धर्मस्वामी विवेकानंद

धर्म प्राप्त करना हो तो गृहस्थ व संन्यासी दोनों के लिएकामकांचन के प्रति आसक्त्ति का त्याग करना एक जैसा ही आवश्यक है

स्थान – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)

वर्ष – १८९८ ईसवी

विषय – धर्म प्राप्त करना हो तो गृहस्थ व संन्यासी दोनों के लिएकामकांचन के प्रति आसक्त्ति का त्याग करना एक जैसा ही आवश्यक है -कृपासिद्ध किसे कहते हैं – देश-काल-निमित्त से परे जो राज्य है उसमें कौन किस पर कृपा करेगा?

शिष्य – महाराज, श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, कामिनी-कांचन का त्याग न करने पर कोई भी धर्मपथ में अग्रसर नहीं हो सकता। तो फिर जो लोग गृहस्थ हैं, उनके उद्धार का क्या उपाय है? उन्हें तो दिनरात उन दोनों को ही लेकर व्यस्त रहना पड़ता है।

स्वामीजी – काम-कांचन की आसक्त्ति न जाने पर, ईश्वर में मन नहीं लगता – वह चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी! इन दो चीजों में जब तक मन है, तब तक ठीक ठीक अनुराग, निष्ठा या श्रद्धा कभी उत्पन्न नहीं होगी।

शिष्य – तो क्या फिर गृहस्थों के उद्धार का उपाय है?

स्वामीजी – हाँ, उपाय है, क्यों नहीं? छोटी छोटी वासनाओं को पूर्ण कर लेना और बड़ी बड़ी का विवेक से त्याग कर देना। त्याग के बिना ईश्वर की प्राप्ति न होगी – ‘यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत्’ – वेदकर्ता ब्रह्मा यदि स्वयं ऐसा कहें, फिर भी न होगा।

शिष्य – अच्छा महाराज, संन्यास लेने से ही क्या विषय-त्याग होता है?

स्वामीजी – नहीं, परन्तु संन्यासी लोग काम-कांचन को सम्पूर्ण रूप से छोड़ने के लिए तैयार हो रहे हैं, यत्न कर रहे हैं, परन्तु गृहस्थ तो नाव को बाँधकर पतवार चला रहे हैं – यही अन्तर है। भोग की आकांक्षा क्या कभी मिटती है रे? ‘भूय एवाभिवर्धते’ – दिनोंदिन बढ़ती ही रहती है।

शिष्य – क्यों? भोग करते करते तंग आने पर अन्त में तो वितृष्णा आ सकती है।

स्वामीजी – धत् छोकरे, कितनों को आती देखी है? लगातार विषयभोग करते रहने पर मन में उन सब विषयों की छाप पड़ जाती है – दाग लग जाता है – मन विषय के रंग में रँग जाता है। त्याग, त्याग – यही है मूलमन्त्र।

शिष्य – क्यों महाराज, ऋषिवाक्य तो है – ‘गृहेषु पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः, निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम्’ गृहस्थाश्रम में रहकर इन्द्रियों को विषयों से अर्थात् रूपरस आदि भोगों से विमुख रखने को ही तपस्या कहते हैं; विषयानुराग दूर होने पर गृह ही तपोवन बन जाता है।

स्वामीजी – गृह में रहकर जो लोग काम-कांचन का त्याग कर सकते हैं, वे धन्य हैं, परन्तु यह कितने कर सकते हैं?

शिष्य – परन्तु महाराज, आपने तो थोड़ी ही देर पहले कहा था कि संन्यासियों में भी अधिकांशों का सम्पूर्ण रूप से काम-कांचन का त्याग नहीं हुआ है?

स्वामीजी – हाँ, कहा है; परन्तु यह भी कहा है कि वे त्याग के पथ पर चल रहे हैं, वे काम-कांचन के विरुद्ध युद्धक्षेत्र में अवतीर्ण हुए हैं। गृहस्थों को अभी तक यह धारणा ही नहीं हुई है कि काम-कांचनासक्त्ति एक विपत्ति है। उनकी आत्मोन्नति के लिए चेष्टा ही नहीं हो रही है। उसके विरुद्ध जो युद्ध करना होगा, यह चिन्ता ही अभी तक उन्हें नहीं हुई है।

शिष्य – क्यों महाराज, उनमें से भी तो अनेक व्यक्ति उस आसक्त्ति का त्याग करने की चेष्टा कर रहे हैं।

स्वामीजी – जो लोग कर रहे हैं, वे अवश्य ही धीरे धीरे त्यागी बनेंगे; उनकी भी धीरे धीरे काम-कांचन के प्रति आसक्त्ति कम हो जायगी। परन्तु बात यह है, ‘जाता हूँ, जाऊँगा’, ‘होता है, होगा’, जो लोग इस प्रकार चल रहे हैं उनका आत्मदर्शन अभी बहुत दूर है। परन्तु ‘अभी भगवान को प्राप्त करूँगा, इसी जन्म में करूँगा’ – यह है वीर की बात। ऐसे व्यक्ति सर्वस्व त्याग देने को तैयार होते हैं; शास्त्र में उन्हीं के सम्बन्ध में कहा है – ‘यदहरेव विरजेत, तदहरेव प्रव्रजेत्’ – जिस क्षण वैराग्य उत्पन्न हो जायगा उसी क्षण वे संसार का त्याग कर देंगे।

शिष्य – परन्तु महाराज, श्रीरामकृष्णदेव तो कहा करते थे, ईश्वर कृपा होने पर, उन्हें पुकारने पर वे इन सब आसक्त्तियों को एक पल में मिटा देते हैं।

स्वामीजी – हाँ, उनकी कृपा होने पर ऐसा अवश्य होता है, परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करनी हो तो पहले शुद्ध, पवित्र बन जाना चाहिए; कायमनोवाक्य से पवित्र होना चाहिए; तभी उनकी कृपा होती है।

शिष्य – परन्तु कायमनोवाक्य से यदि संयम कर सके, तो फिर कृपा की आवश्यकता ही क्या है? तब तो फिर स्वयं अपनी ही चेष्टा से आत्मोन्नति की हुई समझी जायगी।

स्वामीजी – मुझे प्राणपण से चेष्टा करते देखकर ही वे कृपा करेंगे। उद्यम या प्रयत्न न करके बैठ रहो तो कभी कृपा न होगी।

शिष्य – सम्भव है अच्छा बनने की इच्छा सभी की है; परन्तु पता नहीं कि किस दुर्ज्ञेयसूत्र से मन निम्नगामी बन जाता है; सभी लोग क्या यह नहीं चाहते हैं कि ‘मैं सत् बनूँगा, अच्छा बनूँगा, ईश्वर को प्राप्त करूँगा’?

स्वामीजी – जिनके मन में उस प्रकार की इच्छा हुई है, याद रखना उन्हीं में वैसे बनने की चेष्टा आयी है और वह चेष्टा करते करते ही ईश्वर की दया होती है।

शिष्य – परन्तु महाराज, अनेक अवतारों में तो यह भी देखा जाता है कि जिन्हें हम अत्यन्त पापी, व्यभिचारी आदि समझते हैं, वे भी साधन-भजन किये बिना ही, उनकी कृपा से ईश्वर को प्राप्त करने में समर्थ हुए थे – इसका क्या कारण है?

स्वामीजी – याद रखना, उनके मन में अत्यन्त अशान्ति आयी थी, भोग करते करते वितृष्णा आ गयी थी, अशान्ति से उनका हृदय जल रहा था; वे हृदय में इतनी कमी अनुभव कर रहे थे कि यदि उन्हें कुछ शान्ति न मिलती तो उनकी देह छूट जाती। इसीलिए भगवान की दया हुई थी। वे सब लोग तमोगुण में से होकर धर्मपथ में उठे थे।

शिष्य – तमोगुण हो या और जो भी कुछ हो, परन्तु उस भाव में भी तो उनको ईश्वरप्राप्ति हुई थी?

स्वामीजी – क्यों न होगी? परन्तु पाखाने के दरवाजे से प्रवेश न करके सामनेवाले दरवाजे में से होकर मकान में प्रवेश क्या अच्छा नहीं है? – और उस पथ में भी तो इस प्रकार की एक परेशानी और चेष्टा है ही कि मन की इस अशान्ति को कैसे दूर करूँ।

शिष्य – यह ठीक है, परन्तु मैं समझता हूँ कि जो लोग इन्द्रिय आदि का दमन अथवा काम-कांचन का त्याग करके ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सचेष्ट हैं, वे प्रयत्नवादी तथा स्वावलम्बी हैं; और जो लोग केवल उनके नाम मात्र पर विश्वास कर निर्भर रहते हैं, भगवान समय पर काम-कांचन के प्रति उनकी आसक्त्ति को दूर करके अन्त में परम पद दे ही देते हैं।

स्वामीजी – हाँ, परन्तु ऐसे लोग बहुत ही कम हैं; सिद्ध होने के बाद लोग उन्हें ही कृपासिद्ध कहते हैं। परन्तु ज्ञानी और भक्त दोनों के मत में त्याग ही मूलमन्त्र है।

शिष्य – इसमें फिर सन्देह क्या है! श्रीगिरीशचन्द्र घोष महाशय ने एक दिन मुझसे कहा था कि, “कृपा का कोई नियम नहीं है। यदि है तो उसे कृपा नहीं कहा जा सकता। वहाँ पर सभी गैरकानूनी कारवाइयाँ हो सकती हैं।”

स्वामीजी – ऐसा नहीं है रे, ऐसा नहीं हैं; घोष महाशय ने जिस स्थिति की बात कही है, वहाँ पर भी कोई अज्ञात कानून का नियम अवश्य है। गैर-कानूनी कारवाई है अन्तिम बात – देश-काल-निमित्त के परे के स्थान की बात; वहाँ पर कार्य-कारण-सम्बन्ध नहीं है, इसीलिए वहाँ पर कौन किस पर कृपा करेगा? – वहाँ पर सेव्य-सेवक, ध्याता-ध्येय ज्ञाता-ज्ञेय सब एक हो जाते हैं – सभी समरस।

शिष्य – तो फिर अब आज्ञा दीजिये। आपकी बात सुनकर आज वेद-वेदान्त का सार समझ गया। इतने दिन तो केवल बातों का आडम्बर मात्र हो रहा था।

स्वामीजी की पदधूलि लेकर शिष्य कलकत्ते की ओर अग्रसर हुआ।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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