के बाद वे बैठकघर में हमारे पास उपस्थित हुए। उस समय वहाँ पर स्वामी योगानन्दजी, स्व. शरच्चन्द्र सरकार, शशिभूषण घोष (डाक्टर), बिपिन बिहारी घोष (डाक्टर), शान्तिराम घोष आदि परिचित मित्रगण तथा स्वामीजी के दर्शन की इच्छा से आये हुए पाँच छः अन्य सज्जन भी उपस्थित थे। यह जानकर कि आज स्वामीजी ने पशुशाला देखने के लिए जाकर रामब्रह्म बाबू के पास क्रमविकासवाद की अपूर्व व्याख्या की है, सभी लोग उक्त प्रसंग को विशेष रूप से सुनने के लिए पहले से ही उत्सुक थे, अतः उनके आते ही सभी की इच्छा को देखकर शिष्य ने उसी प्रसंग को उठाया।
शिष्य – महाराज, पशुशाला में आपने क्रमविकास के सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, उसे मैं अच्छी तरह समझ न सका। कृपा उसे सरल भाषा में फिर कहिये।
स्वामीजी – क्यों, क्या नहीं समझा?
शिष्य – यही कि आपने पहले अनेक बार हमसे कहा है कि बाहरी शक्तियों के साथ संघर्ष करने की क्षमता ही जीवन का चिह्न है और वही उन्नति की सीढ़ी है। इसलिए आपने आज जो बतलाया वह कुछ उलटासा लगा।
स्वामीजी – उलटा क्यों बताऊँगा? तू ही समझ न सका। निम्न-प्राणीजगत् में हम वास्तव में जीवित रहने के लिए संघर्ष, सब से अधिक सामर्थ्यवान् का उद्वर्तन आदि नियम प्रत्यक्ष देखते हैं। इसीलिए डारविन का मतवाद कुछ कुछ सत्य ज्ञात होता है। परन्तु मनुष्य-जगत् में जहाँ ज्ञान-बुद्धि का विकास है वहाँ हम उक्त नियम से विपरीत ही देखते हैं। उदाहरणार्थ, जिन्हें हम वास्तव में महान् पुरुष या आदर्श पुरुष समझते हैं उनका बाह्य जगत् से संघर्ष बिलकुल नहीं दिखायी देता। पशुजगत् में संस्कार अथवा स्वाभाविक ज्ञान की प्रबलता है। परन्तु मनुष्य ज्यों ज्यों उन्नत होता जाता है त्यों त्यों उसमें बुद्धि का विकास होता जाता है। इसीलिए मनुष्येत्तर प्राणी-जगत् की तरह बुद्धियुक्त्त मनुष्यजगत् में दूसरों का नाश करके उन्नति नहीं हो सकती। मानव का सर्वश्रेष्ठ पूर्ण विकास एकमात्र त्याग के ही द्वारा सम्पन्न होता है। जो दूसरे के लिए जितना त्याग कर सके, मनुष्य में वह उतना बड़ा है। और निम्न स्तर के पशुओं में जो जितना ध्वंस कर सकता है, वह उतना ही बलवान समझा जाता है। अतः जीवनसंघर्ष-तत्त्व इन दोनों क्षेत्रों में एकसा उपयोगी नहीं हो सकता। मनुष्य का संघर्ष है मन में। मन को जो जितना वशीभूत कर सका, वह उतना बड़ा बना है। मन के सम्पूर्ण रूप से वृत्तिविहीन बनने से आत्मा का विकास होता है। मनुष्य से भिन्न प्राणी-जगत् में स्थूल देह के संरक्षण के लिए जो संघर्ष होते देखे जाते हैं, वे ही मानवजीवन में मन पर प्रभुता स्थापित करने के लिए अथवा सत्त्ववृत्ति-सम्पन्न बनने के लिए होते रहते हैं। जीवित वृक्ष तथा तालाब के जल में पड़ी हुई वृक्ष-छाया की तरह मनुष्येतर प्राणियों का संघर्ष मनुष्य-जगत् के संघर्ष से विपरीत देखा जाता है।
शिष्य – तो फिर आप हमें शारीरिक उन्नति करने के लिए इतना क्यों कहा करते हैं?
स्वामीजी – क्या तुम लोग मनुष्य हो? हाँ, इतना ही कि तुममें थोड़ी बुद्धि है। यदि शरीर स्वस्थ न हो तो मन के साथ संग्राम कैसे कर सकोगे? तुम लोग क्या जगत् के परिपूर्ण विकासरूपी मनुष्य कहलाने योग्य रह गये हो? आहार, निद्रा, मैथुन के अतिरिक्त तुम लोगों में और है ही क्या? गनीमत यही है कि अब तक चतुष्पाद नहीं बन गये। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे – ‘वही मनुष्य है, जिसे अपने सम्मान का ध्यान है।’ तुम लोग तो ‘जायस्व म्रियस्व’ वाक्य के साक्षी बनकर स्वदेश-वासियों के द्वेष के और विदेशियों की घृणा के पात्र बने हुए हो। इस तरह तुम लोग मानवेतर प्राणियों की श्रेणी में आ गये हो, इसीलिए मैं तुम्हें संघर्ष करने को कहता हूँ। मतवाद का झमेला छोड़ो। अपने प्रतिदिन के कार्य एवं व्यवहार का स्थिर चित्त से विचार करके देख लो कि तुम लोग मनुष्य और मनुष्येतर स्तर के बीच के जीवविशेष हो या नहीं। शरीर को पहले सुसंगठित कर लो। फिर मन पर धीरे धीरे अधिकार प्राप्त होगा – ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’ – समझा?
शिष्य – महाराज, ‘बलहीनेन’ शब्द के अर्थ में भाष्यकार ने तो ‘ब्रह्मचर्यहीनेन’ कहा है!
स्वामीजी – सो कहें, मैं कहता हूँ – The physically weak are unfit for the realisation of the Self. (जो लोग शरीर से दुर्बल हैं, वे आत्म-साक्षात्कार के अयोग्य हैं।)
शिष्य – परन्तु सबल शरीर में कई जड़-बुद्धि भी तो देखने में आते हैं।
स्वामीजी – यदि तुम कोशिश करके उन्हें सद्विचार एक बार दे सको, तो वे जितने शीघ्र उसे कार्यरूप में परिणत कर सकेंगे, उतने शीघ्र दुर्बल व्यक्ति नहीं कर सकते। देखता नहीं, क्षीण व्यक्ति कामक्रोधादि के वेग को सम्भाल नहीं सकता। कमजोर व्यक्ति थोड़े ही में क्रोध में आ जाते हैं – काम द्वारा भी शीघ्र मोहित हो जाते हैं।
शिष्य – परन्तु इस नियम का व्यतिक्रम भी देखा जाता है।
स्वामीजी – कौन कहता है कि व्यतिक्रिम नहीं है। मन पर एक बार अधिकार प्राप्त हो जाने पर देह सबल रहे या सूख जाय, इससे कुछ नहीं होता। वास्तविक यह है कि शरीर के स्वस्थ न रहने पर कोई आत्मज्ञान का अधिकारी ही नहीं बन सकता; श्रीरामकृष्ण कहा करते थे – ‘शरीर में जरा भी त्रुटि रहने पर जीव सिद्ध नहीं बन सकता।’
इन बातों को कहते कहते स्वामीजी को उत्तेजित होते देखकर शिष्य साहस करके और कोई बात न कर सका। वह स्वामीजी के सिद्धान्त को ग्रहण कर चुप हो गया। कुछ समय के पश्चात् स्वामीजी हँसी हँसी में उपस्थित व्यक्तियों से कहने लगे – “और एक बात सुनी है आप लोगों ने? आज एक भट्टाचार्य ब्राह्मण निवेदिता का जूठा खा आया है। उसकी छुई हुई मिठाई खायी तो खैर, उससे उतनी हानि नहीं! – परन्तु उसका छुआ हुआ जल कैसे पी गया?”
शिष्य – सो आप ही ने तो आदेश दिया था। गुरु के आदेश पर मैं सब कुछ कर सकता हूँ। जल पीने को तो मैं सहमत न था – आपने पीकर दिया, इसलिए प्रसाद मानकर पी गया।
स्वामीजी – तेरी जाति की जड़ कट गयी है – अब फिर तुझे कोई भट्टाचार्य ब्राह्मण नहीं कहेगा।
शिष्य – न कहे, मैं आपकी आज्ञा पर चाण्डाल का भात भी खा सकता हूँ।
यह बात सुनकर स्वामीजी तथा उपस्थित सभी लोग जोर से हँस पड़े।
बातचीत में रात्रि के करीब साढ़े बारह बज गये। शिष्य ने निवासगृह में लौटकर देखा, फाटक बन्द हो गया है। पुकारकर किसी को जगाने में असमर्थ होकर वह विवश हो बाहर के बरामदे में ही सो गया।
कालचक्र के निर्मम परिवर्तन के अनुसार आज स्वामीजी, स्वामी योगानन्दजी व भगिनी निवेदिता इस संसार में नहीं हैं – रह गयी है उनके जीवन की केवल पवित्र स्मृति। उनके वार्तालाप को थोड़ाबहुत लिखने में समर्थ होकर शिष्य अपने को धन्य मान रहा है।