धर्मस्वामी विवेकानंद

ज्ञानयोग व निर्विकल्प समाधि

स्थल – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)

वर्ष – १८९८ ईसवी

विषय – ज्ञानयोग व निर्विकल्प समाधि – सभी लोग एक दिन ब्रह्मवस्तु को प्राप्त करेंगे।

शिष्य – स्वामीजी, ब्रह्म यदि एकमात्र सत्य वस्तु है तो फिर जगत् में इतनी विचित्रताएँ क्यों देखी जाती हैं?

स्वामीजी – ब्रह्मवस्तु को (यह सत्य हो अथवा जो कुछ भी हो) कौन जानता है बोल? जगत् को हम देखते हैं और उसकी सत्यता मैं दृढ़ विश्वास रखते हैं। परन्तु दृष्टि की विचित्रता को सत्य मानकर विचारपथ में अग्रसर हो समय पर मूल एकत्व को पहुँच सकते हैं। यदि तू इस एकत्व में स्थिर हो सकता, तो फिर इस विचित्रता को नहीं देखता।

शिष्य – महाराज, यदि एकत्व में ही अवस्थित हो सकता तो प्रश्न ही क्यों करता? मैं जब विचित्रता को देखकर ही प्रश्न कर रहा हूँ, तो उसे अवश्य ही सत्य मान रहा हूँ।

स्वामीजी – अच्छी बात है। सृष्टि की विचित्रता को देखकर उसे सत्य मानते हुए मूल एकत्व के अनुसन्धान को शास्त्रों में व्यतिरेकी विचार कहा गया है अर्थात् अभाव या असत्य वस्तु को भाव या सत्य वस्तु मानकर विचार द्वारा यह प्रमाणित करना कि, वह भाव वस्तु नहीं वरन् अभाव वस्तु है, व्यतिरेक कहलाता है। तू उसी प्रकार मिथ्या को सत्य मानकर सत्य में पहुँचने की बात कह रहा है – क्यों यही है न?

शिष्य – जी हाँ, परन्तु मैं भाव को ही सत्य कहता हूँ और भावविहीनता को ही मिथ्या मानता हूँ।

स्वामीजी – अच्छा। अब देख, वेद कह रहे हैं – ‘एकमेवाद्वितीयम्।’ यदि वास्तव में एक ब्रह्म ही है, तो मेरा नानात्व तो मिथ्या हो रहा है। वेद तो मानता है न?

शिष्य – वेद की बात मैं अवश्य मानता हूँ। परन्तु यदि कोई न माने तो उसे भी तो उसे भी तो समझाना होगा?

स्वामीजी – वह भी हो सकता है। जड़विज्ञान की सहायता से उसे पहले अच्छी तरह से दिखा देना चाहिए कि इन्द्रियों से उत्पन्न प्रत्यक्ष पर भी हम विश्वास नहीं कर सकते। इन्द्रियाँ भी गलत साक्ष देती हैं, और वास्तविक सत्य वस्तु हमारे मन, इन्द्रिय तथा बुद्धि से परे है। उसके बाद उससे कहना चाहिए कि मन, बुद्धि और इन्द्रियों से परे जाने का उपाय भी है। उसे ऋषियों ने योग कहा है। योग अनुष्ठान पर निर्भर है – उसे प्रत्यक्ष रूप से करना चाहिए – विश्वास करो या न करो, अमल करने से ही फल प्राप्त किया जाता है। करके देख – होता है या नहीं। मैंने वास्तव में देखा है, ऋषियों ने जो कुछ कहा है सब सत्य है। यह देख, तू जिसे विचित्रता कह रहा है, वह एक समय लुप्त हो जाती है, अनुभूत नहीं होती। यह मैंने स्वयं अपने जीवन में श्रीरामकृष्ण की कृपा से प्रत्यक्ष किया है।

शिष्य – ऐसा कब किया है?

स्वामीजी – एक दिन श्रीरामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर के बगीचे में मुझे स्पर्श किया था। उनके स्पर्श करते ही मैंने देखा कि घरबार, दरवाजा-बरामदा, पेड़-पौधे, चन्द्रसूर्य, सभी मानो आकाश में लीन हो रहे हैं। धीरे धीरे आकाश भी न जाने कहाँ विलीन हो गया – उसके बाद जो प्रत्यक्ष हुआ था, वह बिलकुल याद नहीं है, परन्तु हाँ इतना याद है कि उस प्रकार के परिवर्तन को देखकर मुझे बड़ा भय लगा था – चीत्कार करके श्रीरामकृष्ण से कहा था, ‘अरे, तुम मेरा यह क्या कर रहे हो जी; मेरे माँ-बाप जो हैं।’ इस पर श्रीरामकृष्ण हँसते हुए ‘तो अब रहने दे’ कहकर फिर स्पर्श किया। उस समय धीरे धीरे फिर देखा घरबार, दरवाजा-बरामदा – जो जैसा था ठीक उसी प्रकार है। कैसा अनुभव था! और एक दिन – अमरीका में भी एक तालाब के किनारे ठीक वैसा ही हुआ था।

शिष्य विस्मित होकर सुन रहा था। थोड़ी देर बाद बोला, “अच्छा महाराज, ऐसी स्थिति मस्तिष्क के विकार से भी हो सकती है? और एक बात – उस स्थिति में क्या आपको किसी विशेष आनन्द की उपलब्धि हुई थी?”

स्वामीजी – जब रोग के प्रभाव से नहीं, नशा पीकर नहीं, तरह तरह के दम लगाकर भी नहीं, वरन् स्वाभाविक मनुष्य को स्वस्थ दशा में यह स्थिति होती है, तो उसे मस्तिष्क का विकार कैसे कहा जा सकता है, विशेषतः जब उस प्रकार की स्थिति प्राप्त करने की बात वेदों में भी वर्णित है तथा पूर्व आचार्यों तथा ऋषियों के आप्तवाक्यों से भी मिलती है। मुझे क्या अन्त में तूने विकृत-मस्तिष्क ठहराया?

शिष्य – नहीं महाराज, मैं यह नहीं कह रहा हूँ। शास्त्र में जब इस प्रकार एकत्व की अनुभूति के सैकड़ों उदाहरण हैं तथा आप भी जब कह रहे हैं कि यह हाथ पर रखे हुए आँवले की तरह प्रत्यक्ष सिद्ध है, और आपकी अपरोक्षानुभूति जब वेदादि शास्त्रोक्त वाक्यों के अनुरूप है, तब सचमुच इसे मिथ्या कहने का साहस नहीं होता। श्री शंकराचार्य जी ने भी कहा है – ‘क्व गतं केन वा नीतम्’ इत्यादि।

स्वामीजी – जान लेना, यह एकत्वज्ञान होने पर – जिसे तुम्हारे शास्त्र में ब्रह्मानुभूति कहा है – जीव को फिर भय नहीं रहता, जन्ममृत्यु का बन्धन छिन्न हो जाता है। इस निन्दनीय कामकांचन में बद्ध रहकर जीव उस ब्रह्मानन्द को प्राप्त नहीं कर सकते। उस परमानन्द को प्राप्त होने पर, जगत् के सुख-दुःख से जीव फिर अभिभूत नहीं होता।

शिष्य – अच्छा महाराज, यदि ऐसा ही है, और यदि हम वास्तव में पूर्ण ब्रह्म का ही स्वरूप हैं तो फिर उस प्रकार की समाधि द्वारा सुख प्राप्त करने में हमारी चेष्टा क्यों नहीं होती? हम तुच्छ काम-कांचन के प्रलोभन में पड़कर बार बार मृत्यु की ही ओर क्यों दौड़ रहे हैं?

स्वामीजी – क्या तू समझ रहा है कि उस शक्ति को प्राप्त करने के लिए जीव का आग्रह नहीं है? जरा सोचकर देख – तब समझ सकेगा कि तू जो भी कुछ कर रहा है, वह भूमासुख की आशा से ही कर रहा है। परन्तु सभी इस बात को समझ नहीं पाते। उस परमानन्द को प्राप्त करने की इच्छा आब्रह्मस्तम्ब तक सभी में पूर्ण रूप से मौजूद है। आनन्दस्वरूप ब्रह्म सभी के हृदय के भीतर है। तू भी वही पूर्ण ब्रह्म है। इसी मुहूर्त में ठीक सोचने पर उस बात की अनुभूति होती है। केवल अनुभूति की ही कमी है। तू जो नौकरी करके स्त्री-पुत्रों के लिए इतना परिश्रम कर रहा है उसका भी उद्देश्य उस सच्चिदानन्द की प्राप्ति ही है। इस मोह के दांवपेंच में पड़कर, मार खा-खाकर धीरे धीरे अपने स्वरूप पर दृष्टि पड़ेगी। वासना है, इसलिए मार खा रहा है और आगे भी खायगा। बस, इसी प्रकार मार खा-खाकर अपनी ओर दृष्टि पड़ेगी। प्रत्येक व्यक्ति की किसी न किसी समय अवश्य ही पड़ेगी। अन्तर इतना ही है कि किसी की इसी जन्म में और किसी की लाखों जन्मों के बाद पड़ती है।

शिष्य – महाराज, यह ज्ञान आपका आशीर्वाद और श्रीरामकृष्ण की कृपा हुए बिना कभी भी नहीं होगा।

स्वामीजी – श्रीरामकृष्ण की कृपारूपी हवा तो बह ही रही है, तू पाल उठा दे न। जब जो कुछ कर, खूब दिल से कर। दिनरात सोच ‘मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ – मुझे फिर भयचिन्ता क्या है? यह देह, मन, बुद्धि सभी क्षणिक हैं, इनके परे जो कुछ है वही मैं हूँ।’

शिष्य – महाराज, न जाने क्या बात है, यह भाव क्षण भर के लिए आकर फिर उसी समय उड़ जाता है, और फिर उसी व्यर्थ के संसार का चिन्तन करने लगता हूँ।

स्वामीजी – ऐसा पहलेपहल हुआ करता है। पर धीरे धीरे सब सुधर जायगा। परन्तु ध्यान रखना कि सफलता के लिए मन की बहुत तीव्रता और एकान्तिक इच्छा चाहिए। तू सदा सोचा कर कि ‘मैं नित्य-शुद्ध-बुद्धमुक्तस्वभाव हूँ। क्या मैं कभी अनुचित काम कर सकता हूँ? क्या मैं मामूली काम-कांचन के लोभ में पड़कर साधारण जीवों की तरह मुग्ध बन सकता हूँ?’ इस प्रकार धीरे धीरे मन में बल आयगा। तभी तो पूर्ण कल्याण होगा।

शिष्य – महाराज, कभी कभी मन में बहुत बल आ जाता है। पर फिर सोचने लगता हूँ, डिप्टी मैजिस्ट्रेट की नौकरी के लिए परीक्षा दूँ – धन आयगा, मान होगा, बड़े आनन्द में रहूँगा।

स्वामीजी – मन में जब ऐसी बातें आयें तब विचार में लग जाया कर। तूने तो वेदान्त पढ़ा है? सोते समय भी विचार रूपी तलवार सिरहाने रखकर सोया कर, ताकि स्वप्न में भी लोभ सामने न बढ़ सके। इसी प्रकार जबरदस्ती वासना का त्याग करते करते धीरे धीरे यथार्थ वैराग्य आयगा – तब देखेगा, स्वर्ग का दरवाजा खुल गया है।

शिष्य – अच्छा महाराज, भक्तिशास्त्र में जो कहा है कि अधिक वैराग्य होने पर भाव नहीं रहता; क्या यह सत्य है?

स्वामीजी – अरे फेंक दे तेरा वह भक्तिशास्त्र, जिसमें ऐसी बात है। वैराग्य, विषय-वितृष्णा न होने पर तथा काक-विष्ठा की तरह कामिनी-कांचन का त्याग किये बिना ‘न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि’, ब्रह्मा के करोड़ों कल्पों में भी जीव की मुक्ति नहीं हो सकती। जप, ध्यान, पूजा, हवन, तपस्या

  • केवल तीव्र वैराग्य लाने के लिए हैं। जिसने वह नहीं किया, उसका हाल तो वैसा ही है जैसा नाव बाँधकर पतवार चलानेवाले का – ‘न धनेन न चेज्यया त्यागेनैकेन अमृतत्वमानशुः’।

शिष्य – अच्छा महाराज, क्या काम-कांचन त्याग देने से ही सब कुछ होता है?

स्वामीजी – उन दोनों को त्यागने के बाद भी अनेक कठिनाइयाँ हैं। जैसे उनके बाद आती है – लोकप्रसिद्धि! उसे ऐसा वैसा आदमी सम्भाल नहीं सकता। लोग मान देते रहते हैं, नाना प्रकार के भोग आकर जुटते हैं। इसी में त्यागियों में से भी बारह आना लोग फँस जाते हैं। यह जो मठ आदि बनवा रहा हूँ, और दूसरों के लिए नाना प्रकार के काम कर रहा हूँ उससे प्रशंसा हो रही है। कौन जाने मुझे ही फिर इस जगत् में लौटकर आना पड़े!

शिष्य – महाराज, आप ही ऐसी बातें कर रहे हैं तो फिर हम कहाँ जाये?

स्वामीजी – संसार में है इसमें भय क्या है? ‘अभीः अभीः अभीः’ भय का त्याग कर! नागमहाशय को देखा है न? वे संसार में रहकर भी संन्यासी से बढ़कर हैं। ऐसे व्यक्ति अधिक देखने में नहीं आते। गृहस्थ यदि कोई हो तो नागमहाशय की तरह हो। नागमहाशय समस्त पूर्व बंग को आलोकित किये हुए हैं। उस देश के लोगों से कहना, उनके पास जायें। इससे उन लोगों का कल्याण होगा।

शिष्य – महाराज, आपने बिलकुल ठीक बात कही है। नागमहाशय श्रीरामकृष्ण के लीला-सहचर एवं नम्रता की जीतीजागती मूर्ति प्रतीत होते हैं।

स्वामीजी – यह भी क्या कहने की बात है? मैं एक बार उनका दर्शन करने जाऊँगा। तू भी चलेगा न? जल में डूबे हुए बड़े बड़े मैदान देखने की मेरी तीव्र इच्छा है। मैं जाऊँगा, देखूँगा। तू उन्हें लिख दे।

शिष्य – मैं लिख दूँगा। आपके देवभोग जाने की बात सुनकर वे आनन्द से पागल हो जाँगे। बहुत दिन पहले आपके एक बार जाने की बात चली थी, उस पर उन्होंने कहा था, ‘पूर्व बंग आपके चरणों की धूलि से तीर्थ बन जायगा।’

स्वामीजी – जानता तो है, नागमहाशय को श्रीरामकृष्ण ‘जलती हुई आग’ कहा करते थे।

शिष्य – जी हाँ, सुना है।

स्वामीजी – अच्छा, अब रात अधिक हो गयी है। आ, कुछ खा ले, फिर जा।

शिष्य – जो आज्ञा।

इसके बाद कुछ प्रसाद पाकर शिष्य कलकत्ता जाते जाते सोचने लगा, स्वामीजी अद्भुत पुरुष हैं। मानो साक्षात् ज्ञानमूर्ति आचार्य शंकर!!

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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