भारत की उन्नति का उपाय क्या है?
स्थान – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – भारत की उन्नति का उपाय क्या है? – दूसरों के लिए कर्म काअनुष्ठान या कर्मयोग।
शिष्य – स्वामीजी, आप इस देश में वक्तृता क्यों नहीं देते? वक्तृता के प्रभाव से यूरोप-अमरिका को मतवाला बना आये परन्तु भारत में लौटकर आपका उस विषय में यत्न और अनुराग क्यों घट गया, इसका कारण समझ में नहीं आता। हमारी समझ में तो पाश्चात्य देशों के बजाय यहीं पर उस प्रकार की चेष्टा की अधिक आवश्यकता है।
स्वामीजी – इस देश में पहले जमीन तैयार करनी होगी। तब बीज बोने से वृक्ष उगेगा। पाश्चात्य की भूमि ही इस समय बीज बोने के योग्य है, बहुत उर्वरा है। उस देश के लोग अब भोग की अन्तिम सीमा तक पहुँच चुके हैं। भोग से तृप्त होकर अब उनका मन उसमें और अधिक शान्ति नहीं पा रहा है। वे एक घोर अभाव का अनुभव कर रहे हैं। पर तुम्हारे देश में न तो भोग है और न योग ही। भोग की इच्छा कुछ तृप्त हो जाने पर ही लोग योग की बात सुनते समझते हैं। अन्न के अभाव से क्षीण देह, क्षीण मन, रोग-शोक-परिताप की जन्मभूमि भारत में भाषण देने से क्या होगा?
शिष्य – क्यों, आपने ही तो कभी कभी कहा है, यह देश धर्मभूमि है। इस देश में लोग जैसे धर्म की बात समझते हैं और कार्यरूप में धर्म का अनुष्ठान करते हैं वैसा दूसरे देशों में नहीं है। तो फिर आपके ओजस्वी भाषणों से क्यों न देश मतवाला हो उठेगा – क्यों न फल होगा!
स्वामीजी – अरे, धर्म-कर्म करने के लिए पहले कूर्म अवतार की पूजा करनी चाहिए। पेट है वह कूर्म। पहले इसे ठण्डा किये बिना तेरी धर्मकर्म की बात कोई ग्रहण नहीं करेगा। देखता नहीं पेट की चिन्ता से भारत बेचैन है। विदेशियों के साथ मुकाबला करना, वाणिज्य में अबाध निर्यात, और सब से बढ़कर तुम लोगों के आपस के घृणित दाससुलभ ईर्ष्या ने ही तुम्हारे देश की अस्थिमज्जा को खा डाला है। धर्म की कथा सुनाना हो तो पहले इस देश के लोगों के पेट की चिन्ता को दूर करना होगा। नहीं तो केवल व्याख्यान देने से विशेष लाभ न होगा।
शिष्य – तो हमें अब क्या करना चाहिए?
स्वामीजी – पहले कुछ त्यागी पुरुषों की आवश्यकता है – जो अपने परिवार के लिए न सोचकर दूसरों के लिए जीवन का उत्सर्ग करने को तैयार हों। इसीलिए मैं मठ की स्थापना करके कुछ बाल संन्यासियों को उसी रूप में तैयार कर रहा हूँ; शिक्षा समाप्त होने पर, ये लोग द्वार द्वार पर जाकर सभी को उनकी वर्तमान शोचनीय स्थिति समझायेंगे; उस स्थिति से उन्नति किस प्रकार हो सकती है, इस विषय में उपदेश देंगे और साथ ही साथ धर्म के महान् तत्त्वों को सरल भाषा में उन्हें साफ साफ समझा देंगे। तुम्हारे देश की साधारण जनता मानो एक सोया हुआ विराट जानवर (Leviathan) है। इस देश की यह जो विश्वविद्यालय की शिक्षा है उससे देश के अधिक से अधिक एक या दो प्रकाशित व्यक्ति लाभ उठा रहे हैं। जो लोग शिक्षा पा रहे हैं वे भी देश के कल्याण के लिए कुछ नहीं कर सक रहे हैं। बेचारे करें भी तो कैसे? कॉलेज से निकल कर ही देखता है कि वह सात बच्चों का बाप बन गया है! उस समय जैसे तैसे किसी क्लर्की या डिप्टी मैजिस्ट्राइट की नौकरी स्वीकार कर लेता है – बस यही हुआ शिक्षा का परिणाम! उसके बाद गृहस्थी के भार से उच्च कर्म और चिन्तन करने का उसको फिर समय कहाँ? जब अपना स्वार्थ ही सिद्ध नहीं होता, तब वह दूसरों के लिए क्या करेगा?
शिष्य – तो क्या इसका कोई उपाय नहीं है?
स्वामीजी – अवश्य है! यह सनातन धर्म का देश है। यह देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय फिर उठेगा। और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायगी। देखा नहीं है, नदी या समुद्र में लहरें जितनी नीचे उतरती हैं उसके बाद उतनी ही जोर से ऊपर उठती हैं – यहाँ पर भी उसी प्रकार होगा। देखता नहीं है, – पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है, सूर्य उदित होने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। तुम लोग इसी समय कमर कसकर तैयार हो जाओ – गृहस्थी करके क्या होगा? तुम लोगों का अब काम है देश देश में गाँव गाँव में जाकर देश के लोगों को समझा देना कि अधिक आलस्य करके बैठे रहने से काम न चलेगा। शिक्षाविहीन, धर्मविहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझाकर कहो, – ‘भाई, सब उठो, जागो, और कितने दिन सोओगे?’ और शास्त्र के महान सत्यों को सरल करके उन्हें जाकर समझा दो। इतने दिन इस देश के ब्राह्मणगण धर्म पर एकाधिकार करके बैठे थे। काल के स्रोत में वह जब और अधिक टिक नहीं सका है, तो तू अब जाकर ऐसी व्यवस्था कर कि देश के सभी लोग उस धर्म को प्राप्त कर सकें। सभी को जाकर समझा दो कि ब्राह्मणों की तरह तुम्हारा भी धर्म में एक-सा अधिकार है। चाण्डाल तक को भी इस अग्नि-मन्त्र में दीक्षित करो और सरल भाषा में उन्हें व्यापार वाणिज्य, कृषि आदि गृहस्थ-जीवन के अत्यावश्यक विषयों का उपदेश दो। नहीं तो तुम्हारे लिखने पढ़ने को धिक्कार – और तुम्हारे वेद-वेदान्त पढ़ने को भी धिक्कार!
शिष्य – महाराज, हममें वह शक्ति कहाँ है? यदि आपकी शतांश शक्ति भी हममें होती तो हम स्वयं धन्य हो जाते और दूसरों को भी धन्य कर सकते।
स्वामीजी – धत् मूर्ख! शक्ति क्या कोई दूसरा देता है? वह तेरे भीतर ही मौजूद है। समय आने पर वह स्वयं ही प्रकट होगी। तू काम में लग जा; फिर देखेगा, इतनी शक्ति आयगी कि तू उसे सम्भाल न सकेगा। दूसरों के लिए रत्ती भर काम करने से भीतर की शक्ति जाग उठती है; दूसरों के लिए रत्ती भर सोचने से धीरे धीरे हृदय में सिंह का-सा बल आ जाता है। तुम लोगों से मैं इतना स्नेह करता हूँ, परन्तु यदि तुम लोग दूसरों के लिए परिश्रम करते करते मर भी जाओ तो भी उसे देखकर मुझे प्रसन्नता ही होगी। शिष्य – परन्तु महाराज, जो लोग मुझ पर निर्भर हैं उनका क्या होगा?
स्वामीजी – यदि तू दूसरों के लिए प्राण देने को तैयार हो जाता है, तो भगवान उनका कोई न कोई उपाय करेंगे ही। ‘न हि कल्याणकृत कश्चित् दुर्गति तात गच्छति’, गीता में पढ़ा है न?
शिष्य – जी हाँ।
स्वामीजी – त्याग ही असली बात है। त्यागी बने बिना कोई दूसरों के लिए सोलह आना प्राण देकर काम नहीं कर सकता। त्यागी सभी को समभाव से देखता है – सभी की सेवा में लगा रहता है। वेदान्त में भी पढ़ा है, सभी को समभाव से देखना होगा; तो फिर एक स्त्री और कुछ बच्चों को अपना समझकर अधिक क्यों मानेगा? तेरे दरवाजे पर स्वयं नारायण दरिद्र के भेष में आकर अनाहार से मृतप्राय होकर पड़े हैं। उन्हें कुछ न देकर केवल अपना और अपने स्त्री-पुत्रों का पेट भाँति भाँति के व्यंजनों से भरना यह तो पशुओं का काम है।
शिष्य – महाराज, दूसरों के लिए काम करने के लिए समय समय पर बहुधा धन की भी आवश्यकता होती है। वह कहाँ से आयगा?
स्वामीजी – मैं कहता हूँ, जितनी शक्ति है, पहले उतना ही कार्य कर। धन के अभाव से यदि कुछ नहीं दे सकता तो न सही, पर एक मीठी बात या एक दो सदुपदेश तो उन्हें दे सकता है, क्या इसमें भी धन की आवश्यकता है?
शिष्य – जी हाँ, इतना मैं कर सकता हूँ।
स्वामीजी – ‘हाँ, कर सकता हूँ’ – केवल मुँह से कहने से काम नहीं बनेगा। जो कर सकता है – वह मुझे करके दिखा, तब जानूँगा – तेरा मेरे पास आना सफल हुआ। काम में लग जा – कितने दिनों के लिए हैं यह जीवन? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा। वरना पेड़ पत्थर भी तो पैदा तथा नष्ट होते रहते हैं – उसी प्रकार जन्म लेने और मरने की इच्छा क्या मनुष्य की कभी होती है? मुझे कार्य द्वारा दिखा दे कि तेरा वेदान्त पढ़ना सार्थक हुआ है। जाकर सभी को यह बात सुना ‘तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति मौजूद है, उसी शक्ति को जागृत करो।’ केवल अपनी मुक्ति प्राप्त कर लेने से क्या होगा? मुक्ति की कामना भी तो महा स्वार्थपरता है। छोड़ दे ध्यान, छोड़ दे मुक्ति की आकांक्षा – मैं जिस काम में लगा हूँ उसी काम में लग जा।
शिष्य विस्मित होकर सुनने लगा। स्वामीजी फिर कहने लगे –
“तुम लोग इसी प्रकार जमीन तैयार करो जाकर। बाद में मेरे जैसे हजार हजार विवेकानन्द भाषण देने के लिए नरलोक में शरीर धारण करेंगे; उसकी चिन्ता नहीं है। यह देख न, हममें (श्रीरामकृष्ण के शिष्यों में) जो लोग पहले सोचा करते थे कि उनमें कोई शक्ति नहीं है, वे ही अब अनाथाश्रम, दुर्भिक्षकोष आदि कितनी ही संस्थाएँ खोल रहे हैं। देखता नहीं है, निवेदिता ने अंग्रेज की लड़की होकर भी, तुम लोगों की सेवा करना सीखा है! और तुम लोग अपने ही देशवासियों के लिए ऐसा नहीं कर सकोगे? जहाँ पर महामारी हुई हो, जहाँ पर जीवों को दुःख ‘ही दुःख हो, जहाँ दुर्भिक्ष पड़ा हो – चला जा उस ओर। अधिक से अधिक क्या होगा, मर ही तो जायगा। मेरे तेरे जैसे न जाने कितने कीड़े पैदा होते रहते हैं और मरते रहते हैं। इससे दुनिया को क्या हानि-लाभ है। एक महान् उद्देश्य लेकर मर जा। मर तो जायगा ही; पर अच्छा उद्देश्य लेकर मरना ठीक है! इस भाव का घर घर में प्रचार कर, अपना और देश का कल्याण होगा। तुम्ही लोग देश की आशा हो। तुम्हें कर्मविहीन देखकर मुझे बड़ा कष्ट होता है। लग जा – काम में लग जा। विलम्ब न कर – मृत्यु तो दिनोंदिन निकट आ रही! बाद में करूँगा कहकर और बैठा न रह – यदि बैठा रहेगा, तो फिर तुझसे कुछ भी न हो सकेगा।”